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Wednesday, 8 November 2023

मैं और इन्डियन फिल्म्स (हिन्दी)

 

 

 

सिर्गेइ पिरिल्याएव

 

मैं

और

इण्डियन फ़िल्म्स

 

 

                                  हिंदी अनुवाद

आ. चारुमति रामदास

 

 

 




 

 

दुनिया की सबसे अच्छी मेरी माँ को,


 

अनुक्रमणिका

                

प्रस्तावना

 

तीन से अनंत तक

जब हम गैस स्टेशन पर घूमते थे

मेरा नाम जोकर...

वो सुनहरा ज़माना...

मैं और वोवेत्स फ़ोटो प्रिंट करते हैं ....

मैं परामनोवैज्ञानिक (हीलर) कैसे बना....

मैंने फ़ुटबॉल मैच देखा

मेरा प्यार.....

जल्दी ही अगस्त आने वाला है...

इण्डियन फ़िल्म्स

बिल्कुल-बिल्कुल शुरूवात से...

औषधीय जड़ी-बूटियों का संग्रह...

इण्डिया, दो सिरीज़.....

मैं और व्लादिक फ़िल्में बनाते हैं.....

मेरी परदादी – नताशा

समर कॉटेज. त्यौहार के दिन और रोज़मर्रा के दिन...

मैं और व्लादिक – लेखक...

मैं और व्लादिक – बिज़नेसमैन

फ़ुटबॉल-हॉकी....

मेरे नानू मोत्या, पर्तोस और पालनहार...

फिर परनानी नताशा और फ़ाइनल...

उपसंहार

 

परिशिष्ठ

आन्या आण्टी और अन्य लोग...

लेखक की ओर से.....

 

प्रस्तावना

जब बाल साहित्य में किसी सुयोग्य लेखक का आगमन होता है, तो सारी धरती इस अनूठी घटना का स्वागत करती है. क्योंकि हमारे ग्रह पर हर असली बाल लेखक – सोने जितना मूल्यवान होता है. वैसे, जापान में ऐसे विशेष व्यक्तियों को, जो जीवन में खुशियाँ लाते हैं, “मानवता की दौलत” कहते हैं.

ऐसी ही दौलत है – लेखक सिर्गेइ पिरिल्याएव, जिसने बचपन के बारे में एक अद्भुत लघु उपन्यास दुनिया को दिया है. उसे हर उम्र के बच्चे पसंद करेंगे. और बुढ़ापे तक बार-बार पढेंगे. क्योंकि इसमें कोई चीज़ है, जिस पर हँस सकते हैं! बैठो, किताब खोलो और ठहाके लगाओ. क्या ज़िंदगी में इससे बड़ा आनंद कहीं है? असल में हास्य की भावना की शिक्षा – आत्मा की स्वतंत्रता की शिक्षा ही तो है.

“इण्डियन फिल्म्स” के नायक की आत्मा स्वतंत्र है – जोशीली, बेचैन, ईमानदार, हरेक की मदद को तैयार, ये आत्मा है एक कवि की और कलाकार की, जो स्वयम् लेखक सिर्गेइ पिरिल्याएव के इतने नज़दीक है. मुझे यकीन है कि इस नायक की आत्मा हर पाठक को अपने दिल के निकट महसूस होगी. वह दुनिया की ओर देखने की उस ताज़ा और अचरजभरी दृष्टि को पैदा करेगी (या याद दिलाएगी?) जो हम सबके लिए बेहद ज़रूरी है, ख़ास तौर से उनके लिए, जो बच्चों के लिए लिखते हैं.

अपनी रचनाओं में सिर्गेइ पिरिल्याएव बाल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट परंपराओं को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसका उद्गम – यूरी सोत्निक, निकलाय नोसव, विक्टर द्रागून्स्की, ल्येव कास्सिल की कहानियों से हुआ है.

वर्तमान समय में ये विधा बिरले ही देखी जाती है. क्यों कि वह बहुत कठिन है. और, ये बता दूँ, कि साहित्य में ऐसी ख़ुशनुमा, ठोस विषयवस्तु वाली, ज्वलंत, और साथ ही “ज़िंदगी से भरपूर” कहानियाँ – उच्च कोटी की कलाबाज़ियों जैसी हैं.

और मुझे ख़ुशी है, कि हम धरती से इस बहादुर पायलट की अचूक कलाबाज़ी को देख सकते हैं, जिसे दुनिया में सबसे ज़्यादा अपनी नानी तोन्या से, नानू मोत्या से, परनानी नताशा से, भाई व्लादिक से प्यार है, और ख़ास तौर से – ख़ूब दूर स्थित, पहुँच के बाहर, रहस्यमय और न सुलझने वाली पहेली जैसी इण्डियन फिल्म्स से प्यार है.

मरीना मस्क्वीना                   

 

 

 

 

 

तीन से अनंत तक

 

 


 

 

जब हम घूमते थे ....

गैस स्टेशन पर ....

 

जब मैं....

जब मैं तीन साल का था, तो मम्मी-पापा ने मेरे लिए एक साइकिल - तितली’ – खरीदी. मुझे उस पर जाने में बहुत डर लगता था, क्योंकि मुझे साइकिल चलाना आता नहीं था, और तब पापा ने पिछले पहिए के दोनों ओर दो और छोटे-छोटे पहिए फ़िट कर दिए. वो इसलिए कि मैं आसानी से साइकिल चलाना सीख जाऊँ. मगर इन दो पहियों की वजह से साइकिल ऐसी राक्षस जैसी हो गई, कि चलाते रहो-चलाते रहो, मगर कहीं जा ही ना पाओ. और फिर, इन फ़िट किए हुए पहियों के कारण मुझे साइकिल चलाने में शरम भी आती थी, क्योंकि सभी समझ जाते कि उनके बिना मेरा काम नहीं चल सकता. ये मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था, और मैंने फ़ौरन मम्मी-पापा से कह दिया कि मैं तो बगैर इन एक्स्ट्रा पहियों के ही चलाऊँगा.

और, वाकई में, साइकिल चलाने में ज़रा भी मुश्किल नहीं हुई. मैं , जैसे साइकिल पे नहीं जा रहा था, बल्कि तितलीपे सवार होकर अपने कम्पाऊण्ड में उड़ रहा था. मगर, फिर ऐसा हुआ कि मैं टीले से नीचे उतर रहा था और मेरे रास्ते में अचानक स्टॉलर के साथ एक औरत प्रकट हुई. मैंने उसे कितना ही चिल्लाकर कहा कि एक ओर को हट जाए, मगर उसे, ज़ाहिर है, ऐसा लगा, कि पहाड़ी की ऊँचाई को देखते हुए तितलीपर सवार मुझसे उसे कोई ख़तरा नहीं है. तो, मुझे अचानक टर्न लेना पड़ा. मैंने तेज़ी से दाहिनी ओर टर्न लिया, हैण्डल पार करते हुए साइकिल से गिर गया और मेरी दाईं छोटी उँगली में मोच आ गई.

इमर्जेन्सी रूम में एक ख़ूबसूरत नर्स ने मेरी उँगली ठीक कर दी. मुझे दर्द महसूस न हो, इसलिए वह पूरे समय मुस्कुराकर दुहराती रही, जैसा फ़िल्म में होता है:

“आँखें बंद कर और बर्दाश्त कर, तू तो मेरा शांत बच्चा है.”

अब ज़रा अच्छा भी लग रहा था.

जब मैं चार साल का था, तो मैं घर में एक बिल्ली लाया, जिससे कि उसे घर में पाल सकूँ. मगर मुझे उसको रखने की इजाज़त नहीं दी गई, बल्कि, सिर्फ बिल्ली को दूध पिला दिया और उसे भगाने लगे. कम से कम दूध नहीं पिलाते, सिर्फ भगा देते, मगर यहाँ तो दूध भी पिलाया – और, गेट आऊट! मुझे इतना अपमान लगा, कि मैंने बिल्ली के साथ घर छोड़ने का फ़ैसला कर लिया, और, बस, फ़ुलस्टॉप.

मैं निकल गया.

नौ नंबर की बस में बैठा और चल पड़ा, बिल्ली को पूरे समय हाथों में पकड़े रहा. सब लोग मेरे पास आने लगे: कितनी अच्छी बिल्ली है, कितनी अच्छी बिल्ली है! बिल्ली मुझे लगातार नोंचे जा रही थी, बस ने अपना चक्कर पूरा किया और वापस उसी जगह पर आ गई. मैं बेहद तैश में आ गया और मैंने फ़ैसला कर लिया, कि अबकी बार घर से पैदल ही जाऊँगा. मैंने गैस स्टेशन (पेट्रोल पम्प) का चक्कर लगाया और घास के मैदानों से होता हुआ चलता रहा. बिल्ली को ले जाना मुश्किल होता जा रहा था, क्योंकि वो न सिर्फ मुझे खरोंचे मार रही थी, बल्कि बैल जैसी आवाज़ में म्याऊँ-म्याऊँ भी कर रही थी. इसके अंदर ऐसी हिम्मत कहाँ से आई? मैं सुस्ताने के लिए बैठा, जिससे कि थोड़ी देर के लिए बिल्ली को न पकड़ना पड़े, - मैंने सोचा, कि ये ख़ुद ही थोड़ा घूम-फिर लेगी. मगर जैसे ही मैंने उसे छोड़ा, वो तीर की तरह भाग गई. ज़ाहिर है, उसे मेरा बर्ताव अच्छा नहीं लगा था – उसकी ख़ातिर घर से निकल जाने का.

और, ये किसी गाँव के रास्ते के पास ही हुआ था. मेरा मूड बेहद ख़राब हो गया. मैं किनारे पर बैठ गया. पैरों में दर्द हो रहा है, पूरे बदन पे खरोंचें हैं, बिल्ली भाग चुकी है – रोने को दिल चाह रहा था. अचानक देखा – एक कार आ रही है. और कैबिन में हैं अंकल वोलोद्या – ये मेरे पापा के गराज वाले दोस्त हैं. उन्होंने मेरी ओर हाथ हिलाया:

 “ऐ! तू यहाँ कैसे आया? चल घर तक ले चलता हूँ!”

और, ले आए. मगर, फिर भी, मैं घर से चला ही जाऊँगा. अगर वो एक बिल्ली को भी नहीं रख सकते, तो फिर आगे भी कोई उम्मीद कैसे होगी?

जब मैं पाँच साल का था, तो मुझे दस रूबल का नोट मिला. ये बहुत सारे पैसे थे, मतलब आज के दस हज़ार के बराबर, बस, उस समय नोट दूसरे हुआ करते थे. तो, मतलब, जैसे ही मुझे दस रूबल्स मिले, बड़े लड़के फ़ौरन मेरे पास भागे-भागे आए. एक बोला:

“सुन, मेरे दस रूबल्स खो गए हैं!”

दूसरे ने उसे धक्का दिया, और वो भी बोला:

“नहीं, मेरे! सुबह, जब मैं कुत्ते के साथ घूम रहा था!”

मैं उस लड़के को दस रूबल्स देने ही वाला था जो कुत्ते के साथ घूम रहा था, मगर तभी तीसरे प्रवेश द्वार वाली मेरी पड़ोसन, वेरोनिका हमारे पास आई, और कहने लगी:

“ झूठ बोल रहा है, तेरे पास तो कुत्ता ही नहीं है! ये इसके दस रूबल्स हैं, क्योंकि उसे ये सड़क पर पड़े हुए मिले!”

सब लोग मुझसे जलने लगे, सिर्फ दस रूबल्स की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए भी, कि वेरोनिका ने मेरी तरफ़दारी की थी. क्योंकि वेरोनिका बहुत ख़ूबसूरत थी और उसने मेरी तरफ़दारी की थी, न कि उनकी. उसके बाद मैंने और वेरोनिका ने  पेट्रोल-पम्प का एक चक्कर लगाया और उसके घर में टी.वी. भी देखा.

बाद में अपने कम्पाऊण्ड में लड़के मुझे चिढ़ाने भी लगे, कि मुझे प्यार हो गया है, मगर मैं तो जानता था कि ऐसा जलन के मारे कर रहे हैं, इसलिए मैंने बुरा नहीं माना. और फिर, अगर मुझे प्यार हो भी गया हो, तो क्या? हो सकता है, मेरी वेरोनिका के साथ शादी भी हो जाती, अगर एक वाकया न होता.

मैं अपने प्रवेश द्वार के पास खड़ा था, सूरजमुखी के बीज चबा रहा था.

तभी सफ़ाई करने वाली दाशा आण्टी आ गई. मैंने बीज छुपा लिए, मगर दाशा आण्टी पूछने लगी:

“बेटा, क्या तुझे पता है कि ये बीज यहाँ कौन कुतर रहा था?”

मैंने भी उससे कह दिया:

“दाशा आण्टी, अगर ईमानदारी से कहूँ, तो ये मैं था.”

 

 

अब तो वो मुझ पर ऐसे चिल्लाने लगी, जैसे पागल हो गई हो! बोली, कि मैं प्रवेश द्वार में कदम भी ना रखूँ.

मतलब, वेरोनिका वाले प्रवेश द्वार में.

दाशा आण्टी पहली मंज़िल पे रहती है, और उसकी खिड़की प्रवेश द्वार के बिल्कुल बगल में ही है. मतलब मामला बिगड़ गया है. ओह गॉड, काश कोई दाशा आण्टी को कोई और क्वार्टर दे देता? हो सकता है, वो ज़्यादा दयालु बन जाती!

जब मैं छह साल का था, तो पापा ने मुझे फ़ुटबॉल की गेंद प्रेज़ेन्ट की. मगर ये कोई सीधी सादी गेंद नहीं थी, बल्कि वो ही गेंद थी जिससे सचमुच की स्पार्ताकटीम वाले प्रैक्टिस करते थे.

ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि मेरे पापा के एक दोस्त मॉस्को में रहते हैं और उनकी बेस्कोव से दोस्ती है. और बेस्कोव – स्पार्ताकटीम का ट्रेनर है. बड़े बच्चे फ़ौरन मुझे अपने खेल में शामिल करने लगे, वो ही, जो मुझसे दस रूबल्स छीन लेना चाहते थे. वो मुझे बुलाने मेरे घर पे भी आ जाते, जैसे मैं भी बारह साल का हूँ, न कि छह साल का. मैं बहुत ख़ुश था, क्योंकि हमारे कम्पाऊण्ड का सबसे बढ़िया लड़का, ल्योशा रास्पोपव  भी मुझसे हाथ मिलाकर हैलो करने लगा और उसने मुझे लेमोनेड भी पिलाया.

 

मगर फिर स्पार्ताक वाली गेंद उड़कर किसी नुकीली चीज़ से टकराई, फ़ट गई, और ल्योशा ने मुझे लेमोनेड पिलाना और मुझसे हाथ मिलाना बंद कर दिया. उसने मुझसे हैलो कहना भी बंद कर दिया. पहले तो मैं बड़ा उदास हो गया, मगर फिर मेरी मम्मा ने दाशा आण्टी को वाशिंग पावडर का एक डिब्बा दिया, और मैं फिर से वेरोनिका वाले प्रवेश द्वार में जाने लगा.             

अब ल्योशा रास्पोपव  बड़े लड़कों के साथ बेंच पर बैठता है, और मैं और वेरोनिका लकड़ी के रोलर कोस्टर के पास बैठकर बातें करते हैं. बड़े लड़कों को दुबारा मुझसे जलन होने लगती है, क्योंकि वेरोनिका न सिर्फ ख़ूबसूरत है, बल्कि उसके चेहरे से साफ़ पता चलता है कि मैं उसे पसंद हूँ. बस, ल्योशा रास्पोपव  यही बात शांति से नहीं देख सकता. जलकुक्कड़ कहीं का, और ऊपर से पूरे कम्पाऊण्ड का सबसे अच्छा लड़का है!

 

जब मैं सात साल का था, तो स्कूल जाने लगा. हमारी टीचर का नाम था रीमा सिर्गेयेव्ना. तो, पहले ही दिन, पहली ही क्लास में, वह बोलीं:
“हमारी क्लास – ये एक जहाज़ है
, जिसमें बैठकर हम ज्ञान के सागर में निकल पड़े हैं. क्या कोई कैप्टेन बनना चाहता है?”

और ख़ुद मेज़ पर रखे कुछ कागज़ों को इस तरह उलट-पुलट करने लगी, जैसे उसे पक्का मालूम हो, कि कोई भी ज्ञान के जहाज़ का कैप्टेन नहीं बनना चाहता. मगर मैं तो हमेशा से कैप्टेन बनना चाहता था. हाँलाकि, ज्ञान के जहाज़ का तो नहीं, मगर बेहतर होता कि किसी दूसरे जहाज़ का कैप्टेन बन जाता, मगर अगर सिर्फ यही जहाज़ सामने हो, तो क्या कर सकते हो.

 “मैं बनना चाहता हूँ कैप्टेन!” मैंने कहा.

रीमा सिर्गेयेव्ना ने अचानक पूछा:

“मगर, क्या तुम कठिनाइयों और संदेहों की लहरों का मुकाबला करते हुए जहाज़ को निर्दिष्ट दिशा में ले जा सकते हो? क्योंकि ज्ञान का सागर – एक गंभीर, भयानक चीज़ है!”

इससे साफ़ पता चल रहा था, कि उसकी राय में, मैं न सिर्फ ये, बल्कि कुछ भी करने के काबिल नहीं हूँ. वह कह रही थी, और अपने लिपस्टिक को ठीक-ठाक कर रही थीं. वहाँ कुछ चिपक गया था.


 

.....

 

 “ठीक है, रीमा सिर्गेयेव्ना,” मैंने अपनी बात जारी रखी, “मैंने आपके उस सवाल का जवाब तो दिया था कि लेनिनग्राद को लेनिनग्राद क्यों कहते हैं! क्योंकि ग्राद’ – इसका मतलब पुराने ज़माने में होता था शहर’! मैं जहाज़ भी मैनेज कर लूँगा, आप परेशान न हों.”

 “नहीं, मैनेज नहीं कर पाओगे,” न जाने क्यों उसने बहुत ख़ुशी से कहा, और बात ख़त्म हो गई. उसकी लिपस्टिक पूरी ख़राब हो गई, और मैं समझ गया मैं कैप्टेन नहीं बनूँगा. मगर बाद में पता चला कि कैप्टेन बनेगी ख़ुद रीमा सिर्गेयेव्ना. मगर किसी भी किताब में और किसी भी फ़िल्म में कैप्टेन डेक पर लिपस्टिक ठीक नहीं करतीं. और, वो भी सेलर्स के सामने!  

जब मैं आठ साल का था, तो मैंने टेलिविजन पे एक ख़त लिखा, जिसमें ये विनती की थी, कि दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म दिखाएँ. मैं नहीं जानता था, कि दॉन किहोते कौन है, मगर नार्सिस अंकल से (ये भी मेरे पापा के एक दोस्त हैं) बातचीत के दौरान पता चला, कि दॉन किहोते मुझसे बहुत मिलता जुलता है.

नार्सिस अंकल के साथ बातचीत किचन में हो रही थी. नार्सिस अंकल मरम्मत के काम में पापा की मदद कर रहे थे, और चाकू से वॉल-पेपर खुरच रहे थे. वो खुरच रहे थे, और कह रहे थे, कि ये दीवार समतल है, जैसी हमारी ज़िंदगी, और ऐसा कहते हुए मुस्कुरा रहे थे, जैसे कोई बड़ी ज्ञान की बात कह रहे हों. मैंने भी एक छेनी उठाई और वॉल पेपर खुरचने लगा. मैं चाहता था कि एक ही बार में जितना हो सके उतना ज़्यादा खुरच दूँ, मगर अंकल नार्सिस ने कहा, कि इस तरह से वॉल-पेपर खुरचते हुए मैं इस दीवार से उसी तरह संघर्ष कर रहा हूँ, जैसे दॉन किहोते ने विण्ड-मिल से किया था.

“और, इसका क्या मतलब है: विण्ड-मिल से संघर्ष करना? और दॉन किहोते कौन था? कहीं ये शांत-दोन ही तो नहीं?” - कित्ती सारी बातों मे मैं दिलचस्पी ले रहा था.          

“कम ऑन, बेटा!” अंकल नार्सिस हँस पड़े. “ शांत दोन’ – ये एक नदी है, जबकि दॉन किहोते – सूरमा. क्योंकि कोई था ही नहीं जिससे वह लड़ सके, इसलिए उसने विण्ड-मिल के ख़िलाफ़ संअअअ...घर्ष किया” और नार्सिस ने एक बड़ा टुकड़ा निकाल फेंका, फिर से चहकते हुए, कि दीवार वैसी ही समतल है, जैसे ज़िंदगी.

कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद वो आगे कहने लगे, हालाँकि अब मैं कुछ पूछ नहीं रहा था:

विण्ड-मिल से संघर्ष करना - इसका मतलब है, बिना सोचे समझे अपनी ताकत व्यर्थ गँवाना. छेनी के बदले चाकू ले और शांति से खुरच. वर्ना तो तू दॉन किहोते की तरह बन जाएगा, जिस पर दुल्सेनिया तोबोसो हँसी थी.”

“ये और कौन है?”

“ये एक महिला थी, ऐसी, ख़ास!!!” यहाँ अंकल नार्सिस स्टूल से गिरते गिरते बचे, जिस पे वो खडे थे, और ये ध्वनि ख़ास’ – ज़ाहिर है, इसीने उनकी अपने आपको संभालने में मदद की. वो संभल गए, और इस तरह आगे कहने लगे, जैसे कुछ हुआ ही न हो: “दॉन किहोते हर जगह उसका पीछा करता था, जिससे उसकी रक्षा कर सके, मगर वो उससे दूर भागती थी, नहीं चाहती थी कि कोई उसकी रक्षा करे.  

इसके बाद नार्सिस ने मुझे दॉन किहोते के बारे में किताब पढ़ने की सलाह दी. मगर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैंने सोचा कि दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म देखना अच्छा रहेगा, और मैं टी.वी. वालों को ख़त लिखने बैठ गया. सीधे चैनल -1 को.

“नमस्ते!” मैंने लिखा. “आपको वोलोग्दा का एक स्टूडेण्ट लिख रहा है, जिसका नाम कोन्स्तांतिन है. अगर मुश्किल न हो, तो दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म दिखाएँ. किसी भी दिन, मगर बहुत देर से नहीं, जिससे मैं रात को आराम से सो सकूँ. अगर आपके पास ये फ़िल्म नहीं है, तो कम से कम शांत दोनके बारे में ही दिखा दें, जिससे मैं समझ सकूँ, कि दोनों में फ़र्क क्या है”.

तारीख डाल दी और हस्ताक्षर कर दिए.

और, उन्होंने शांत दोनके बारे में फ़िल्म दिखा दी. ये सही है, कि एकदम नहीं, बल्कि साल भर के बाद. मगर, चलो, ठीक है, ख़ास बात ये है, कि अब मैं जानता हूँ, कि शांत दोनक्या है – ये वहाँ है, जहाँ कज़ाक लड़ाई-झगड़े करते हैं. मगर, फ़िर वो शांतकैसे हुई? तर्क की दृष्टि से देखा जाए, तो उसे कोलाहल भरीहोना चाहिए. सुनने में भी अच्छा लगता है: कोलाहल भरी दोन’. और ये ज़्यादा ईमानदार भी है.

जब मैं दस साल का था, तो मैं तीसरी क्लास में पढ़ रहा था और हम अपनी पसंद के किसी भी विषय पर निबंध लिखते थे. मैंने प्यार के बारे में लिखने का फ़ैसला किया. और लिख दिया.

 

प्यार के बारे में     

 जब मैं बिल्कुल छोटा था, तो मुझे वेरोनिका अच्छी लगती थी. वो बगल वाले प्रवेश द्वार में रहती थी, और सफ़ाई कर्मचारी दाशा आण्टी मुझे इस प्रवेश द्वार में घुसने नहीं देती थी, क्योंकि मैंने सूरजमुखी के बीज फर्श पर बिखेर दिए थे. फिर मम्मा ने दाशा आण्टी को वाशिंग पावडर का डिब्बा दिया, और दाशा आण्टी मुझे अंदर छोड़ने लगी.

वेरोनिका के बाल काले थे और आँखें हरी. हम गैस स्टेशन पे घूमते और टी.वी. देखते. वैसे, हम एक दूसरे को बहुत प्यार करते थे, और सब लोग हमसे जलते थे, ख़ासकर हमारे कम्पाऊण्ड का एक लड़का ल्योशा रास्पोपव . फिर मैं स्कूल जाने लगा, घूमने-फिरने के लिए अब कम टाइम मिलता था, और इसके बाद वेरोनिका दूसरे शहर चली गई. मगर, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तो मैं उसे ज़रूर ढूँढ़ लूँगा और हम शादी कर लेंगे.

और मैंने अपना निबंध टीचर को दे दिया.

और हमारी क्लास में पढ़ती थी लीज़ा स्पिरिदोनवा. वो भी ख़ूबसूरत थी, मगर मुझे वो ज़रा भी अच्छी नहीं लगती थी, क्योंकि उसे देखकर ही पता चल जाता था, कि वो दुष्ट है. तो, ब्रेक में लीज़ा स्पिरिदोनवा टीचर की मेज़ के पास गई, मेरा निबंध पढ़ा और मुझे हुक्म देने लगी कि कहाँ अर्ध विराम होने चाहिए, और कहाँ नहीं. ऐसा, शायद, इसलिए, क्योंकि वो चाहती थी, कि दुनिया के सब लोग उसे प्यार करें, मगर मेरे तो जैसे माथे पर लिखा था, कि मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता. मेरे इस अज्ञान के लिए मुझे 3 नम्बर दिए गए, मगर लीज़ा स्पिरिदोनवा को इससे भी चैन नहीं मिला. ऐसा तो नहीं है कि मैं सिर्फ अर्ध-विरामों के ही कारण उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता!

अब मैं ग्यारह साल का हूँ. मैंने इन नोट्स को, जो आपने पढ़े, अपने एक दोस्त को दिखाया, और उसने कहा, कि ये दिलचस्प तो हैं, मगर बहुत संक्षेप में हैं. मतलब, कि मैंने बहुत कम-कम लिखा है. मगर, मैं तो सिर्फ वही लिख सकता था,

ना, जो वाकई में हुआ था, इसलिए, मैं सोच में पड़ गया: अभी तक तो कोई ज़्यादा दिलचस्प घटनाएँ हुई नहीं हैं, मतलब, मुझे अभी मालूम नहीं है कि किस बारे में लिखना है. मगर दोस्त ने मुझसे कहा:

“ मगर, तू उस बारे में लिख, जो भविष्य में होगा.”

 “ऐसा कैसे?” पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया.

 “जैसे, तू ऐसा लिखता है,” – दोस्त ने मुझे समझाया (उसका नाम आर्तेम था), -“जब मैं इत्ते-इत्ते साल का था, तो ऐसा-ऐसा हुआ था. मगर अब ऐसा लिख : जब मैं इत्ते-इत्ते साल का हो जाऊँगा...और कल्पना कर कि क्या हो सकता है.”

मैंने फ़ौरन ये आइडिया पकड़ लिया और लिखने के लिए बैठ गया.

इस तरह इस छोटे से लघु-उपन्यास का दूसरा भाग प्रकट हुआ, जिसका शीर्षक है:

 

 

जब मैं हो जाऊँगा...        

जब मैं बीस साल का हो जाऊँगा, तो वेरोनिका से मिलूँगा और हम शादी कर लेंगे. फिर धीरे-धीरे मैं एक इम्पॉर्टेन्ट आदमी बन जाऊँगा और तीस साल की उम्र में ज़रूर डाइरेक्टर बन जाऊँगा. ये बहुत पहले से चल रहा है, इसलिए बचोगे कैसे? मुझे सही-सही तो नहीं पता. कि वो कैसा काम होगा, जिसका डाइरेक्टर मैं बनूँगा, मगर काम बेहद ज़िम्मेदारी का होगा, कोई ऐसा-वैसा, फ़ालतू काम नहीं होगा. मैं अपनी कैबिन में बैठा करूँगा, टेलिफ़ोन पे बातें किया करूँगा, खिड़की के बाहर बहुत बड़ा कम्पाऊण्ड होगा, जिसमें बहुत सारे ट्रक्स, कन्टेनर्स, और ड्राइवर्स होंगे, और मुझे, चाहे कुछ भी हो जाए, पालिच को तीन बजे से पहले ल्वोव भेजना होगा, और वलेरा को – एलाबूगा भेजना है, इसी पल. मगर वलेरा को, पता है, एलाबूगा ले जाने के लिए कुछ भी नहीं है, वो बेकार खड़ा है! और, मैं टेलिफोन पर अपनी डाँट पिलाऊँगा:

 “आप समझ रहे हैं, जॉर्ज ल्वोविच, मुझे इस बात में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है, कि आपके पास काम पे कौन आया है और कौन नहीं! मुझे बस इतना चाहिए, कि विश्न्याकोव को एग्रीमेंट के हिसाब से मिलना चाहिए!”

फिर मैं, पापा की तरह, डांटने लगूँगा, और पालिच फ़ौरन नोरील्स्क जाएगा, वालेरा – एलाबूगा, और मैं अपनी सेक्रेटरी वीका से शिकायत करूँगा कि सब के सब बेवकूफ़ हैं, एक सिर्फ मैं ही नॉर्मल हूँ हाँ, हाँ.

वीका हर बार मेरी हाँ में हाँ मिलाती रहेगी, अगर वो किसी बात में मुझसे सहमत नहीं हो, तो भी, मगर एक बार पता चल जाएगा, कि मैं बेहद गुस्सैल हूँ, और मैं उससे कहूँगा, कि अगर वो सहमत ना हो, तो साफ़-साफ़ कह दे, न कि कुछ अनाप-शनाप सोचने लगे.

“मैं कभी सोचती भी नहीं हूँ,” वीका आहत हो जाएगी, “सिर्गेइ व्लादिमीरविच, मैं सचमुच में ऐसा सोचती हूँ कि आपके चारों ओर सब लोग बेवकूफ़ हैं, सिर्फ आप अकेले ही सामान्य हैं. और सबके साथ प्यार से पेश आते हैं, काफ़ी ज़्यादा प्यार से!”

अब बताइए, ऐसी सेक्रेटरी कहाँ मिलेगी? और, अगर उसे मेरी हाँ में हाँ मिलाना अच्छा लगता है, तो क्या किया जा सकता है?

 

जब मैं चालीस साल का हो जाऊँगा, तो मेरी डाइरेक्टरशिप की दसवीं एनिवर्सरी मनाई जाएगी.

सम्माननीय सहयोगियों, दोस्तों और कई सारी महिलाओं के बीच मैं क्षेत्रीय रेस्तराँ इंद्रधनुष्य  में भोज वाली मेज़ पर बैठूंगा, स्नैक्स खाते हुए लोगों की शुभकामनाएँ और भाषण सुनूँगा, और मेरी दोस्ती और मेरे प्रति सम्मान का इज़हार किया जाएगा.

वैसे सिर्योझा,” मेरे डेप्युटीज़ में से एक कहेगा. “साधारण लड़का है, मगर जहाँ तक योग्यताओं का सवाल है, वो सबसे बिरला इन्सान है! वो टेलिफ़ोन का रिसीवर उठाता है और सिर्फ पाँच सेकण्ड्स में किसी को भी मना लेता है, जिससे समय पर सामान चढ़ाया और उतारा जा सके.”

 

बोलने वाले के अंदाज़ से ज़ाहिर हो रहा होगा कि उसके लिए मेरा अधिकार, मेरा प्रभुत्व सुदृढ़ और सर्वोच्च है, और मुझे ख़ुश करना – उसकी हार्दिक इच्छा है. मगर एक विरोधाभासी और कभी-कभी सनकी व्यक्ति होने के कारण, मैं अचानक अपने साथी को बिठा दूँगा और कहूँगा:

 “ठीक है, एफ़्रेमोव, कुछ न कहो. बेहतर है कि तुम स्नैक्स उठाओ, और फिर हम साथ मिलकर कराओके गाएँगे. इस समय मेरी बगल में बैठी हुई वेरोनिका मुस्कुराएगी और मुझसे कहेगी:

“कितने जंगली हो तुम!” और डान्स करने चली जाएगी.

और जब मैं समारोह से घर लौट रहा होऊँगा, तो मेरे साथ-साथ प्रसन्न वेरोनिका चल रही होगी.

 “क्या पार्टी थी!” वह कहेगी.

और मुझे न जाने क्यों ल्योशा रास्पोपव  की याद आ जाएगी.

वाकई में वो पूरे कम्पाऊण्ड का सबसे अच्छा लड़का था!

 

 

जब मैं साठ साल का हो जाऊँगा, तो मेरे पोते और पोतियाँ होंगे. वो अपने दादा से बेहद प्यार करेंगे, अच्छे नम्बर लाकर उसे ख़ुश करते रहेंगे और हमेशा मनाते रहेंगे कि मैं उनके साथ खेलूँ.

“मैं थक गया हूँ,” मैं टी.वी. का चैनल बदल कर कराहते हुए कहूँगा, “मुझे आराम करने दो, शैतानों!”

और तब मेरी पोती मरीना मुझे गले लगा लेगी और खूब खूब मनाते हुए कहेगी, कि मैं उनके साथ बाहर जाकर स्नो-मैन बनाऊँ.

 “बस, अब स्नो-मैनबनाना ही बाकी रह गया है!” मैं बेवकूफ़ों जैसे कहूँगा. मुझे मालूम है कि मेरे बस थोड़ा आवाज़ बिगाड़ने की देर है, मरीना हँसते-हँसते लोट पोट हो जाएगी. “ये-ए,” मैं बिगाड़ी हुई आवाज़ में कहूँगा, “आया है बूढ़ा ठूँठ बाहर सड़क पे और बना रहा है स्नो-मै-ए-न. इत्ती रात हो गई है, सारे बच्चे और उनके मम्मा-पापा अपने अपने बिस्तर पे जा चुके हैं, मगर, डैम इट, मरीना का नानू बना रहा है स्नो-मै-ए-न.”

मरीना को तो जैसे दौरा पड़ जाएगा, और मैं कहता रहूँगा:

“सुबह तक स्नो-मैन अचानक तालियाँ बजाएगा और नानू के चारों ओर दौड़ने लगेगा. त्रा-ता-ता! त्रा-ता-ता! बच्चे मेरी और स्नो-मैन की बगल से स्कूल जा रहे होंगे और कहेंगे:

चौदह नम्बर के क्वार्टर वाला (ये हमारा क्वार्टर है) बूढ़ा बिल्कुल सठिया गया है. पूरी रात सोता नहीं है!” मगर फिर हमारे प्रदेश में ज़ोरदार हवाएँ चलेंगी, बड़े बड़े तूफ़ान आएँगे, मगर मैं चाहे कहीं भी क्यों न छुप जाऊँ, मैं स्नो-मैन की हिफ़ाज़त करता रहूँगा.”   

“बस हो गया, नानू!” मरीना चिल्लाने और चिंघाड़ने लगेगी, मगर मैं कहता रहूँगा:

“और हवा मेरे साथ-साथ स्नो-मैन को भी धरती से हमेशा के लिए उड़ा ले जाएगी. ऐसा न हो, इसलिए, मेरी प्यारी पोती, मुझे अपने साथ स्नो-मैन बनाने के लिए मत कहो.”

इस तरह मैं बर्फ से कुछ भी बनाने के लिए नहीं जाऊँगा, और बच्चों के साथ खेलता रहूँगा.

जब मैं करीब अस्सी से कुछ ऊपर हो जाऊँगा, तो मेरी अंतिम घड़ी निकट आ जाएगी. मगर इस कठिन पल में भी मैं ख़ुश मिजाज़ बना रहूँगा. पोते-पोतियों को अपने पास बुलाऊँगा और कहूँगा:

“बच्चों, मेरी अंतिम घड़ी आ पहुँची है. तुम्हारा नानू हर पल मौत के करीब जा रहा है. जल्दी से चाय और सैण्डविचेज़ लाओ, आख़िरी बार खा लें.

आँखों में आँसू भरे पोती मरीना सैण्डविचेज़ बनाने के लिए जाएगी, और गंभीर पोते (वो, ख़ैर, तब तक बड़े आदमी बन चुके होंगे) पत्थर जैसे चेहरों से सोफ़े पर बैठेंगे, और ज़िंदगी उन्हें बोझ प्रतीत होगी.

और, जब मैं उनकी तरफ़ देखूँगा, तो मुझे जैसे छोटा सा शैतान काट लेगा.   

“दुखी हो गए, बच्चों?” मैं पूछूँगा. “बेहतर है कि मेरी नसीहत सुनो. डेनिस, तुझे मैं नसीहत देता हूँ और सिर्फ दोस्ताना अंदाज़ में सलाह देता हूँ, कि तू तेरी फ़र्म में डाकुओं के बीच काम करना छोड़ दे, और ईमानदारी से रहना और काम करना शुरू कर. और तुझे, एल्बर्ट, मैं कोई सलाह नहीं दूँगा, क्योंकि तू ख़ुद ही समझदार है. एक ही बात, जो मैं कहना चाहता हूँ, वो ये है, कि कभी भी ऐसा चेहरा मत बनाना, जैसा तूने अभी बनाया है. मैं समझ सकता हूँ, कि मेरी मौत दुखदायी है, मगर अपनी ज़िंदगी का क्या करेगा?” – और मैं नाक सुड़क लेता हूँ.

इसी समय मरीना हमारे लिए चाय और सैण्डविचेज़ लाएगी, मगर अब मेरा मन नहीं है और मैं अपने पोतों से चाय पीने के लिए कहता हूँ.

“चलो, एलबर्ट और डेनिस, मेरी सुखद यात्रा के लिए!”

 “नानू, चाय पीने का मन नहीं है...” दाँत किटकिटाते हुए, डेनिस और एल्बर्ट कहेंगे और जो हो रहा है, उसे बर्दाश्त न कर सकने के कारण मुट्ठियाँ भींच लेंगे.

 “खाओ, कहता हूँ खाओ!!!” मैं बेतहाशा चिल्लाऊँगा, जैसे जवानी में चिल्लाया करता था.

और, जैसे ही वे बढ़िया सैण्डविचेज़ को मुँह लगाएँगे, जैसे मरीना हमेशा बनाती थी, मेरी रूह छत की ओर उड़ेगी, फिर खिड़की से बाहर निकल जाएगी, घर के ऊपर तैरेगी और जल्दी ही ख़ुदा के घर पहुँच जाएगी.

“तो,” ख़ुदा कहेगा, “बेकार में इधर उधर न डोल. ये कपड़ा उठा और धूल झाड़, जैसे बाकी सब कर रहे हैं. वर्ना तो यहाँ जन्नत जन्नत नहीं बल्कि जहन्नुम बन जाएगी.”

और मैं धूल साफ़ करने लगूँगा, जिससे जन्नत जन्नत ही रहे, और...वगैरह, वगैरह.  

एक समय ऐसा भी आएगा, जब मैं बिल्कुल ही नहीं रहूँगा.                       

गाँवों के रास्तों पे शिशिर की बारिश की झड़ी लगेगी, कम्पाऊण्ड्स में चीरती हुई हवाएँ चलेंगी, और मेरा पैर क्यारियों पे कभी नहीं पड़ेगा, मेरे हाथों की ऊँगलियाँ कभी नहीं चटखेंगी, मेरा मुँह कभी चेरी-जूस नहीं पिएगा और मेरा दिल कभी ख़ुशी से नहीं भर उठेगा. नए लोग जनम लेते रहेंगे . वो अपनी-अपनी ज़िन्दगी जिएँगे, मेरे अनुभव से कुछ भी न लेते हुए.

मगर, हो सकता है, वो कभी मेरी छोटी सी किताब पढ़ लें. वो पढ़ेंगे, कि कैसे मैं और वेरोनिका गैस-स्टेशन पे घूमा करते थे, और जहाँ वो लोग रहते हैं, वहाँ भी गैस-स्टेशन्स होंगे. हमारे यहाँ तो गैस-स्टेशन्स हमेशा घरों के आस-पास ही होते हैं!

लीज़ा स्पिरिदोनोवा जैसी दुष्ट सुंदरियाँ भी, फूल फेंकेंगी और मुस्कुराएँगी, इस बारे में बिल्कुल भूल जाएँगी कि उनसे भी ख़ूबसूरत कोई और है.

 “हो-हो!” तब ऊँचे आसमान से मैं उनसे कहूँगा.

और तब, हल्की बारिश शुरू हो जाएगी. वो अपने अपने घरों में भागेंगी चाय पीने के लिए और टी.वी. देखने के लिए, जहाँ कई शामों को लगातार दॉन किहोते के बारे में फ़िल्म दिखा रहे होंगे.

 

 

मेरा नाम जोकर...                       

           

 इण्डियन फ़िल्म्स की तरह नास्त्या भी पहली ही नज़र में पसंद आ गई. पहले तो हमारे बीच सब कुछ बड़ी अच्छी तरह चल रहा था, मगर फिर (वो भी, शायद पहली ही नज़र में) नास्त्या को पुरानी इण्डियन हिंदी फ़िल्म मेरा नाम जोकर पसंद नहीं आई. और हम अलग हो गए.

ये सब ऐसे हुआ.

नास्त्या मेरे घर आई, हमने कॉफ़ी पी, और मैंने कोई फ़िल्म देखने का सुझाव दिया. जैसे, ‘मेरा नाम जोकर’.

“चल, देखते हैं,” नास्त्या ने कहा.

मैंने कैसेट लगाई, और स्क्रीन पर दिखाई दिया: राज कपूर फ़िल्म्स प्रेज़ेन्ट्स. मेरी आँखों में आँसू आ गए और सर्कस के अरेना में रंगबिरंगी रिबन्स के, गुब्बारों के शोर के बीच जोकर की ड्रेस में राज कपूर निकला. उसके पास फ़ौरन सफ़ेद एप्रन पहने, हाथों में कैंचियाँ लिए कई सारे लोग भागते हुए आए.

“आपके दिल का फ़ौरन ऑपरेशन करना पड़ेगा, ”  उन्होंने कहा.

 “क्यों?” राज कपूर ने पूछा.

 “क्योंकि, इतने बड़े दिल के साथ, जैसा आपका है, ज़िंदा रहना बेहद ख़तरनाक है,” उन्होंने कहा, “क्योंकि इतना बड़ा दिल तो दुनिया में किसी के भी पास नहीं है! सोचिए, क्या होगा, अगर आपके दिल में पूरी दुनिया समा जाए?!”

और राजकपूर गाना गाने लगा. मैं ये भी भूल गया कि मेरी बगल में नास्त्या बैठी है. उत्तेजना के कारण मेरे दाँत कस कर भिंच गए थे, और मैंने दाएँ हाथ से बाएँ हाथ की कलाई इतनी कस के पकड़ रखी थी, कि उसमें दर्द हो रहा था.      

पहला आधा घण्टा तो नास्त्या बिना किसी भावना के देखती रही. फिर वो हँसने लगी. राजकपूर की मम्मा मर रही है, वो उसी शाम अरेना में निकलता है और बच्चों को हँसाता है, और शोके बाद काला चश्मा पहन लेता है, जिससे कि कोई उसके आँसू न देख सके... और नास्त्या हँस रही है!

 “ओय, चश्मा कैसा है उसका – एकदम सुपर! – वो कहती है.

 “नास्त्या,” भिंचे हुए दाँतों के बीच से मैं तिलमिलाता हूँ, “ये फिल्म सन् सत्तर की है!”                    

मगर नास्त्या को इससे कोई फ़रक नहीं पड़ता था कि फ़िल्म कौन से सन् की है. जब राज कपूर ने अपने सामने पुराने चीथड़ों से बना गुड्डा-जोकर रखा और स्कूल टीचर के साथ अपने पहले नाकामयाब प्यार के बारे में बताने लगा, तो मुझे नास्त्या की तरफ़ देखने में भी डर लगने लगा. मैं सिर्फ हँसी दबाने की उसकी ज़बर्दस्त कोशिशें ही सुन रहा था.

करीब बीस मिनट तक हम तनावपूर्ण ख़ामोशी के बीच फ़िल्म देखते रहे. नास्त्या ने अपने गालों को हाथ से पकड़ रखा था, और वो कोशिश कर रही थी कि परदे की तरफ़ न देखे. मुझे अपने भीतर ऐसी ताकत महसूस हो रही थी, कि जैसे मैं अपनी नज़र से हमेशा के लिए सूरज को बुझा दूँगा. राज कपूर समन्दर के किनारे पर किसी कुत्ते को सहला रहा था.

सिर्योग, क्या ये फ़िल्म बहुत देर चलेगी?” आख़िर नास्त्या ने पूछ ही लिया.

जैसे मुझे चिढ़ाने के लिए रिमोट भी कहीं गिर गया था. फिर मैंने उसे ढूँढ़ा, कैसेट रोक दिया, उसे वीड़ियो-प्लेयर से बाहर निकाला, उसे डिब्बे में रख दिया और डिब्बे से नज़र हटाए बिना धीरे-धीरे कहा:

 “सोवियत बॉक्स ऑफिस में ये फ़िल्म दो घण्टे से कुछ ज़्यादा की थी. मगर, मेरे पास – पूरी, ओरिजिनल फ़िल्म है. तीन घण्टे चालीस मिनट की.”

“बड़ी तकलीफ़देह बात है,” नास्त्या ने कहा.

“तकलीफ़देह,” मैंने दुहराया और मेज़ पर कोई ताल देने लगा.

“सिर्योग,” नास्त्या ने भँवें चढ़ाईं, “क्या तुझे भी ये सब मज़ाकिया नहीं लगता? देख, कैसा है वो, बूढ़े ठूँठ के जैसा, मगर जा रहा है, जा रहा है, अपने लिए दुल्हन ढूँढ़ रहा है! और जब सब उसे निकाल देते हैं, तो वो बैठा-बैठा अपने गुड्डे से शिकायत करता है!”

“नहीं,मैंने कहा, “मुझे इसमें कोई मज़ाक नज़र नहीं आता.”

बकवास,” नास्त्या ने कहा. “ चल, इससे अच्छा, मैं कोई म्यूज़िक लगाती हूँ.”

मैंने मेज़ से लाइटर उठाया, उसे क्लिक किया और लौ की ओर देखता रहा.

 “म्यूज़िक तो तू कभी भी लगा सकती है. मगर फ़िल्म मेरा नाम जोकरतो तुझे दुनिया का कोई भी नौजवान नहीं दिखाएगा.”

“थैन्क्स गॉड,” नास्त्या हँस पड़ी.

इसके बाद हम कभी भी एक दूसरे से नहीं मिले.

जाते जाते नास्त्या ने यकीन से कहा, कि पहले मैं ही उसे फ़ोन करूँगा. मगर मैंने फ़ोन नहीं किया. कुछ ही दिन पहले मैं आन्या से मिला. मैं उसे मेरा नाम जोकरनहीं दिखाऊँगाउसे मैं श्री 420दिखाऊँगा. उसमें राजकपूर काफ़ी जवान है, और गाने भी बढ़िया हैं.

 

 

 

 

 

वो सुनहरा ज़माना...

 

ये उस पुराने ज़माने की बात है, जब टी.वी. पर हाल ही में फ़ैन्टेसी फ़िल्म भविष्य से आए मेहमानदिखाई गई थी और सारे बच्चे स्पेस-पाइरेट्स और रोबो वेर्तेर का खेल खेला करते. लड़कों को फ़िल्म की प्रमुख हीरोइन एलिस सिलेज़्न्योवा से प्यार हो गया था और लड़कियाँ को – प्रमुख हीरो, कोल्या गेरासीमोव से...

वोवेत्स मुझे नौमंज़िला बिल्डिंग की वेल्क्रो नहीं निकालने देता. वो इस बिल्डिंग में रहता है, और सोचता है, कि अगर मैं वेल्क्रो निकाल दूँगा, तो उसे सर्दियों में ठण्ड लगेगी. मगर मैं तो कब से वेल्क्रो को हाथ नहीं लगाता और वोवेत्स मेरा दोस्त है.

कुछ ही दिन पहले हम बेंच पे बैठे थे, और वो कह रहा था:

 “पता नहीं, मुझे मॉस्को जाना चाहिए या नहीं.”

“तुझे क्यों जाना है मॉस्को?” मैं पूछता हूँ. वोवेत्स अपनी पतलून की फ़टी जेब से  कई बार मरम्मत किया हुआ बटुआ निकालता है, जिसमें कभी एक भी पैसा नहीं होता, और मुझे पॉलिथीन के पीछे घुसाई हुई एक छोटी सी तस्वीर दिखाता है.

 “ये, इसके पास,” वो कहता है.

मैं एक जाना–पहचाना चेहरा देखता हूँ, मगर याद नहीं आता कि ये कौन है.

 “कौन है ये?”मैं पूछता हूँ.

मगर वोवेत्स मेरी तरफ़ ऐसी उलाहने भरी नज़र से देखने लगता है, कि मुझे फ़ौरन याद आ जाता है.

“-आ-आ! इसी ने तो एलिस का रोल किया था भविष्य से आए मेहमानमें! तू, क्या, उसे जानता है?! लगता है, अच्छी ही है, वोवेत्स!”

“मेरी गर्ल फ्रेण्ड है,” वोवेत्स संजीदगी से कहता है.
 “ओह
, नो, ऐसा नहीं हो सकता!”

अचरज के मारे मैं धीरे-धीरे घास पर लैण्ड करने लगता हूँ. एलिस -  वोवेत्स की गर्ल फ्रेण्ड!

“तुम उससे मिले कैसे ?” मैं पूछता हूँ.

“मैं नहीं, बल्कि वो. मॉस्को में, फ़ेस्टिवल में. वो मेरे पास आई और – बस हमने एक दूसरे को इन्ट्रोड्यूस कर लिया.”

मैं वोवेत्स से इतनी ईर्ष्या करने लगा! मुझे भी तो एलिस बेहद अच्छी लगती है!

“और तू,” मैं कहता हूँ, “अभी भी सोच रहा है, कि तुझे जाना चाहिए या नहीं?!”

 “हाँ, पता है,” वोवेत्स ने बटुआ वापस जेब में रख लिया. “हो सकता है, कि वो ख़ुद ही आ जाए, बस, मुझे ये नहीं पता कि कब आएगी... बेहद चाहती है मुझसे मिलना.”

मैं घर आता हूँ, और नानी को पूरी-पूरी जानकारी देता हूँ, कि फ़िल्म भविष्य से आए मेहमानवाली एलिस को नौ मंज़िला बिल्डिंग वाले वोवेत्स से प्यार हो गया है और वो जल्दी ही उसके यहाँ आने वाली है!

उस वोवेत्स से,” नानी ने पूछा, “जिसके होंठ मोटे-मोटे हैं?”                  

 

“यहाँ मोटे होठों की बात कहाँ से आ गई!” मैं पूछता हूँ. उसने मुझे अभी-अभी एलिस की फ़ोटो दिखाई है!”

मगर नानी ठहाके लगाने लगी:

“बस, यही बाकी था! एलिस हमारे मोटे-मोटे होठों वाले वोवेत्स को गले लगाएगी! उसे कोई और नहीं मिला!”

हँसने दो, हँसने दो’, मैं सोचता हूँ. मगर एलिस बस, आ ही जाएगी वोवेत्स से मिलने! हाँलाकि जलन तो, बेशक, हो रही है. वोवेत्स के जूतों में तो लेसेस भी नहीं हैं. वो किसी तार से बँधे हुए होते हैं. और एलिस को आठ भाषाएँ आती हैं! वो प्लूटो पर भी जा चुकी है. स्पूत्निक लाँच कर चुकी है, जो सभी आकाशगंगाओं उड़ रहा था और धरती पे सिग्नल्स भेज रहा था.   

 

 

मैं और वोवेत्स फ़ोटो प्रिंट करते हैं ....  

 

सन् 1988 में मैंने फ़ोटोग्राफ़ी सीखी. ये, बेशक, कमाल की बात थी, मगर इसमें कुछ मुश्किलें थीं. बात ये थी कि उस समय ऐसे कोई फ़ोटो स्टूडियोज़ नहीं थे, जिनमें फ्लैश की सहायता से एक सेकण्ड में फ़ोटो प्रिन्ट हो कर निकल आए, दूर दूर तक नहीं थे. फ़ोटोग्राफ़ बनाने के लिए ज़रूरत थी फ़ोटो एनलार्जर की, लाल लैम्प की, रील से फ़िल्म दिखाई दे इसलिए एक बेसिन की, फिक्सर की, डेवेलपर की, फ़ोटोग्राफ़िक पेपर वगैरह की. सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी टाइम की – ये सब करने के लिए. मेरे पास एनलार्जर को छोड़कर बाकी सब कुछ था, मगर एनलार्जर के बिना तो काम चल ही नहीं सकता था, और वो खूब महँगा भी था. मम्मा-पापा ने वादा किया था कि मुझे एनलार्जर देंगे, मगर सिर्फ नए साल पे, और यहाँ तो मई का महीना आ चुका था. मैं इंतज़ार नहीं कर सकता था, और अगर मेरा दोस्त वोवेत्स न होता, तो कुछ भी नहीं हो सकता था. 

“चल, मेरे घर में फ़ोटो प्रिन्ट करेंगे?” एक बार वोवेत्स ने मुझसे कहा. “मेरे पास सब कुछ है, और डेवेलपर भी...”

पहले तो मुझे वोवेत्स की बात पे ज़रा भी यकीन नहीं हुआ. ये बताना पड़ेगा, कि मेरा दोस्त काफ़ी अजीब है. मिसाल के तौर पे, कुछ समय पहले उसने कहा था, कि “ भविष्य से आए मेहमान” वाली एलिस – उसकी गर्ल फ्रेण्ड है. और सर्दियों में उसने मुझे अपनी नौ मंज़िला बिल्डिंग की वेल्क्रो खुरचने से मना कर दिया, क्योंकि बिना वेल्क्रो के उसे सर्दियों में बेहद ठण्ड लगेगी, क्योंकि वो पहली मंज़िल पे जो रहता है और ज़्यादातर वेल्क्रो उसीकी बाल्कनी के नीचे है. और ये भी, कि वोवेत्स अपने जूतों में लेसेज़ के बदले कोई नीला तार बाँधता है. वोवेत्स ने कई बार ये भी कहा था कि शहर के किसी स्कूल में कुंग-फू सिखाता है, जिसका कि वो प्रमाणित मास्टरहै, क्योंकि बहुत बचपन में वो चीन में पढ़ता था, जब बिल्कुल ही छोटा था. इस बात से भी बहुत शक होता था, क्योंकि, एक बार हमारी कन्स्ट्रक्शन साइट पे बड़े बदमाश लड़के हमारे सामने आ गए, तो मैं तो उनसे फ़ाइट करना चाहता था, जबकि मैं कोई मास्टर-वास्टर नहीं हूँ, मगर वोवेत्स भाग गया. हालात को भाँपकर वो बड़ी फ़ुर्ती से वहाँ से भाग निकला, अपनी एडियों को चमकाते हुए, जिससे उसका भारी-भरकम बेडौल जिस्म बुरी तरह हिल रहा था.

मतलब, अजीब था मेरा दोस्त, उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते... उसपे यकीन करना मुश्किल था, और मैंने पूछा:

“तू गप तो नहीं मार रहा है? सही में है डेवेलपर तेरे पास?”

“कसम खाता हूँ. ज़ुबान देता हूँ.”  

“तो फ़ोटो कब प्रिन्ट करेंगे? 

“चाहे तो कल सुबह आ जा मेरे यहाँ, नौ बजे, रील्स, फ़ोटो-पेपर ले आना, और बस, प्रिन्ट कर लेंगे.”

“ओके, पक्का!” मैं ख़ुश हो गया और दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं चल पड़ा वोवेत्स के घर, रील्स और फ़ोटो-पेपर लेकर.

वो बगल वाली नौमंज़िला बिल्डिंग के दूसरे प्रवेश द्वार की पहली मंज़िल पे रहता था, और मैं ख़ुश-ख़ुश उसके यहाँ जा रहा था – क्योंकि मेरे सीधे-सादे कैमेरे – 'स्मेना' से खींचे गए सारे फ़ोटो अब सचमुच के फोटोज़ में बदलने वाले थे.

“आ जा,'' वोवेत्स ने दरवाज़ा खोला. “सिर्फ किसी भी बात पे हैरान न होना और बेवकूफ़ी भरे सवाल मत पूछना. प्रिन्टिंग बाथरूम में करेंगे. लाल लैम्प है, तो तू परेशान न होना, सब कुछ सही-सही हो जाएगा.”

मगर किसी भी बात पे हैरान न होना काफ़ी मुश्किल था. बात ये नहीं थी कि वोवेत्स के क्वार्टर में सब कुछ बेतरतीब था, बस ऐसा लग रहा था कि हर कमरे में, कॉरीडोर में और किचन में भी कई सारे शहीद-मृतक घुस आए हों, इतनी बेतरतीबी से चीज़ें फ़िकी हुई थीं. पलंगों और दीवानों की टाँगें ही नहीं थीं. और हर कमरे में (कुल दो कमरे थे) इस सब ख़ुशनुमा माहौल में, एक-एक काली बिल्ली बैठी हुई थी.

“दोनों के बदन पे पिस्सू हैं,'' वोवेत्स ने पहले ही आगाह कर दिया.

बड़ा अजीब लग रहा था. मेरा मन मुझसे कह रहा था, कि इस क्वार्टर में कुछ भी हो सकता था, अच्छा भी, और अच्छा नहीं भी. वैसे उम्मीद तो अच्छा न ही होने की थी. चारों ओर की हर चीज़ जैसे ख़तरनाक उत्तेजना से लबालब थी. कुछ देर के लिए तो मैं भूल ही गया कि यहाँ क्यों आया हूँ.

“कुछ खाएगा?” वोवेत्स ने पूछा.

 “नहीं!” मैं करीब-करीब चिल्ला पड़ा. वो किस तरह का खाना खाता था – सिर्फ ख़ुदा ही जानता है, और वैसे भी एक भी आदमी इस घर में कुछ खाने या पीने का ख़तरा मोल नहीं लेगा. “नहीं,” मैंने दुहराया, “चल, फ़ोटोग्राफ़्स प्रिन्ट करते हैं.”   

“चल, चल,” न जाने क्यों वोवेत्स हँस पड़ा.

“तू गंदगी पे ध्यान मत दे, मेरे यहाँ हमेशा ऐसा ही रहता है. मैं छोटी-छोटी बातों पे अपना दिमाग नहीं खपाता हूँ. अब मुझे याद आया, कि वोवेत्स ने एक बार मुझसे कहा था, जैसे उसके पास बैंक में पंद्रह हज़ार पड़े हैं, और मैंने पूछ लिया:

 “तेरे पास तो बैंक में पंद्रह हज़ार पड़े हैं, मगर सारे पलंग तो बिना टाँगों के हैं?”

“ऐसा ही होना चाहिए,” वोवेत्स ने भेदभरे अंदाज़ में जवाब दिया. “तू क्या पलंग देखने आया है?”

मैंने सोचा कि वो ठीक कह रहा है और आसपास की चीज़ों पर ध्यान देना बस हो गया, बल्कि अब मुझे काम की ओर ध्यान देना चाहिए.

मगर ये काम हुआ किस तरह – ये एक अलग ही किस्सा है!

जब हम बाथरूम में गए और किन्हीं बेसिन्स और अनगिनत झाडुओं और ब्रशों के बीच, जो वोवेत्स को जान से भी प्यारे नज़र आ रहे थे, लाल बल्ब को जलाकर दूसरी लाईट बुझा दी, तो मेरा दोस्त अचानक बेहद ख़ुश हो गया. कहना पड़ेगा कि ऐसा उसके साथ अक्सर नहीं होता था और, ज़ाहिर था, कि ये किसी अच्छी बात की ओर इशारा नहीं करता था.  

“कुंग-फू दिखाऊँ?” आँख़ मारते हुए वोवेत्स ने पूछा.

 “प्लीज़, अगली बार?” मैंने सावधानी से कहा, ये समझते हुए भी कि, मैं चाहे कुछ भी कहूँ, कुंग-फू तो ज़रूर होगा ही होगा. वोवेत्स स्टैण्ड पर खड़ा हो गया, टब के पास पड़े हुए एक छोटे से खाली बेसिन को उल्टा करके (वोवेत्स के क्वार्टर में कमोड और बाथ एक साथ हैं).

“वोवेत्स, कोई ज़रूरत नहीं है!” मैं चिल्लाया.

“मैं-ए-ए!!!” वोवेत्स ने साइड में लात घुमाई, और फ़िक्सर्स समेत बेसिन बाथरूम के फ़र्श पर नज़र आया.                 

“ईडियट!” मैं दहाड़ा. “तूने क्या कर दिया?!”

वोवेत्स गंभीर हो गया.

“दहाड़ मत,'' उसने इत्मीनान से कहा और कुछ देर रुककर, जिसके दौरान उसके चेहरे पर अपराध की भावना दौड़ गई, आगे कहा: “ तूने ज़िंदगी में कितनी बार फ़ोटोज़ प्रिन्ट किए हैं? ''

 “दूसरी बार कर रहा हूँ,” मैंने ईमानदारी से स्वीकार किया.

“जभी. और मैं पाँच हज़ार बार कर चुका हूँ,” वोवेत्स ने घमण्ड से कहा. “ ऐसा होता है, कि कभी बाइ चान्स फिक्सर गिर जाता है. वो इतना ज़रूरी नहीं है. डेवेलपर तो है!”

मुझे फिर भी गुस्सा आ ही रहा था, क्योंकि मुझे अब अफ़सोस होने लगा था कि मैं वोवेत्स के घर क्यों आया, मगर जल्दी ही हम सीधे काम पे लग गए.

 

सात मिनट तक तो काम ठीक-ठाक चलता रहा. पाँच फ़ोटोज़ तो करीब-करीब तैयार हो गए थे, बस उन्हें सुखाना बाकी था, मगर फिर कुछ ऐसा हुआ, जिसके लिए ही मैं ये सारा किस्सा बताने के लिए तैयार हुआ. वोवेत्स ने अचानक फ़र्श से कोई धूल भरी चीज़ उठाई और चीखते हुए: “जा नहीं पाएगा! कैसे भी तुझे ख़तम कर दूँगा! एक भी कमीना बचकर नहीं जाएगा!” वो किसी गंदगी से धूल हटाने के लिए, बाथरूम के फ़र्श पर पानी बिखेरने लगा.

“तू क्या कर रहा है?!” मैं बिसूरने लगा.

“तिलचिट्टे, क्या तू देख नहीं रहा?! ति-इ-ल-च-ट्टे!”

और धूल झटकना जारी रहा.

मैं तीर की तरह बाथरूम से भागा, क्योंकि मैं इस सबसे बेज़ार हो गया था. वहाँ से एक मिनट तक चीखें आती रहीं, फिर वोवेत्स प्रकट हुआ और जैसे कुछ हुआ ही न हो, इस अंदाज़ में बोला:

“ मास्क पहनकर फ़ोटोग्राफ़्स प्रिन्ट करना जारी रखेंगे. ये लिक्विड ख़तरनाक है.”

मैं न जाने क्यों राज़ी हो गया. वोवेत्स कमरे से दो हरे मास्क्स खींच लाया, और हम फिर से बाथरूम में घुसे. मास्क के कारण साँस लेने में मुश्किल हो रही थी, मगर फ़ोटो प्रिन्ट करने की चाहत अभी भी बाकी थी.

बोलना नामुमकिन था. बर्दाश्त से बाहर ऊमस थी. मगर फिर भी कुछ नए फ़ोटोग्राफ़्स तैयार हो गए थे...

मई का महीना. बाहर धूप और गर्माहट थी, बच्चे साइकिलों पर घूम रहे हैं. निकोलाएव स्ट्रीट पर पुरानी नौमंज़िला इमारत के गंदे क्वार्टर में, पहली मंज़िल पर, बाथरूम में, लाल लैम्प की रोशनी में और डिब्बों से, बेसिन्स से और झाडुओं और मॉपर्स से घिरे हुए, सिकुड़ते हुए और बेहद मुसीबतों को झेलते हुए, मास्क पहने दो लड़के बैठे हैं और फ़ोटोग्राफ़्स प्रिन्ट कर रहे हैं. बेवकूफ़ी है. ऐसा तो चार्म्स की कहानियों में भी नहीं मिलता...

“मास्क उतार दे, मैं मज़ाक कर रहा था,” चालाकी से और बेशरमी से वोवेत्स मुस्कुराया, जब वो समझ गया कि मेरा दम घुट रहा है.

“मज़ाक कर रहा था से क्या मतलब?'' मैंने मास्क उतार कर पूछा.

अरे, मैंने सीधा-सादा पानी ही डाला था, सिर्फ कब से कोई मज़ाक नहीं किया था. इतवार को आ जा, अच्छे से प्रिन्ट करेंगे. मम्मा-पापा घर में होंगे, उनके सामने मैं कोई कुँग-फू नहीं दिखाता और मास्क लाने की भी मुझे इजाज़त नहीं है. वे रजिस्टर में लिखे हुए हैं.”

 “डेविल!” मैं गरजा. “और क्या तेरा नाम बाइ चान्स पागलों के डॉक्टर के रजिस्टर में नहीं है?!!”     

“प्लीज़, गुण्डागर्दी नहीं. मेहमान नवाज़ी के नियमानुसार मैं तुझे जवाब नहीं दे सकता, मगर अगर कोई चीज़ अच्छी नहीं लगी हो, तो दफ़ा हो जा.

दाँत भींचकर और बिना एक भी लब्ज़ कहे, मैंने अपनी रील्स उठाईं और तीस सेकण्ड में बाहर आ गया.

बहुत बुरा मन हो रहा था. थैन्क्स गॉड, शाम को, जब पापा ऑफ़िस से आए, तो हम जीन-पॉल बेल्मोन्दो की फ़िल्म “अलोनदेखने गए जिसे हम दोनों बहुत प्यार करते थे. उस समय मैंने पक्का इरादा कर लिया, कि अब फ़ोटोग्राफ़्स भी अकेले ही प्रिन्ट करना होगा. और वोवेत्स – मैं उससे अब कभी नहीं मिलूँगा...

एक हफ़्ते बाद मैं फिर से वोवेत्स से कम्पाऊण्ड में बात करने लगा और उसने फिर से साबित कर दिया कि वो कुँग-फू का मास्टर है. हो सकता है कि कुँग-फू के सारे मास्टर्स मास्क पहन कर फ़ोटोग्राफ़्स प्रिन्ट करते हों और झूठ बोलते हों कि उनकी फ़िल्म- स्टार्स से दोस्ती है?” मेरे दिमाग़ में ये ख़याल कौंध गया...

तो ये था किस्सा. क्या ये दुखभरा था या मज़ाहिया?

ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे भी समझ में नहीं आएगा!

 

मैं परामनोवैज्ञानिक (हीलर) कैसे बना....

 

जब मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था, तो टी.वी. पर करीब-करीब हर रोज़ हर तरह के मैजिशियन्स, जादूगर और परामनोवैज्ञानिक (हीलर्स) दिखाए जाते थे. वे सारी बीमारियाँ ठीक कर सकते थे. सिर्फ हाथों को हिलाएँगे या शब्दों में हिदायतें देंगे, और आपका हर मर्ज़ फ़ौरन रफ़ू चक्कर हो जाएगा. अगर आपको उन पर भरोसा न हो तो भी. ख़ास कर दो हीलर्स को अक्सर दिखाया जाता था – कश्पीरोव्स्की को और चुमाक को. चुमाक सफ़ेद बालों वाला था और उसका प्रोग्राम सुबह के समय होता था, वो सिर्फ हवा में हाथों को हिलाया करता ( क्रीम चार्ज करता, पानी – मतलब जो भी टी.वी. के पास रखो, वो चार्जकर देता), और कश्पीरोव्स्की शाम को हीलकिया करता, उसके बाल काले थे और वो मौखिक हिदायतें दिया करता.

मैंने उन्हें देखा, देखा और सोचा: मैं उनके जैसा अति-संवेदी क्यों नहीं हूँ? वो भी तो कभी स्कूल में ही पढ़ते थे और अपनी आश्चर्यजनक योग्यताओं के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे. हमारे स्कूल में हर शुक्रवार को क्लास-एक्टिविटीहोती थी. मैंने फ़ैसला कर लिया कि इस शुक्रवार को मैं शोकरूँगा. इसी बहाने माशा मलोतिलोवा भी जान जाएगी कि मैं कोई ऐसा-वैसा लड़का नहीं हूँ, बल्कि असली हीलरहूँ. माशा मलोतिलोवा हमारी क्लास की सबसे अच्छी लड़की है, मगर, फ़िलहाल, इस बारे में कुछ नहीं बताऊँगा.

मैं अपनी क्लास-टीचर ल्युदमिला मिखाइलोव्ना के पास गया और कहा कि ऐसी-ऐसी बात है, क्या शुक्रवार को एक्टिविटी-टाइम में हीलिंग शो कर सकता हूँ? पहले तो वो हँसी, फिर पूछने लगी कि क्या ये हीलिंग़का गुण मुझमें काफ़ी पहले से है, मगर फिर उसने इजाज़त दे दी. मुझे, सही में, झूठ बोलना पड़ा कि मैं करीब छह महीने से पानी चार्जकरता हूँ और मैंने अपने अंकल का अल्सर ठीक कर दिया था.

गुरूवार को, जब 'शो' में एक ही दिन रह गया था, तो मैंने सोचा कि थोड़ी रिहर्सल कर लूँ. मैं कैसेट-प्लेयर के सामने बैठ गया और, ये कल्पना करते हुए, कि मेरे भीतर से स्ट्राँग-पॉज़िटिव एनर्जी निकल रही है, मैं अपने सामने हाथों को हिलाते हुए कहने लगा:

 

 “आँखें बंद करो,'' मैंने कहा. “आप एक बड़ा सफ़ेद कमरा देख रहे हैं, जो रोशनी से लबालब भरा है. आप कमरे में हो. आप कमरे के बीचोंबीच हो. आप एक साइड से अपने आप को देख रहे हो, आप जैसे काँच के बने हो. सफ़ेद, भारहीन प्रकाश आपके शरीर को गर्माहट से भर रहा है. हल्की-हल्की हवा चल रही है. शरीर के उन भागों में, जहाँ भारीपन है, ज़्यादा-ज़्यादा प्रकाश एकत्रित हो रहा है और भारीपन ग़ायब हो रहा है. आप अच्छा महसूस कर रहे हैं. गर्माहट महसूस कर रहे हैं.” 

मैंने हाथों को कुछ और तनाव दिया, उन्हें झटका और अपना कहना जारी रखा:

“हवा कमज़ोर पड़ रही है. आप उसे मुश्किल से महसूस कर रहे हैं. आप इस स्थिति में जितना संभव हो, उतनी ज़्यादा देर तक रहना चाहते हैं. मगर प्रकाश बिखरने लगता है. वह लुप्त हो जाता है, अपने साथ आपकी सारी तकलीफ़ें ले जाता है. आपका शरीर शांत है और स्वच्छ है...”        

मैं करीब आधे घण्टे तक बोलता रहा, जब तक कि दरवाज़े की घण्टी नहीं बजी. पड़ोस वाला मक्सिम मुझे घूमने के लिए बुलाने आया था. मैंने कहा कि इस समय मैं नहीं आऊँगा, मैं उसे खींचकर अपने कमरे में ले आया, मैंने उसे समझाया कि बात क्या है, और उसके सामने 'शो' वाला टेप-रेकॉर्डर रख दिया.

मक्सिम ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह आँख़ें बंद कर लीं, बिना हिले पूरी कैसेट सुनी और बोला:

“व्वा, तू तो कश्-पी-र है! बल्कि उससे भी ज़्यादा स्मार्ट है! सुप्पर! पता है, जब मैं तेरे यहाँ आया, तब मेरे सिर में दर्द हो रहा था, मगर अब – जैसे हाथ फेर कर दर्द निकाल लिया हो!”

 

मैंने सोचा, चलो, सब ठीक है, मतलब, कल सब अच्छा हो जाएगा.

शुक्रवार को सभी क्लासेज़ के दौरान मैं बस एक्टिविटी-टाइम के बारे में ही सोचता रहा. मेरे क्लासमेट्स ने पहली ही क्लास के पहले पानी से भरे डिब्बे और क्रीम की ट्यूब्स दिखाईं, जिन्हें 'चार्ज' करना था, और हालाँकि कल की रिहर्सल बढ़िया ही हुई थी, मगर मैं बेहद परेशान था. जब एक्टिविटी-टाइम शुरू हुआ और ल्युदमिला मिखाइलोव्ना ने टीचर वाली मेज़ के पीछे की जगह मुझे दे दी, तो उन डिब्बों और ट्यूब्स के पीछे से मैं करीब-करीब दिखाई ही नहीं दे रहा था और मेरा दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि जैसे पागल हो गया हो.

 “आँखें बंद करो,'' मैंने कहना शुरू किया. “एक सफ़ेद बड़ा कमरा है, आप उसके भीतर हो. आप, जैसे काँच के बने हो. प्लीज़, गंभीरता बनाए रखें...”

सबसे पहले तो कोई आँख़ें बंद ही नहीं करना चाहता था, और दूसरे, चाहे मैं कितनी ही शिद्दत से समझा रहा था, कि उनकी हँसी से मेरी एनर्जी के प्रवाह में बाधा पड़ रही है, सब लगातार हँस ही रहे थे और चिढ़ा रहे थे. शुरू में तो ऐसे हालात में मैं 'शो' करता रहा. अगर सिर्योझा बोन्दारेव ने गड़बड़ न की होती, तो सब कुछ ठीक-ठाक हो गया होता, मगर जब मैंने कहा कि 'आपका शरीर शांत और स्वच्छ है, बीमारियाँ काले पदार्थ के रूप में उसे हमेशा के लिए छोड़कर जा रही हैं', तो सिर्योझा, जो आमतौर से एक शांत बच्चा है, इतनी ज़ोर से ठहाके लगाने लगा कि पूरा स्कूल बस गिरते-गिरते बचा. और सबने उसका साथ दिया. इतनी ज़ोर से ठहाके लगाने लगे कि खिड़कियों के शीशे झनझनाने लगे, जैसे वे पहले सोच ही नहीं सके कि दुनिया में मेरे 'शो' से बड़ी मज़ाकिया चीज़ कोई और हो सकती है. ल्युदमिला मिखाइलोव्ना क्लास के दरवाज़े में खड़ी होकर प्यार से मेरी तरफ़ देख रही थीं, आख़िर में तो मैं ख़ुद भी हँसने लगा, मगर फिर मैंने घोषणा की कि चाहे कुछ भी हुआ हो, क्रीम्स और पानी 'चार्ज' हो गए हैं.

 

मतलब, मुझे मालूम नहीं है कि मैं अति-संवेदी हूँ या नहीं. मेरा 'शो' चाहे फ्लॉप हो गया हो, मगर सोमवार को माशा मलोतिलोवा ने भी कहा, कि अब उसकी तबियत पहले से बेहतर है.

 

मैंने फ़ुटबॉल मैच देखा          

 

फ़ुटबॉल मैच चल रहा था. चैनल 1 पे, जैसा कि होता है, शाम को, प्राइम टाइम में. और क्या! स्पार्ताक और सेस्का ( सेस्का - सेंट्रल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ आर्मी – रूस का बेहद पुराना क्लब) के बीच मुकाबला होने वाला था! हमारी रशियन चैम्पियनशिप का सबसे इम्पॉर्टेन्ट मैच!

“लुझ्निकी” स्टेडियम खचाखच भरा था.

मैच से आधा घण्टा पहले हर तरह के इण्टरव्यू दिखाते रहे, जर्नलिस्ट लोग मैच के रिज़ल्ट का अनुमान लगा रहे थे और टीमों की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे – मतलब, मूड बिल्कुल फुटबॉल-फ़ेस्टिवल जैसा हो रहा था.

मैं बड़े गौर से टेलिकास्ट देख रहा था और मैच शुरू होने तक ये तय नहीं कर सका था, कि मैं किसका 'फ़ैन' होऊँगा. मगर फिर, मैंने 'स्पार्ताक' को चुना, क्योंकि बात ये थी, कि मैं 'स्पार्ताक' के एक पुराने, मशहूर खिलाडी – फ़्योदोर चेरेन्कोव को व्यक्तिगत रूप से जानता था. और जैसे ही मुझे याद आया कि फ़्योदोर कितना ग़ज़ब का इन्सान है, जैसा बिरला ही कोई होता है, तो मुझे लगा कि 'स्पार्ताक' का फ़ैन होना मेरा कर्तव्य है! और, ये इसके बावजूद कि वो पूरे देश में मशहूर है.

कमेन्टेटर ने टी.वी. के दर्शकों से 'हैलो' कहा, और खेल शुरू हुआ. ठीक तीसरे मिनट पे 'स्पार्ताक' के स्ट्राइकर ने 'सेस्का' के गोल-कीपर अकीन्फ़ेयेव को गहरी चोट  पहुँचाई. अकीन्फ़ेयेव घास पे पड़ा था और दर्द से तड़प रहा था. स्ट्रेचर लाया गया. 'सेस्का' के गोल-कीपर को होश में लाने की कोशिश करने लगे. मगर स्पार्ताक का स्ट्राइकर पास ही में खड़ा-खड़ा देख रहा था, उसे अकीन्फ़ेयेव पे इत्ती सी भी दया नहीं आ रही थी. वो बस हँसने ही वाला था!

मैं भी ये ही सोच रहा था. जब 'स्पार्ताक' के स्ट्राइकर्स इतने बेरहम हैं, तो मैं 'स्पार्ताक' का 'फ़ैन' नहीं बनूँगा. बेचारे गोल-कीपर को इत्ती चोट पहुँचाई और इसके दिल में कोई हमदर्दी भी नहीं है!

मैं 'सेस्का' का फ़ैन बनूँगा.

मगर तभी एक और नाटक हुआ. हाइलाईट्स के साथ दिखा रहे थे कि कैसे ज़ख्मी अकीन्फ़ेयेव को स्ट्रेचर पे बाहर ले जा रहे हैं, और उसे चिल्लाते हुए सुनना भी अच्छा लग रहा था. वो चीख़-चीख़कर 'स्पार्ताक' के स्ट्राइकर से इतने ख़तरनाक लब्ज़ कह रहा था, कि मैं उन्हें यहाँ लिख भी नहीं सकता. किताबों में ऐसे लब्ज़ छापे नहीं जाते. 'सेस्का' का ज़ख़्मी गोल-कीपर बड़ी देर तक, ऊँची आवाज़ में और खूब कोशिश करके बता रहा था, कि वो, स्ट्राइकर असल में कौन है, जिसने उसे चोट पहुँचाई थी, और उसके सारे रिश्तेदार, दोस्त और जान-पहचान वाले लोग कौन हैं और उसने धमकी दी, कि सबको ज़िंदा गाड़ देगा!

नहीं, मैंने सोचा, ऐसी टीम का 'फ़ैन' तो मैं नहीं बनूँगा, जिसका गोलकीपर इतना दुष्ट है. मैं 'स्पार्ताक' का ही 'फ़ैन' बना रहूँगा. और चेरेन्कोव बढ़िया आदमी है, और वैसे भी, क्या कोई इस तरह से गालियाँ दे सकता है!

तभी 'स्पार्ताक' ने गोल बना लिया. और वेल्लितन, और दूसरे स्पार्ताकियन्स ग्राऊण्ड के किनारे पे ख़ुशी का डान्स करने लगे. आह, कितनी बदहवासी से वे डान्स कर रहे थे! बस, भयानक शोर और हल्ला-गुल्ला! बेहद बनावटी जोश से.

ख़ुशी पागलपन की हद तक पहुँच गई थी. उन्होंने अपने टी-शर्ट्स उतार कर फेंक दिए, शॉर्ट्स नीचे खिसका लिए – मतलब, बड़ी डरावनी बात हो रही थी. 'स्पार्ताक' के फ़ैन्स की गैलरी भी पागल हो गई, और फिर उन्होंने मशालें जला दीं, जिनसे इतना धुँआ निकलने लगा, कि ग्राउण्ड भी नहीं दिखाई देता था. कमेन्टेटर ने यही कहा: “ मैदान ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है. कमेन्ट्री करना बेहद मुश्किल हो रहा है.”

फिर स्पार्ताकियन्स 'सेस्का' के फ़ैन्स की गैलरी के पास गए और नाक-मुँह चिढ़ाने लगे. ऐसा ऐसा होता रहा.

'नहीं', मैंने सोचा, बेहतर है कि मैं 'सेस्का' का ही फ़ैन बना रहूँगा. वैसे भी अकीन्फ़ेयेव को भी ज़ख़्मी किया गया था, और 'सेस्का' के खिलाड़ियों ने अपने शॉर्ट्स नीचे नहीं खिसकाए थे.

मगर बीस मिनट बाद ही कुछ और बात हुई. ख़ैर, सच्ची में कहूँ, तो कई सारे फुटबॉल-प्रेमियों की राय में, हो सकता है, कि कोई भी ख़ास बात नहीं हुई, मगर मुझ पर तो, जो मैंने देखा, उसका न जाने क्यों काफ़ी असर हुआ.

'सेस्का' के चीफ़-ट्रेनर को दिखा रहे थे. उसने बड़ी अच्छी तरह से देखा था, कि उसे टी.वी. पर दिखाया जा रहा है, मगर इससे कोई फ़रक नहीं पड़ा, और उसने कैमेरे के सामने पूरी ताकत से नाक छिनक दी, वो भी सीधे उस ख़ूबसूरत और ख़ास तरह से बनाई गई ट्रेडमिल पर, जिस पर वो खड़ा था. मैं ताव खा गया. क्या ऐसा करना चाहिए?! कम से कम रूमाल ही निकाल लेता! मगर, ये तो सीधे ट्रेडमिल पर! नहीं, मैंने सोचा. मैं 'सेस्का' का 'फ़ैन' नहीं बनूँगा. 'स्पार्ताक' का ही 'फ़ैन' बना रहूँगा. कम से कम उनका ट्रेनर तो साफ़-सुथरा है...

फिर 'सेस्का' ने भी एक गोल बनाया. और 'सेस्का' के खिलाडियों ने बेहद शराफ़त से अपनी जीत का जश्न मनाया. उन्होंने, मिसाल के तौर पर, अपनी जर्सियाँ नहीं उतार फेंकी. मगर 'स्पार्ताक' के 'फैन्स', ज़ाहिर है, 'सेस्का' के खिलाडियों से चिढ़कर, और ज़्यादा मशालें जलाने लगे और ऊपर से ग्राउण्ड पर टॉयलेट पेपर के रोल्स फेंकने लगे.

“आह, ये कितना भद्दा है,” कमेन्टेटर ने शिकायत के लहजे में कहा, “ ‘स्पार्ताकके 'फ़ैन्स' का ये काम! दोस्तों, ग्राउण्ड पर टॉयलेट पेपर के रोल्स फेंकना!”

बहस का सवाल ही नहीं, मैं कमेन्टेटर से पूरी तरह सहमत था! नहीं, मैं 'सेस्का' का ही “फ़ैन' बनूँगा. उनके फ़ैन्स कम से कम टॉयलेट पेपर तो ग्राउण्ड पर नहीं फेंकते!

मगर दूसरी तरफ़, फ़्योदोर चेरेन्कोव – कितना अच्छा इन्सान है...और हो सकता है, कि 'स्पार्ताक' का स्ट्राइकर, मैच के शुरू में, 'सेस्का' के गोल कीपर को चोट पहुँचाना नहीं चाहता हो...फिर भी 'स्पार्ताक' का ही 'फ़ैन' रहूँगा...

या 'सेस्का' का?

इसके बाद 'सेस्का' ने एक और गोल बनाया. 'स्पार्ताक' ने ये गोल फ़ौरन उतार दिया, और मैच 2:2 के स्कोर से ख़तम हुआ.

थैन्क्स गॉड! आख़िर ख़तम तो हुआ! थैन्क्स कि लाज रख ली. वर्ना तो मैं तय ही नहीं कर पाता, कि मुझे किसका 'फ़ैन' होना चाहिए, और आख़िर में ख़ुश होना चाहिए या अफ़सोस करना चाहिए!

जैसे ही मैच ख़तम हुआ, मुझे न्यू क्वार्टर्स वाले तोल्या लूकोव ने फ़ोन किया. न्यू क्वार्टर्स हाल ही में बनाए गए हैं, ट्राम वाले स्टॉप के पीछे.

 

“सेरी, तू किसका 'फ़ैन' था?” उसने पूछा.

और वो तो  फुटबॉल का इत्ता शौकीन है, कि उसके अलावा उसे कुछ और दिखाई ही नहीं देता. बड़ा होकर फुटबॉल प्लेयर बनना चाहता है और वो स्पोर्ट्स स्कूल 'स्मेना' में पढ़ता है.

“तोल्यान,” मैंने ईमानदारी से कहा, हालाँकि मैं ये भी समझ रहा था, कि इसका नतीजा कुछ भी हो सकता है, “प्लीज़, मुझे ये बताओ, कि वो सब वहाँ थूक क्यों रहे थे, टॉयलेट पेपर क्यों फ़ेंक रहे थे, पतलूनें क्यों उतार रहे थे? क्या फुटबॉल में ये सब होता है?”

तू क्या कह रहा है!!!” तोल्या गुस्से से चीख़ा. “क्या बढ़िया खेल था! ये थूकना कहाँ से हुआ? क्या तेरा दिमाग चल गया है? अब तो मैं तुझसे कभी बात भी नहीं करूँगा. तुझे तो सिर्फ बैले देखना चाहिए, फुटबॉल नहीं!” और उसने रिसीवर रख दिया.

और मैं सोच रहा हूँ, कि वाकई में बैले देखना ज़्यादा अच्छा रहेगा. वहाँ कोई धुँआ तो नहीं पैदा करेगा. बैले, शायद, अच्छी चीज़ है. बस एक ही बात, जो मुझे वहाँ अच्छी नहीं लगती, वो ये है, कि सारे लड़के कसी हुई पतलूनों में छलाँगें लगाते हैं. वो अच्छा नहीं लगता. और छैला बाबू भी! जैसे मामूली पतलूनें पहन ही नहीं सकते!

 

 

 

 

 

 

मेरा प्यार.....       

ये उन गर्मियों की बात है, जब मैं और तान्या पद्गरदेत्स्काया साथ-साथ कम्पाउण्ड में घूमा करते थे और तान्या मुझे सील फ़िश (अजीब, अनाडी लडके को सील फिश कहकर चिढ़ाते हैं – अनु.) कहती थी, और ये देखकर खूब हँसती थी, कि मुझे अपने सील फ़िश जैसा होने पर अचरज होता है.

एक बार शाम को हमने शादी करने का फ़ैसला किया. ये बात तो साफ़ ज़ाहिर थी, कि हम एक दूसरे से बेहद प्यार करते हैं, मगर हमें पक्का पता था, कि हमारे माँ-बाप कभी भी राज़ी नहीं होंगे. बात ये है, कि मेरी मम्मा शहर के एक इन्स्टीट्यूट में लिटरेचर की टीचर थी और इस वजह से तान्या के माँ-बाप उसे बुद्धिजीवीकह कर गाली देते थे. इस लब्ज़ का क्या मतलब होता है – ये तो मुझे समझ में नहीं आता था, मगर मुझे इतना पता था, कि तान्या के माँ-बाप मेरी मम्मा से दोस्ती करने के बजाय फाँसी ही लगा लेंगे. मेरे पापा भी तान्या के माँ-बाप के बारे में ऐसी ऐसी बातें कहते थे, जिन्हें आम किताबों में नहीं लिखा जाता, और समझ में नहीं आता था, कि क्या वह मम्मा को बचा रहे हैं, या उन्हें भी तान्या के माँ-बाप अच्छे नहीं लगते.

मतलब, हमारे सामने सिर्फ एक ही रास्ता था. भाग जाने का.

मुझे हमारी बिल्डिंग के पीछे वाली बगिया में एक ख़ुफ़िया जगह मालूम थी, जब तक सर्दियाँ शुरू नहीं हो जातीं, वहाँ पर रहा जा सकता था. आगे की देखी जाएगी.

“तो, तान्,” मैंने अपनी मंगेतर से पूछा, “क्या तुम हमेशा मेरे साथ रहने के लिए तैयार हो, दुख में भी और सुख में भी?”

“ठीक है, कोई प्रॉब्लेम नहीं,” तान्या पद्गरोदेत्स्काया ने संजीदगी से जवाब दिया.

और हम चल पड़े.

उस ख़ुफ़िया जगह पर पहुँचे, और तभी तूफ़ान शुरू हो गया. बिजली कड़कने लगी, धरती हिलने लगी, या तो डर के मारे या ख़ुशी के मारे. और हम एक दूसरे से चिपक कर एक बड़े ठूँठ पे बैठे हैं, जो एक बड़े पेड़ को छीलने के बाद बचा था या हो सकता है, उसे सही-सही काटा गया हो.

“तान्,” मैंने कहा, “तू जान ले कि तेरे लिए मैं अपनी ज़िंदगी कुर्बान करने के लिए तैयार हूँ!”

“ये ठीक है. मगर, अगर तुमने ज़िंदगी कुर्बान कर दी, तो फिर मेरा ख़याल कौन रखेगा? मेरा तो अब तुम्हारे सिवा कोई भी नहीं है!”

“अरे नहीं, मैं ख़याल भी रखूँगा, मगर सच में, अगर ज़रूरत पड़ी तो ज़िंदगी भी कुर्बान कर दूँगा!”

“सुन,” तान्या ने काफ़ी तीखे सुर में कहा, “तू एकदम बेवकूफ़ है! तुझे तो सिर्फ ज़िंदगी ही कुर्बान करने का शौक चढ़ा है, मगर किसलिए – ये महत्वपूर्ण नहीं है!”

“सही है,” न जाने क्यों मैं सहमत हो गया. “तब नहीं करूँगा कुर्बान. चौरानवें साल जिऊँगा, परदादी की तरह, और जब तक सबको दफ़ना न दूँगा नहीं मरूँगा.”

“ये हुई न बात,” तान्या मुस्कुराई.

 

कुछ समय तक हम, किसी बकवास फिल्म के नायक-नायिका की तरह, एक दूसरे की पीठ से पीठ सटाए, चुपचाप बैठे रहे और सिरफिरी बारिश में भीगते रहे. फिर तान्या ने कहा:

“सुन, मुझे थोड़ी ठण्ड लग रही है.”

“और मुझे भी,” मैंने कहा.

कुछ और देर ख़ामोशी छाई रही. फिर मैंने कहा:

“सुन तान्, चल वादा करते हैं, कि आज से ठीक तेरह साल बाद, जब हम अठारह साल के हो जाएँगे, तो हम ठीक इसी जगह पे मिलेंगे, रजिस्ट्रेशन ऑफ़िस जाएँगे और तब पक्का शादी कर लेंगे, मगर फ़िलहाल बिदा लेना होगा – अपने अपने घर जाएँगे.”

“बिल्कुल, ऐसे ही?” तान्या ने पूछा.

“ऐसे ही,” बेहद आत्मविश्वास से मैंने जवाब दिया, क्योंकि अब ठण्ड के साथ भूख भी लगने लगी थी.

“ख़ैर, ये कोई अच्छी बात नहीं हुई,” तान्या ने जवाब दिया. “एक घण्टा भी साथ नहीं रहे...” और जैसे वो पल भर के लिए गुस्सा हो गई, मगर फ़ौरन संभल गई: “वैसे, तू ठीक ही कह रहा है, बेशक. मगर तेरह साल बाद – एक्ज़ेक्ट्ली? ठीक इसी जगह?”

“ सूरमा का प्रॉमिस,” न जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया, हालाँकि मैं ये भी नहीं जानता था, कि सूरमा क्या होते हैं...

तूफ़ान पहले ही की तरह चिंघाड़ रहा था, और हम, पूरी तरह भीगे हुए और ख़ुश, अपने-अपने घरों की ओर चल पड़े. और जब मैंने अपने क्वार्टर की घंटी बजाई, मुझे न जाने क्यों पल भर के लिए डर लगा: मैं तो ठीक तेरह साल बाद उस जगह पहुँच जाऊँगा, जहाँ हम गए थे – मैंने प्रॉमिस भी किया है, मगर अगर तान्या इस दौरान ये सब भूल गई तो?...

मगर मैंने जल्दी से इस बारे में सोचना बंद कर दिया, क्योंकि मम्मा ने दरवाज़ा खोला और कहा कि उसके पास मेरे लिए एक सर्प्राइज़ है: उसने मेरे लिए ट्रेन ख़रीदी है, जिसका मैं कब से सपना देख रहा था. हाँ, और तान्या भी कुछ नहीं भूलेगी! क्या उसने एक भी बार मुझे धोखा दिया है? नहीं. मतलब, हमारी मुलाकात के बारे में परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है!

 

 

 

 

जल्दी ही अगस्त आने वाला है...

      

ये रहा रास्ता. दूर पर एक घर है, जहाँ पहले बूढ़ा गडरिया रहता था. हमेशा अपनी बकरियाँ लेकर पहाड़ी पर जाया करता था. उन्हें कहाँ रखता था (करीब पंद्रह बकरियाँ थीं उसके पास, इससे कम तो बिल्कुल नहीं) – ये बात मैं कभी भी नहीं समझ पाया. जब रास्ता खतम होगा, तो पेडों का झुरमुट आएगा. वहाँ पहाड़ी-बादामों के पेड हैं, मगर जैसे अभी हैं, वैसे ही पहले सिर्फ हरे, कड़े, खट्टे बादाम थे. हो सकता है, वो कोई जंगली बादाम हों और उन्हें बिल्कुल नहीं खाना चाहिए? पहले मैं समझता था, कि ये असली जंगली बादाम हैं क्योंकि झुरमुट तो जंगल ही होता है, चाहे छोटा ही क्यों न हो; मगर वो बादाम कभी पके ही नहीं, इसलिए मैंने उन्हें कभी खाया ही नहीं. एक बार बस चखा था, इसलिए मुझे पता है, कि – खट्टे हैं.

नानी को अच्छी तरह याद है, कि युद्ध के पहले क्या-क्या था, मगर मेरा बचपन, जिसके लिए मैं नानी को बेहद प्यार करता हूँ, उसकी उसे याद ही नहीं है और वह उसे मम्मा के, मौसी के, बहन के बचपन के साथ मिला देती है. उसके दिमाग़ में सब गड्डमड्ड हो गया है, उसे सिर्फ वो ही शाम याद है, जब उनके यहाँ डान्स में घुंघराले बालों वाला साँवला नौजवान आया था और उसने नानी को डान्स के लिए बुलाया. अट्ठाईस साल बाद वो मेरा नाना बनेगा, मगर फ़िलहाल तो मेरा उससे कोई वास्ता नहीं है. नानी को अपना शहर याद है, उसका शहर भी याद है, सहेलियाँ याद हैं, स्टेशन ग्लत्कोव्का याद है, जहाँ उन सबको, जो मोर्चे पर नहीं जा सके थे, कराचेवो से निकालकर बसाया गया था, और उसे ये भी पता नहीं है, कि अब – सोवियत संघ नाम का कोई देश ही नहीं है, उसे तो अभी इस घुंघराले बालों वाले के साथ डान्स करना है, मगर इस तरह करना है, कि पाव्लिक बुरा न मान जाए, जलने न लगे...

मौत से नानी को डर नहीं लगता. उसने, हो सकता है, कि उसके बारे मे कभी संजीदगी से सोचा ही नहीं था, मगर नाना के गुज़र जाने के बाद, जैसे वो थोड़ा-थोड़ा मौत का इंतज़ार कर रही है.      

सब कुछ जो यहाँ है, दिलचस्प है, - मगर उसके लिए अब ये बात ख़ास नहीं है. डान्सेस, गीत स्टालिन – हमारी सेना की शान, स्टालिन – हमारी जवानी की उड़ान’, जो उनके कोम्सोमोल-ग्रुप में गाया जाता था, पाव्लिक, तूला वाली जिंजरब्रेड के डिब्बे में रखे हुए ख़त – उसे इन्हीं के साथ जीना है. मैं ये समझता हूँ और नानी से और ज़्यादा प्यार करता हूँ. वो खेलने के लिए मुझे बाहर छोड़ने को तैयार है.

मुझे इससे कोई मतलब नहीं है, कि ग्यारहवें साल में दीम्का ने स्कूल छोड़ दिया, जिसके दरवाज़े के पास नीले रंग पे चाभी से सुपर क्लबखुरचा हुआ था. हो सकता है, किसी गंभीर कारण से वो घर बैठ गया हो, मगर इससे मुझे फ़रक नहीं पड़ता, मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ. दीम्का सही में सुपर था, साइकिल की स्पोक्स से गन्सबनाता और एक ही घूँसे से दो पसलियाँ बाहर निकाल देता. कोई बात नहीं अगर उसने स्कूल छोड़ दिया तो. उसने सनकी रूस्ल्या से मुझे बचाया था. रूस्ल्या चाहता था कि मैं नंगे पैर सिमेन्ट में स्टेच्यूहो जाऊँ, मैं भी स्टेच्यूहो जाता, मैं रूस्ल्या से डरता था. मगर दीम्का वहाँ से जा रहा था, तो दीम्का की झापड़ से रूस्ल्या ख़ुद ही इस गाढ़ी सिमेन्ट में जा गिरा, अपने घिनौने थोबड़े समेत गाढ़ी चीज़ में गिरा और अपमान के कारण अपने ही थूक से उसका दम घुटते-घुटते बचा. तब दीम्का ने मुझे चाय और केक खिलाई थी, टैक्सी में घुमाया और जैसे बातों-बातों में एकदम सही-सही कह दिया, कि बुश ही अमेरिका का प्रेसिडेण्ट बनेगा. उस समय रीगन था, इलेक्शन में अभी पूरे छह महीने थे, मगर दीम्का को पहले से सब पता था. मतलब, सब लोग जो कहते थे, कि उसे टेलिपैथी मालूम है, वो सही था. उसके घर में शकर भी भूरी-भूरी थी, इसलिए नहीं कि जल गई थी, बल्कि इसलिए कि वह अफ्रीका की थी; अब मुझे पक्का मालूम है, कि दीम्का पर यकीन करना चाहिए.

गर्मियाँ जल्दी ही ख़त्म हो जाएँगी. अभी जुलाई के आख़िरी दिन ही चल रहे हैं, मगर पैरों के नीचे धरती चरमराने लगी है, कोई लाल सी, सख़्त सी चीज़ ज़िंदगी में घुसना चाहती है. हर चीज़ पर नज़र रखी जाएगी, आसमान ज़्यादा घना हो जाएगा, जुलाई वाला वो एहसास भी नहीं रहेगा, कि हम सब किसी पारदर्शी प्लास्टिक के पैकेट में हैं. और अचानक पता चलेगा कि +18 डिग्री – काफ़ी गरम है और हम बेकार ही में गर्मियों की बारिश पे गुस्सा हो रहे थे.

दुकान में जाऊँगा. तरबूज़ ख़रीदूँगा, नानी के साथ रात को खाऊँगा. ये यहाँ, लकड़ी का छोटा सा शहर और तम्बू था, यहीं पर मुहन ने प्यारी-प्यारी लड़की को किसकिया था. मुहन तब कितने साल का रहा होगा? बेशक, अभी मैं जितने का हूँ, उससे कम ही था. मगर मैंने तो आज तक ऐसी सुंदर लड़कियों को किसनहीं किया है. मुहन उन्हें क्यों अच्छा लगता था? वो तो कुछ कहता ही नहीं था. गंभीरता से देखता रहता, वाइन के घूँट लेता, सही में, तंदुरुस्त था, बिना आस्तीनों वाली कमीज़ पहनता था, उसके मसल्स मुश्किल से आस्तीनों वाले कट्स में घुसते थे. दिन में मुहन को लकड़ी छीलने वाली मशीन पर काम करना पड़ता था, मगर वह काम छोड़कर भाग जाता और हमारे साथ फुटबॉल खेलता.

गालियाँ ऐसी देता, कि ज़मीन थरथरा जाती थी, मगर महसूस होता था, कि वो भला इन्सान है. शायद, ऐसे मसल्स वाले के लिए भला इन्सान होना मुश्किल नहीं है, क्योंकि सब कुछ तुम्हारे हाथ में है! और अगर ऐसा है, तो शेखी क्यों बघारी जाए?

मिलिट्री-स्टोर तक आ गया. यहाँ मोटा अंद्रेइ रहता था. सारी बसों के ड्राइवर्स उसे अपनी कैबिन में बिठाते और ज़ोर-ज़ोर से, और अकड़ से बातें करते, और बाद में मोटा अंद्रेइ ख़ुद भी बस में काम करने लगा. सब उसे डोनटकह कर बुलाते थे. एक बार ल्योशा ख़ाएत्स्की गिटार लाया, और मैंने विक्टर ज़ोय का व्हाइट स्नोबजाया. डोनटफ़ौरन घर भागा और रॉक ग्रुप किनोके बारे में एक काली, फ़टी हुई किताब लाकर मुझे दे दी. और, जब दो महीने बाद मेरे लिए सुहानी सर्दियों वाली नीली जैकेट ख़रीदी गई, तो अपनी पुरानी, चमड़े की जैकेट, जो ईमानदारी से, मुझे कभी भी अच्छी नहीं लगी, मैं डोनट को देने लगा. मगर उसने नहीं ली. बोला, कि उसे बहुत चुभती है. अजीब बात है, वो सिर्फ चमडे की है, मगर आम जैकेट्स की ही तरह तो है. मगर अंद्रेइ ने नहीं ली. मैंने उसे किसी और को दे दिया, याद नहीं है, कि किसे.

तरबूज़ ख़रीदा. चाँद की रोशनी में पहाड़ियाँ दिखाई दे रही हैं. और गड्ढे भी. अपने प्रवेश द्वार का कोड फिर से भूल गया (वो हाल ही में बदला है), चाभियाँ हैं नहीं, नानी को फ़ोन करके जगाऊँगा.

और टाइम, बाप रे! बारह बज चुके हैं!

कहीं अचानक चरवाहा न निकल पड़े? कल्पना करता हूँ : वो जा रहा है, बेलोमोरिना (सिगरेट का एक लोकप्रिय ब्राण्ड) के कश लगा रहा है, धरती चरमरा रही है, गुज़रे ज़माने को याद कर रहा है, मगर उससे कोई भी उस बारे में नहीं पूछता, बूढ़ा भी ख़ामोश रहता है. मगर नहीं, नहीं. मगर रास्ते पर कोई भी नहीं है. सिर्फ समय का ध्यान न रखने वाले फ़ार्म से लौटने वाले ने कार की दूर वाली लाइट जला दी है और ख़ुश है, कि शहर में बस पहुँचने ही वाला है. संयोग से खट्टे बादामों वाले झुरमुट पर रोशनी डाल कर वह हाइवे पर निकल जाता है. वहाँ कच्ची सड़क नहीं है, बल्कि हाल ही में बनाया गया समतल, बिना गड्ढों वाला रास्ता है. ख़ूबसूरत...

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मेरी नानी – तोन्या के नाम

 

 

इण्डियन फ़िल्म्स                

(मेरे और व्लादिक के बारे में, रिश्तेदारों और दोस्तों के बारे में,

गुज़रे हुए, अच्छे वक्त के बारे में)

 

 

 

 

बिल्कुल-बिल्कुल शुरूवात से...    

 

वो फ़ोटो, जिसमें सात महीने के मुझको तोन्या नानी ऊपर छत की तरफ़ उठा रही है, और मैंने सीने पर तीन चमकदार सितारों वाली सफ़ेद 'ओवरआल' पहनी है, मामा के दोस्त हैनरी आरोनोविच ने खींची थी. नानी ने बताया था, कि उसने ख़ुद ही उस दिन आकर मुझ नन्हे की तस्वीर खींचने का प्रस्ताव रखा था. और कई सालों के बाद हैनरी आरोनोविच ने मुझे तीन टैन्कर्स के बारे में गाना सुनाया था. मुझे इतना अच्छा लगा, कि बाद में मैंने इस गाने को याद कर लिया और उसे गाया भी था. मैं “तीन टैन्कर्स” के बारे में गाता था, एरोड्रोम के बारे में गाता था, जहाँ “किसी के लिए तो ये सिर्फ उड़ान का मौसम है, मगर असल में है प्यार को बिदाई”, मगर ख़ास तौर से – “अगर दोस्त निकले अचानक...” गाता था.

नानी मज़े से बताती है कि कैसे उसके मिलिट्री यूनिट वाले ऑफ़िस में आया, उस कमरे में गया जहाँ टाइपिस्ट-लड़कियाँ बैठी थीं, और ज़ोर से गाने लगा : “अगर दोस्-स्त निकले अच्-चानक...” नानी को मेरी वजह से बहुत अटपटा लग रहा था – मैं इतनी ज़ोर से और सही-सही गा रहा था. इसलिए दूसरा स्टैंज़ा शुरू करते ही उसने अपनी साथी टाइपिस्ट स्पिरीना की ओर देखते हुए, जो बनावटी ढंग से मुस्कुरा रही थी, कहा: “सिर्योझेन्का, तूने पूरा तो गा लिया!” मैंने जवाब दिया: “पूरा कैसे गा लिया, जबकि अभी दो और स्टैंज़ा बाकी हैं?! और मैं गाता रहा: “अगर नौज्-जवान पहा-आड़ पे – करे ना – आह, घबराए अचानक और नीचे...” और इस तरह आख़िर तक गाता रहा. कोई बात नहीं, स्पिरीना बर्दाश्त करती रही और मुस्कुराती रही. वो अब कहाँ होगी?

नानी के ऑफ़िस के बाद हम अक्सर बेकरी चले जाते थे, जो हमारी ही बिल्डिंग में थी. बेकरी में सब हमें जानते थे – वहाँ भी मैं, ज़ाहिर था, ऊधम मचा रहा था, मगर सेल्सगर्ल्स मुझसे बहुत प्यार करती थीं. जैसे ही हम अंदर घुसे, मैं ये कहते हुए कि “जाऊँ, दे-ए-खूँ, सब कुछ ठी-ईक तो है!” सीधे उस जगह गया, जहाँ ब्रेड रखी जाती है, मतलब जहाँ खरीदने वालों को जाना मना है. वहाँ से जब मैं बाहर निकला तो बदन पर सिर से पाँव तक सूखे टोस्ट और रिंग वाली ब्रेड लटक रही थी, मैंने रिपोर्ट दी: “सब ठी-ईक है!” सिर्फ मेरी नानी तोन्या को ठीक नहीं लग रहा था, क्योंकि उसे इतने सारे सूखे टोस्ट खरीदने ही नहीं थे. सेल्सगर्ल्स हँस रही थीं  और कह रही थीं, कि वो मुझे ये सारे टोस्ट्स और रिंग वाली ब्रेड्स बेचने को तैयार हैं. मगर मुझे रिंग वाली ब्रेड्स थोड़े ही न खरीदनी थी, मैं तो सिर्फ “दे-एखना चाहता था, सब ठी-ईक तो है”, और मैंने अपने बदन से सारी रिंग ब्रेड्स निकाल दीं, तोन्या नानी को उनके पैसे देने से बचा लिया.

      

                    

औषधीय जड़ी-बूटियों का संग्रह...

 

मैं भाई के साथ तुखाचेव्स्की भाग की पाँचवी फार्मेसी के पास बेंच पर बैठा हूँ. बगल में दो बैग्स पड़ी हैं. उनमें फ़ोल्ड की हुई बड़ी-बड़ी थैलियाँ, बड़ा किचन वाला छुरा (ये व्लादिक के बैग में, और मेरी बैग में – हँसिया), थर्मस और सैण्डविचेस हैं. हम बस का इंतज़ार कर रहे हैं, जिससे कि शहर से बाहर जाकर बिच्छू-बूटी इकट्ठा कर सकें.

कुछ दूरी पर पुराने जैकेट्स पहने और सिर पर रूमाल बांधे फार्मासिस्ट(दवासाज़) लड़कियाँ खड़ी थीं और हँस रही थीं (औषधीय जड़ी-बूटियों को तैयार करना उनका काम होता है). जल्दी ही बस आती है और ड्राइवर वीत्या इंजिन शुरू करते हुए कहता है : “राचेव्का जा रहे हैं”. और जब हम जा रहे होते हैं, तो दवासाज़ लड़कियाँ और एक हाथ वाला नानू (हालाँकि उसका एक ही हाथ है, मगर वो मुझसे दुगनी बिच्छू-बूटी इकट्ठा करता है) कहेंगे, कि हम कितने अच्छे हैं, जो अपनी फिल्म और आइस्क्रीम का पैसा ख़ुद ही कमा लेते हैं. न जाने क्यों उन्हें ऐसा लगता है, कि फिल्म और आइस्क्रीम के अलावा हमें ज़िंदगी में किसी और चीज़ की ज़रूरत ही नहीं है. उन्हें बताना ही चाहिए, कि कैसे मैं अच्छी ग्रेड से पास हुआ हूँ, कैसे मुझे इसके लिए पच्चीस रूबल्स इनाम में दिए गए, जिन्हें मैं उसी दिन ऑनलाइन ताश के खेल - शीपा में हार गया. अगर किसी को मालूम नहीं है, तो बताता हूँ, कि ये एक ताश का खेल होता है. मगर मैं कुछ भी नहीं कहता, क्योंकि अगर किसी को पता चल गया कि मैं पैसे लगाके ताश खेलता हूँ , तो... मतलब, कुछ भी अच्छा नहीं होता.

अगले दिन, जब हम फिर से पाँचवीं फार्मेसी के पास बस का इंतज़ार करेंगे (और तब मेरी बैग में हँसिए के बदले बड़ा चाकू पड़ा होगा, क्योंकि हँसिए से बिच्छू-बूटी काटने में तकलीफ़ होती है, हालाँकि बढ़िया कटती है), तो अचानक बारिश होने लगेगी. बारिश में तो कोई भी जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करने नहीं जाता, और हम ख़ुश हो जाएँगे, कि घर वापस जा सकेंगे और तोन्या नानी के पास बैठकर सैण्डविच के साथ चाय पियेंगे. व्लादिक हाल ही में पढ़ी हुई कोई फ़ैन्टेसी वाली किताब के बारे में बताएगा और मैं और तोन्या कुछ भी न समझ पाएँगे और सिर्फ हँसते रहेंगे, जिससे व्लादिक को खूब गुस्सा आयेगा. आख़िर में हमारे बीच समझौता करवाती है फ़िल्म मुँहतोड़ शिकारी टिड्डे”, जो, पता चलेगा, कि आज स्मेनाथियेटर में दिखाई जा रही है. उसमें ये ग़ज़ब का कुंग-फू है! और हीरो का नाम भी है चाय’. व्लादिक मुझे ये फ़िल्म दिखाने ले गया था, और वो ऐसी फ़िल्म थी, जिसे हम कम से कम तीन-चार बार ज़रूर देखते थे. तो हम स्मेनाजाते हैं, फिर, जब  मुँहतोड़ शिकारी टिड्डे” जुबिलीथियेटर में लगेगी, - तो जुबिलीभी जाएँगे, और फिर मेरे दिल में एक नया आइडिया आएगा, कि क्या करना चाहिए: ख़ुद ही एक्वेरियम्स बनाएँ और उन्हें दर्जनों में बेचेंगे. स्कूल के ग्रीन हाउस से हम कुछ काँच चुरा लेंगे, एपोक्साइड- ग्लू खरीदेंगे, जिससे काँच चिपकाए जा सकते हैं, और ऐसी साधारण सी चीज़ बनाएँगे, जैसी बाज़ार में अब तक कभी आई ही नहीं होगी. मगर हम अपनी चीज़ बेचने के लिए नहीं ले जाएँगे.

 

 

 

 

 

 

 

इण्डिया, दो सिरीज़.....

 

पहली इण्डियन फ़िल्म, जो मैंने देखी, वो थी फ़िल्म सम्राट’. फिल्म देखने के बाद मैं लड़खड़ाते हुए, खुले हुए मुँह से, अपने चारों ओर की कोई भी चीज़ न देखते हुए और लगातार गलत जगह पर मुड़ते हुए घर जा रहा था और क्वार्टर के अंदर जाते ही मैंने कहा:

“तोन्, क्या तुझे पता है, कि हिटलर से भी ज़्यादा बुरा कौन है?”

“अरे,” तोन्या नानी ने अचरज से पूछा, “ये हिटलर से भी ज़्यादा बुरा आख़िर कौन है?”

कुछ देर चुप रहने के बाद और हौले-हौले दूर के मुम्बई से घर आते हुए, मैंने कहा:

“बॉस.”

बेशक! वो हिटलर से कई गुना बुरा है, क्योंकि उसने कैप्टेन चावला को कई सालों तक तहख़ाने में कैद करके रखा था. कैप्टेन चावला अकेला ही ऐसा आदमी था, जो उस जगह को जानता था, जहाँ उसने सोने से लदे हुए जहाज़ सम्राटको समंदर में डुबाया था! और डुबाया भी उसी बॉस की आज्ञा से था! और अगर फिल्म के ख़ास हीरो राम और राज न होते, तो न जाने और कितने साल वो बुरे काम करता रहता!

मैं व्लादिक को विस्तार से सम्राटकी कहानी सुनाता हूँ, और हमने फ़ौरन उसे देखने का फ़ैसला कर लिया. व्लादिक को भी फ़िल्म बहुत अच्छी लगती है, मगर सिर्फ जब हम थियेटर से बाहर निकल रहे थे, तो उसने कहा, कि आख़िर में बॉस पे सिर्फ तीन गोलियाँ चलाई गई थीं, न कि बीस, जैसा मैंने उसे बताया था. मगर मुझे लगा था, कि बीस थीं!

और उसके बाद मैंने लगातार एक के बाद एक “तकदीर”, “जागीर”, हुकूमत”, “शोले”, “मुझे इन्साफ़ चाहिए!” - ये फ़िल्में देखीं और अब मुझे मालूम है, कि वो, जो “सम्राट” में राम का रोल कर रहा था, - वो एक्टर धर्मेंद्र है, “शोले” में वो वीरू का रोल कर रहा था, और वो जो बॉस बना था, - वो अमजद ख़ान है, वो “शोले” में वैसे ही घिनौने आदमी का रोल कर रहा था, सिर्फ इस बार उसका नाम है गब्बर सिंग. फिर मैंने “शक्ति”, “ख़ुद्दार ”, “मुकद्दर का सिकंदर”, “त्रिशूल”, “जंज़ीर” देखी और मैं अमिताभ बच्चन से प्यार करने लगा, जो इन सभी फ़िल्मों में और, “शोले” में भी प्रमुख रोल करता है, और सभी में उसका नाम विजय ही है. अगर मुझे कभी लड़का हुआ, तो मैं उसका नाम भी विजय ही रखूँगा, अमिताभ के सम्मान में.

फिर थियेटर्स में राज कपूर की “आवारा” और “डिस्को डान्सर” दिखाई जाती हैं. मेरे लिए इण्डिया, दो सिरीज़का मतलब है, कि मुझे जाना ही पड़ेगा, क्योंकि फ़िल्म अच्छी ही होगी, और मैं फ़ौरन ये दोनों फ़िल्में देखने के लिए लपकता हूँ. “आवारा” तो मुझे बेहद पसंद है. मगर चार बार “डिस्को डान्सर” देखने के बाद (उसमें हीरो है मिथुन चक्रवर्ती – ये वो ही है, जिसने “जागीर” में फ़ैक्ट्री मालिक रणधीर के छोटे भाई का रोल किया था) मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ, कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तो एक्टर ही बनूँगा, और “डिस्को डान्सर-2” में काम करूँगा, मिथुन चक्रवर्ती के साथ. और, अचानक “डिस्को डान्सर – 2” आ जाती है! मगर इस फ़िल्म का नाम है “डान्स डान्स!” मुख्य रोल भी मिथुन चक्रवर्ती ने ही किया है, डाइरेक्टर भी वो ही बब्बर सुभाष है, वो ही ऑपरेटर राधू करमाकर है, वो ही म्यूज़िक डाइरेक्टर बप्पी लहरी है! जब मैंने वर्कर्स वेमें सव्रेमेन्निकथियेटर की अनाउन्समेन्ट और ये वाक्य देखा: “...फिल्म “डिस्को डान्सर” के चाहने वाले सोवियत फ़ैन्स के लिए”, तो पाँच मिनट के लिए मैं जैसे ख़ुशी से मर ही गया. और न जाने क्यों ये भी ख़ास तौर से अच्छा लगा कि “डिस्को डान्सर” को सिर्फ मैं ही नहीं, बल्कि सभी सोवियत दर्शक पसंद करते हैं!

फिर एक समय ऐसा भी आता है, जब हमारे शहर के थियेटर्स में इण्डियन फिल्म्स आती ही नहीं हैं. तब मैं ‘09’ इस नंबर पे शहर के सिनेमा-डिस्ट्रीब्यूटर ऑफ़िस में फ़ोन करता हूँ, और पूछता हूँ, कि क्या कोई नई इण्डियन फ़िल्म दिखाई जाने वाली है. मुझे जवाब मिलता है कि जल्दी ही फ़िल्म “प्यार करके देखो” आने वाली है और रिसीवर रख देते हैं. मैं पूछ भी नहीं पाता कि फ़िल्म में कौन-कौनसे एक्टर्स हैं.  फिर से फ़ोन करता हूँ, पूछता हूँ, कि फ़िल्म “प्यार करके देखो” का हीरो कौन है. मुझे मालूम तो होना चाहिए ना कि किसे पसंद करूँ और किस पर यकीन करूँ! उन्हें बहुत अचरज होता है, कि मुझे इस बात में दिलचस्पी है, मगर फिर भी टेलिफ़ोन वाली औरत ने हँसकर कहा, कि जब फिल्म दिखाई जाएगी, तो मुझे पता चल जाएगा, कि उसमें कौन-कौन काम कर रहा है. मगर मुझे उसका लहजा अच्छा नहीं लगा. मैं फिर से फोन करता हूँ, और आवाज़ बदलकर पूछता हूँ, कि कहीं किसी थियेटर में “डिस्को डान्सर” तो नहीं दिखाने वाले हैं. मुझे मरियलपन से जवाब मिलता है, कि नहीं दिखाएँगे.

जब अगली सुबह मैं फिर से हमारे शहर के थियेटरों में इण्डियन फ़िल्म्स दिखाने के बारे में फ़ोन करता हूँ, तो वो लोग मुझे पहचान लेते हैं:

“दोस्त, तू क्या नींद में भी सोच रहा था, कि कहाँ फ़ोन करना है?”

अब मैं उन्हें फोन नहीं करता. अच्छा नहीं लगता. मगर, ये मैं उनका दोस्त कैसे हो गया?!

 

 

 

 

मैं और व्लादिक....

फ़िल्में बनाते हैं.....

 

जल्दी ही मुझे ऐसा लगने लगा, कि सिर्फ इण्डियन फ़िल्म्स देखना ही काफ़ी नहीं है. मैं ख़ुद उन्हें बनाना चाहता था, इस तरह, कि मैं उनमें मुख्य भूमिकाएँ करूँ, ख़ुद ही डाइरेक्टर, स्क्रिप्ट राइटर, और गायक बनूँ. मैं शौकिया मूवी-कैमेरा के लिए पैसे इकट्ठा करने लगता हूँ, हालाँकि ये बात मैं सोच नहीं पा रहा हूँ, कि शूटिंग कैसे होगी और, ख़ास बात, हमारी फ़िल्में देखेगा कौन. जैसे जैसे मैं सोचता जाता, मेरी घबराहट बढ़ती जाती और मैं निराश होने लगा. मगर अचानक व्लादिक मुझे फ़िल्में बनाने का एक बढ़ि‌या तरीका समझाता है, जिसमें किसी कैमेरे-वैमेरे की ज़रूरत नहीं पड़ती, सिर्फ आपको ड्राइंग आनी चाहिए.

वो कागज़ के एक टुकड़े पर एक आदमी बनाता है, दूसरे पर – वैसा ही आदमी जिसके हाथ ऊपर उठे हैं, पहले कागज़ को दूसरे के ऊपर रखता है और तेज़ी से उसे हटा लेता है. आदमी हाथ उठा रहा है! क्या बात है! मैं भाग कर डिपार्टमेन्टल स्टोअर में जाता हूँ और सर्दियों में खिड़कियों पर चिपकाने वाले कागज़ के बहुत सारे रोल्स लेकर आता हूँ. ये हमारी रील है. खडे डैशेस से मैं फ़्रेम्स के निशान बनाता हूँ, और ड्राइंग करने लगता हूँ.

लगन से लोगों के चित्र बनाना मेरे बस की बात नहीं है, इसलिए “बदला” नाम की फ़िल्म की दूसरी सिरीज़ आते आते मेरे सारे हीरोज़ एक जैसे लगने लगते हैं, सिर्फ कपडों के रंग से ही उन्हें पहचाना जा सकता है. खलनायकों को मैंने बड़ा बनाकर दिखाया है, और उनके चेहरे पर दो मोटी-मोटी लकीरों से झुर्रियाँ ज़रूर बनाई हैं, जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल न हो.

शाम तक फ़िल्म बन गई. मैं एक डिब्बे में दो खड़े छेद बनाता हूँ, उनमें अपनी फ़िल्म “बदला” की पहली और इकलौती कॉपी फ़िट करता हूँ, और व्लादिक पहला और इकलौता दर्शक बनता है. अगर कागज़ की इस रील को ठीक से खींचा जाए, तो डिब्बे के स्क्रीन के सामने वाले हिस्से में तस्वीरों वाले लोग घूमने लगते हैं, लड़ने लगते हैं, और डान्स करने लगते हैं. ख़ैर, फ़िल्म में आवाज़ मुझे ख़ुद को देनी पड़ती है.

फ़िल्म शो के बाद व्लादिक भी सर्दियों में खिड़कियों पर चिपकाने वाला कागज़ ख़रीदता है और कुछ दिनों के बाद उसकी पहली फ़िल्म “बवण्डर” का प्रीमियर होता है.

धीरे धीरे हम फ़िल्म निर्माण के काम में डूब जाते हैं. व्लादिक धारावाहिक फ़िल्म “12-निन्ज़ास” बनाता है, जो “बवण्डर” ही के समान कुँग फू के दो प्राचीन स्कूलों के बीच की दुश्मनी के बारे में बताती है. वो एक नई चीज़ शामिल करता है: हीरोज़ के डायलॉग रील पर लिखता है, जिससे कि हर फ़्रेम के उनके डायलॉग को याद रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती.

जब तक व्लादिक “12–निन्ज़ास” बना रहा था (अपनी फ़िल्म बनाने में उसे करीब एक महीना लग गया), मैंने एकदम अपनी कई सारी फ़िल्में रिलीज़ कर दीं : “पराए नाम से”, “डान्सिंग रेनबो”, “जनता की भलाई के लिए”, “ख़तरनाक बीमारी”, “अपूरणीय क्षति”, “गाँव का रक्षक”, “वापसी”, और “मास्टर दीनानाथ का संगीत”. दर्शकों की अनुपस्थिति की समस्या भी धीरे धीरे हल हो रही थी. व्लादिक के मम्मी-पापा और हमारे सारे दादाओं और दादियों ने बिना विरोध किए हमारी फ़िल्में देखीं.

मगर फ़िल्में दिखाते-दिखाते समझ में आया, कि मुझे ख़ास ख़ुशी तब होती है, जब रील फट जाती है, क्योंकि तब ठीक वैसा ही होता है, जैसा असली थियेटर में होता है. रील अपने आप तो नहीं फ़टती है, और मैं हर एक मिनट बाद, दुर्घटनाओं के चित्र दिखाते हुए, उसे फाड़ देता हूँ और ऊपर से बड़बड़ाता हूँ, कि बुरी कॉपी लाए हैं.

नतीजा ये हुआ कि लोगों ने हमारी फ़िल्में देखना बंद कर दिया, और फिर मैं भी तो फ़िल्मों के लिए ड्राइंग्स बनाते बनाते बोर हो गया हूँ.

कुछ भी कहो, सचमुच की इण्डियन फ़िल्म्स बेहतर होती हैं!

कोई बात नहीं. समय के साथ साथ मैं कुछ और सोच लूँगा!

 

 

 

मेरी परदादी - नताशा         

शाम को मुझे बाहर से घर लाना बेहद मुश्किल है, ख़ासकर जब सर्दियाँ हों और हॉकी का खेल चल रहा हो. टेप लिपटी अपनी स्टिक “रूस” लिए मैं एक गोल से दूसरे की तरफ़ जाता हूँ ( हमारे गोल – लकड़ी के डिब्बे हैं, जो सब्ज़ी की दुकान के पास पड़े रहते हैं), कानों को ढाँकने के लिए फ्लैप्स वाली टोपी, टीले पर फ़िंकी है, जिससे वह आँखों पे न सरक आए, और खिड़की से आती हुई चीख, कि घर लौटने का वकत हो गया है, क्योंकि अँधेरा हो गया है, सुनाई ही नहीं देती.

मगर रात के दस बज चुकेहैं, और मेरी परनानी नताशा बाहर पोर्च में आती है और मुझे मनाती-पुचकारती आवाज़ में बुलाती है:

सिर्योझेन्का-आ! चल घर जाएँगे, नानू आए हैं. और वो क्या लाये हैं! आय-आय-आय-आय!...”                

मुझे दोस्तों के सामने शरम आती है, कि नानू की गिफ्ट हॉकी से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है, मगर फिर भी रुक जाता हूँ और नताशा की तरफ़ देखता हूँ.

“क्या लाए हैं?”

“ओय, वो ख़ुद ही तुझे दिखाएँगे, चल, जाएँगे.”

वाकई में, दिलचस्प बात है, कि नानू क्या लाए हैं, - हो सकता है, दलदल से बेंत लाए हों, मैं जो कब से माँग रहा हूँ. मगर, वैसे मौसम तो सर्दियों का है, अब कहाँ से होने लगी दलदल?

अपने प्रवेशद्वार में घुसते हैं. मैं आगे आगे, नताशा मेरे पीछे. हम दूसरी मंज़िल पे रहते हैं, ज़्यादा नहीं चलना पड़ता, मगर मैं फिर पूछ ही लेता हूँ कि नानू क्या लाए हैं. और तब, इस बात को समझते हुए कि अब मैं उछलकर बाहर सड़क पर नहीं जा सकता, क्योंकि वह मेरा रास्ता रोके हुए है, नताशा का चेहरा फ़ौरन बदल जाता है, और किसी युद्धबन्दी की तरह मुझे पीठ से धकेलते हुए, वो धमकाती है:

“चल! शैतान गुड़िया! क्या लाए हैं! इसे घर लाना मुसीबत है! देख, तेरी स्टिक तो मोड़ पे चटक गई है – नई नहीं खरीदूँगी!!!”

मगर फिर भी मैं अपनी परनानी से बेहद प्यार करता हूँ. जब फराफोनवा (मेरी लोकल डॉक्टर) पहली बार हमारे घर आई, तो उसने मुझे देखा और बोली:

“ओय, कितनी प्यारी बच्ची है!”

और मैं स्कर्ट-ब्लाऊज़ में था, सिर पर रूमाल बंधा था – मतलब, नताशा की हर चीज़ पहनी थी.

“मैं लड़की नहीं हूँ!मैं शरमा गया.

“तो फिर तू कौन है, लड़का?”

“न तो लड़की और ना ही लड़का! मैं परनानी नताशा हूँ, और मेरी उम्र पचहत्तर साल है!”

अब फ़राफ़ोनवा ने, संजीदगी से तोन्या नानी को समझाया, कि मुझे स्कर्ट पहनने न दिया जाए, क्योंकि मुझे इसकी आदत हो जाएगी, और मेरी मानसिकता पर असर पड़ सकता है, मगर तोन्या नानी ने अफ़सोस के साथ जवाब दिया, कि मुझे ऐसा करने से रोकना संभव नहीं है और अगर बात सिर्फ स्कर्ट तक ही रहती तो कोई बात नहीं थी, मगर मैंने तो नताशा के सारे बर्तन ले लिए हैं, और उसीकी दवाएँ खाता हूँ, ब्लड प्रेशर की, चक्कर आने की, और दिल की...(मगर मैं कोई सचमुच की दवाइयाँ नहीं खाता, बल्कि मटर के दाने, चॉकलेट्स खाता हूँ और आँखों में भी दवा के नहीं, बल्कि सिर्फ पानी के ड्रॉप्स डालता हूँ).

और नताशा तो मुझसे बेहद प्यार करती है. एक बार शाम को वह “नन्हा उकाब” बाइसिकल ले आई.

मेरे पास “स्कूल बॉय” थी, और उसे मालूम था, कि मुझे एक बड़ी साइकिल चाहिए. बस, ले के आ गई. “ओह, सीढ़ियों से मुश्किल से खींच के लाई!”

शोर सुनकर तोन्या नानी किचन से बाहर आई.

“ये क्या है?”

“अरे, मैं मिलिट्री स्टोर के पास से जा रही थी – ये वहाँ खड़ी थी. आधा घण्टा खड़ी रही, घण्टा भी हो गया, कोई लेने नहीं आया. चलो, सिर्योझा की हो जाएगी.”

“मम्मा,” तोन्या नानी ने कहा, “तुम बिल्कुल पगला गई हो. किसी ने इसे वहाँ रखा था! तुम ख़ुद भी नहीं जानतीं, कि क्या करना चाहिए. वापस ले जाओ.”

और नताशा साइकिल को वापस रखने चली गई. अफ़सोस, कि तोन्या नानी घर में थी, वर्ना तो “नन्हा उकाब” मेरे ही पास रहती!

 

 

 

 

 

समर कॉटेज.

त्यौहार के दिन और रोज़मर्रा के दिन...

 

नानू शेड के पास बेंच पे बैठे हैं. उनके सामने तामचीनी की बाल्टी थी, जिसमें प्याज़ और माँस था. वो कबाब बना रहे हैं, और मैं और व्लादिक अलाव में टहनियाँ जलाकर आंगन में घूम रहे हैं. ये हमारी मशालें हैं. वो जल्दी से बुझ जाती हैं, और हम उन्हें फिर से जलाने के लिए अलाव के पास जाते हैं. वो फिर से बुझ जाती हैं, और हम तय करते हैं, कि चलो, इन्हें तलवारें बना लेते हैं. हम लड़ना शुरू करते हैं. व्लादिक जीत जाता है, क्योंकि वह जीतना चाहता है, और मैं ये चाहता हूँ, कि युद्ध ख़ूबसूरत हो.    

ये विजय-दिवस (9 मई – अनु.) है, जो हम अपनी समर कॉटेज में मना रहे हैं. तोन्या नानी घर के अंदर तरह तरह के सलाद बना रही है. जल्दी ही व्लादिक के मम्मी-पापा आ जाएँगे, नानू के दोस्त इलीच और वीत्या भी आएँगे, जो नानू को मेरे बापकहता है. और, नीली “ज़ापरोझेत्स” कार में दादा वास्या और दादी नीना भी आएँगे, जो व्लादिक के दादा-दादी हैं.

दादा वास्या के साथ फुटबॉल पर बहस करना अच्छा लगता है, क्योंकि वो भी सारे मैचेस देखते हैं; और वो मुझे इसलिए भी अच्छे लगते हैं, कि हालाँकि वो सत्तर साल के हैं, मगर हमेशा इस्त्री किया हुआ सूट पहनते हैं, बढ़िया टाई लगाते हैं, उनके बाल हमेशा पीछे की ओर करीने से कढ़े रहते हैं, और एक भी बाल बिखरता नहीं है, चाहे दादा वास्या कुलाँटे ही क्यों न मारें.

मगर मेरे नानू, जिन्हें भी मैं बहुत प्यार करता हूँ, हमेशा कोई सलवार पहने रहते हैं, एक ही, पुराने ज़माने की खाकी रंग की कमीज़ और हल्की पीली चीकट कैप लगाए फिरते हैं, जिसे मेरे पैदा होने से बहुत पहले उन्होंने किसी रिसॉर्ट पे ख़रीदा था.

लोगों ने मेरे नानू को लेदर की, कॉड्रोय की, ऊनी कैप्स दी थीं, और इलीच तो हमेशा पूछता है कि आख़िर वो “अपनी इमेज कब बदल रहे हैं”, सब बेकार. नई कैप्स का ढेर अलमारी में पड़ा है, मगर नानू अपनी उसी हल्की-पीली, फ़ेवरिट कैप में घूमते हैं. और न सिर्फ समर कॉटेज में, बल्कि फ़ार्मेसी के गोदाम में भी, जहाँ वो डाइरेक्टर हैं.

त्यौहार पूरे जोश पे है. इलीच मुझे नन्हा पिग्लेट कहता है, और इससे मुझे बहुत गुस्सा आता है. नानू और वीत्या बहस कर रहे हैं, कि वास्या की “ज़ापरोझेत्स” के लिए टायर्स कौन जल्दी लाएगा, वर्ना दादा वास्या तो शिकायत कर रहे थे, कि वो – कब के चिकने हो चुके हैं. जब से हमारे कम्पाऊण्ड में एक ही पत्थर पे दादा वास्या के लगातार तीन टायर्स पंक्चर हो गए थे, मेरे नानू हर बात में उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं.

और अचानक बारिश होने लगती है. हम घर के अंदर भागते हैं; कुर्सियाँ मुश्किल से ही सबके लिए हैं, मगर किसी तरह बैठ जाते हैं और बिगड़े टेलिफोन का खेल खेलने लगते हैं. इलीच सबसे ज़्यादा हँसता है, हालाँकि पता चल रहा है, कि उसे वाकई में मज़ा नहीं आ रहा है. व्लादिक के पापा, इससे उलटे, जानबूझकर नहीं हँसते, जिससे ये ज़ाहिर करें कि – बिगड़ा हुआ टेलिफ़ोन कितना बेवकूफ़ खेल है – उसके मुकाबले, जैसे मिसाल के तौर पे, चैज़ के लेखों के संग्रह के, जिसके दो खण्ड वो साल भर से हर महीने ख़रीदते हैं. और मैं चाहता हूँ, कि सब लोग रात में कॉटेज में ही रुक जाएँ. इसके लिए ये ज़रूरी है, कि बारिश सुबह तक होती रहे, वर्ना पता नहीं, कि सब लोग रुकेंगे या नहीं.

मगर जल्दी ही सूरज निकल आया, और हम अपने-अपने घर जाने के लिए निकले. दादा वास्या मुझे “ज़ापरोझेत्स” में घर छोड़ने के लिए तैयार हो गए. जैसे ही वो स्पीड बढ़ाते हैं, मैं सीट से आगे झुकता हूँ, और इंजिन की आवाज़ से भी ऊँचे, उम्मीद से पूछता हूँ:

“वास्, अब तू कहीं घुसा देगा, हाँ?! (ख़ैर, ये तो मैं यूँ ही मज़ाक कर रहा हूँ).

“छिः, तू गंदा यूसुफ़!‌” दादा वास्या फुफकारते हैं और गाड़ी धीरे चलाने लगते हैं.

यूसुफ़ क्यों – सिर्फ ख़ुदा ही जानता है.

और दिनों में सिर्फ मैं और तोन्या नानी ही समर कॉटेज जाते हैं. कभी कभी व्लादिक भी आ जाता है, मगर आजकल उसका एक दोस्त पैदा हो गया है – ल्योशा सकलोव, जिसकी वो इतनी हिफ़ाज़त करता है, कि मुझे भी उससे मिलवाने में शरमाता है. बात सही है, अगर अचानक मैं बोल दूँ कि हमने खिड़कियाँ चिपकाने वाले कागज़ पर कैसे फ़िल्में बनाई थीं, तो?

मतलब, मैं और तोन्या पहाड़ी पर जाते हैं, फिर बास मारती नदी के ऊपर का पुल पार करते हैं, और वहाँ से समर कॉटेज बस दो हाथ की दूरी पे है. हम अपने बैक पैक्स उतार भी नहीं पाते, कि मैं फ़ौरन पड़ोसियों के यहाँ भागता हूँ. आन्ना बिल्याएवा, विक्टर पेत्रोविच और कुबड़ी आन्ना मिखाइलोव्ना के पास.

आन्ना बिल्याएवा मुझे “ख़रगोश” कहकर बुलाती है और बातें करते हुए पुचकारती है. अजीब बात है, कि मुझे वही सबसे ज़्यादा अच्छी लगती है. मगर आन्ना बिल्याएवा के सिर पे हमेशा रूमाल बंधा होता है, वो हमेशा जैसे धूल से भरी होती है, और उसका पुचकारना बिल्कुल बुरा नहीं लगता.

विक्टर पेत्रोविच मेरी तरफ़ कम ध्यान देते हैं, मगर उनका घर बहुत बड़ा और ख़ूबसूरत है और दरवाज़े के सामने चकमक पत्थर का चबूतरा है. इन चकमक पत्थरों से घिसकर मैं चिंगारियाँ निकालता हूँ. और अगर देर तक घिसा जाए, तो चकमक पत्थर जली हुई मुर्गी जैसी गंध छोड़ते हैं. कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि मैं तोन्या नानी से ज़िद करता हूँ, जिससे वो भी चकमक पत्थर सूँघे. एक बार तोन्या नानी मेरे आस-पास नहीं थी, इसलिए मैंने कुबड़ी आन्ना मिखाइलोव्ना को चकमक पत्थर सूँघने का सुझाव दिया. तब से वह इस बात पर ज़ोर डाल रही है, कि हम अपनी रास्बेरी को कहीं और लगा लें, जो उसके आँगन में पसर रही है.

और कुछ ही दिन पहले हमारा गेट खुलता है और बुदुलाय (प्रसिद्ध फ़िल्म जिप्सीका हीरो) भीतर आता है. फ़िल्म “जिप्सी” तो मुझे कुछ इण्डियन फ़िल्म्स से भी ज़्यादा पसंद है, और यहाँ – सचमुच का, असली बुदुलाय, दाढ़ी वाला, कुछ सफ़ेद बाल, हट्टा कट्टा, और न जाने कैसे, वो तोन्या नानी को जानता है!

“अन्तोनीना इवानोव्ना!” वो चिल्लाता है.

नानी बाहर आती है, और पता चलता है, कि ये ईल्या अंद्रेयेविच है, जिसके साथ वह कभी काम किया करती थी. मगर मेरे लिए तो वो – सिर्फ अंकल बुदुलाय है.                     

उसे अच्छा लगता है कि मैं उसे इस नाम से बुलाता हूँ. पता चलता है कि उसकी समर कॉटेज बिल्कुल हमारी कॉटेज के पास ही है, और अब मैं सारे दिन वहीं बिताता हूँ. बुदुलाय के यहाँ बड़े बड़े सेब हैं, गुलाबी रंग के, और अब ये मेरा पसंदीदा ब्राण्ड बन गया है, और उसके घर की दीवारों पर हमारे ड्रामा थियेटर के पुराने शो’ “हाजी नसरुद्दीन की वापसी” के इश्तेहार चिपके हैं, और बुदुलाय मुझे कुछ इश्तेहार देता है, जिससे मैं भी अपने घर में दीवारों पर चिपकाऊँ. उसका एक बेटा भी है – अंद्रेइ, जिसके साथ मिलकर मैं ग्रीन हाउस बनाता हूँ, मतलब, वो और बुदुलाय बना रहे हैं, और मैं बगल में घूम रहा हूँ और अंद्रेइ को ड्रम में बॉल फेंकने के लिए बुलाता हूँ. एकदम तो नहीं, मगर मैं बॉल डाल ही देता हूँ, और हम बड़ी, दानेदार, हरी बॉल पानी से भरे बड़े भारी, लोहे के ड्रम में फेंकने लगते हैं. फिर खाना खाते हैं. मुझे भूख नहीं है, मगर जब मैंने देखा कि बुदुलाय ने कैसे चाकू से डिब्बा-बंद चीज़ें खोलीं और, चाकू से उन्हें हिलाकर उसमें ब्रेड डुबाने लगा, तो मैं समझ गया कि मैंने बेकार ही अपने हिस्से के खाने से इनकार किया था, और मैं कहता हूँ, “दीजिए”. बुदुलाय बाऊल लेता है, जिससे डिब्बे से कुछ खाना निकालकर मुझे दे, मगर मेरे लिए तो बाऊल के बजाय सीधे डिब्बे से ही खाना महत्वपूर्ण है, और मैं पूछता हूँ, “क्या मैं भी इसी तरह सीधे डिब्बे से खा सकता हूँ”. बुदुलाय मुस्कुराता है, ख़ास मेरे लिए एक डिब्बा खोलता है और मुझे चाकू देता है, ज़ाहिर है, वह समझ रहा था कि फ़ोर्क से खाना मुझे उतना स्वादिष्ट नहीं लगेगा.

और कहते हैं, कि जो चाकू से कहता है – वो दुष्ट होता है. बकवास. बुदुलाय, शायद अक्सर चाकू से ही खाता है, और उससे ज़्यादा भले किसी और आदमी को मैं नहीं जानता.       

                           

 

मैं और व्लादिक – लेखक...                   

 

रात के ग्यारह बज चुके हैं. मगर मैं और व्लादिक जाग रहे हैं. हम बड़े कमरे में मेज़ पे बैठे हैं, और अपनी नोटबुक्स से सिर नहीं उठा रहे हैं. हमारे ऊपर ढेर सारी प्लास्टिक की लटकनों वाली एक छोटा सा लैम्प जल रहा है, और कभी-कभी इस तरह के वाक्य सुनाई देते हैं: “मैं दूसरा भाग शुरू कर रहा हूँ” या “और मेरे पास दूसरे चैप्टर में प्यार के बारे में होगा”.

ये हम नॉवेल्स लिख रहे हैं. जब से व्लादिक पुरानी, भूरे रंग की नोटबुक लाया था, जिसमें एक छोटी सी कहानी : “सर्दियों की तैयारी” लिखी थी, मेरा मन सैनिकखेलने को नहीं चाहता, और मैं प्लास्टीसिन से भी कुछ नहीं बनाना चाहता. पहले तो मुझे अचरज हुआ, कि मेरे दिमाग़ में ख़ुद ही ये ख़याल क्यों नहीं आया, कि एक नोटबुक ख़रीदकर उसमें जो चाहो वो लिखा जा सकता है, और फिर लेखकपनमेरा सबसे फ़ेवरिट काम बन जाता – हाँ, बेशक, फुटबॉल को छोड़कर. बस, मैं सिर्फ ऐसी फ़ाल्तू बातें नहीं लिखता, जैसे “सर्दियों की तैयारी”. इस कहानी में सिर्फ यही बताया गया है, कि अपनी स्कीज़ को कैसे चिकना बनाना चाहिए, जिससे वे अच्छी तरफ फ़िसलें, और खिड़कियों को कैसे लुगदी से बंद करना चाहिए, जिससे हवा भीतर न आ सके. व्लादिक लिखता है, कि सबसे अच्छा तरीका है स्पंज से बंद करना. मगर ये दिलचस्प नहीं है, और सर्दियों की पूरी तैयारी व्लादिक ने सिर्फ डेढ़ पन्नों में लिख दी है! मैंने तय कर लिया, कि अगर लिखूँगा, तो एकदम नोवेल्स ही लिखूँगा.

मेरे पहले उपन्यास का शीर्षक है “भूले उपनाम वाला”. इसमें इस बारे में लिखा है, कि कैसे एक लड़का बहुत बोरहो रहा था, वो हॉकी वाले सेक्शन में अपना नाम लिखवाने जा रहा था, मगर रास्ते में कुछ कैनेडियन्स ने उस पर हमला कर दिया, उसे खूब मारा, और वो अपनी याददाश्त खो बैठा. आख़िर में ये लड़का अपने नानू से मिलता है और उसकी याददाश्त वापस लौट आती है. व्लादिक, जिसने “सर्दियों की तैयारी” के बाद कुछ और नहीं लिखा है, मेरा नॉवेल पढ़ता है, और फिर हम एक साथ लिखने लगते हैं.

मैं तीन खण्डों का नॉवेल “इवान – शिकारी का पोता” शुरू करता हूँ, और व्लादिक एक थ्रिलर शुरू करता है “सबको ऐसा ही होना चाहिए”. जब तक वो अपना नॉवेल लिखता है, मैं न सिर्फ अपना तीन खण्डों वाला नॉवेल पूरा कर लेता हूँ, बल्कि एक छोटा सा नॉवेल गद्दार” भी लिख लेता हूँ. फिर हम कई बार “एम्फ़िबियाई मैन” (भूजलचर मानव – अनु.) नाम की फ़िल्म देखते हैं, और अचानक कई सारी किताबें तैयार हो जाती हैं. व्लादिक की – “किरण–मानव”, और मेरी – “वायु–मानव”, “चुम्बक-मानव” और “धातुई मानव”. किरण-मानव सिर्फ आँखों से किसी भी सतह को जला सकता है. वायु-मानव, अगर अपनी नाक में स्प्रिंग घुसा कर छींके, तो कोई भी भयानक चक्रवात ला सकता है. चुम्बक-मानव सोने को आकर्षित करता है, और धातुई मानव बस सिर्फ बेहद शक्तिशाली और बेहद भला है. और इन सारे मानवों का बदमाश लोग अपने नीच कारनामों के लिए उपयोग करना चाहते हैं, जिसमें, ज़ाहिर है, वे कामयाब नहीं हो पाते.

व्लादिक को अपनी किताबों में चित्र बनाना अच्छा लगता है, मगर मेरी ड्राइंग बुरी है, मगर मेरी नोटबुक के मुखपृष्ठ पर हमेशा मूल्य, प्रकाशन वर्ष, प्रतियों की संख्या और संक्षिप्त विवरण लिखा रहता है. उदाहरण के लिए “दस अविजित” नॉवेल का संक्षिप्त विवरण इस तरह से है: “ डाकुओं, समुद्री डाकुओं और अन्य लोगों के बारे में उपन्यास”. फिर मेरे सभी नॉवेल्स व्लादिक के नॉवेल्स से ज़्यादा बड़े हैं. मेरा सबसे छोटा नॉवेल “सीक्रेट प्लेस” ब्यानवे पृष्ठों का है, अगर अनुक्रमणिका को भी गिना जाए तो, और व्लादिक के नॉवेल्स पचास-पचास, चालीस-चालीस पृष्ठों के हैं. मेरे लिए ये बेहद ज़रूरी है, कि नॉवेल लम्बा हो और कई खण्ड़ों में हो, क्योंकि तब मुझे अनुक्रमणिका लिखना ख़ास तौर से अच्छा लगता है. कभी-कभी तो मैं पहले ही अध्यायों के शीर्षक सोच लेता हूँ, अनुक्रमणिका लिख लेता हूँ, और तभी नॉवेल की शुरूआत करता हूँ.

कुछ समय बाद व्लादिक ने लिखना बंद कर दिया, क्यों कि, “वैसे भी छपेगा तो कुछ भी नहीं”. पहले तो मैं व्लादिक से कहता हूँ, कि कभी न कभी तो छापेंगे ही, और अगर ना भी छापें, तो हमारी नोटबुक्स ख़ुद भी किसी किताब से कम नहीं हैं, क्योंकि वहाँ कीमत है, प्रतियों की संख्या है, मगर उसे किसी भी तरह मना नहीं सका.

अब मैं अकेला ही “बेलारूसी लोक कथाएँ लिख रहा हूँ.

 

                   

 

           मैं और व्लादिक – बिज़नेसमैन

हमारे शहर की सीमा पर, वहाँ, जहाँ ट्राम नंबर 3 मुड़ती है, अचानक एक कबाड़ी बाज़ार खुलता है. वहाँ एक-एक रूबल में विदेशी च्युईंग गम बेचते हैं, और जैसे ही मेरे और व्लादिक के पास पैसे जमा हो जाते हैं, हम वहाँ जाते हैं. कबाड़ी बाज़ार में च्युईंग गम के अलावा भी बहुत सारी चीज़ें बिकती हैं, और मेरे दिमाग में ये ख़याल आता है, कि अगर आटे से बौने बनाए जाएँ, उन्हें गाढ़े रंग से रंगा जाए और उन पर लाख का कवर चढ़ा दिया जाए, तो लोग उन्हें ख़ुशी से ख़रीद लेंगे. मैं व्लादिक को अपना आयडिया बताता हूँ, और थोड़ा बहुत मनाने के बाद हम आटा, नमक, गाढ़े रंग और कवर के लिए लाख खरीदते हैं, जो बौनों के भी काम आ जाएगा.

कबाड़ी बाज़ार सिर्फ छुट्टियों वाले दिन ही लगता है, और शुक्रवार शाम को हम किचन को प्रॉडक्शन-यूनिट में बदल देते हैं. हम बौनों को बेकिंग पैन में रखते हैं, आटे को खूब गरम करते हैं, फिर पैन बाहर निकालते हैं, बौनों को थोड़ा ठण्डा होने देते हैं, इसके बाद उन्हें रंग देकर उन पर लाख चढ़ाते हैं. पूरे क्वार्टर में लाख की गंध फैल जाती है, मगर कला के लिए कुर्बानी तो देनी ही पड़ती है!

कबाड़ी बाज़ार में जगह घेरने के लिए वहाँ चार बजे पहुँचना होता है. इसलिए बौनों को चिंधियों वाले डिब्बे में करीने से सजाकर, जिससे कि उनमें से एक भी न टूटे, मैं और व्लादिक, अपनी नींद पूरी किए बिना पैदल पूरे आधे-अंधेरे शहर से गुज़रते हैं, और हमसे सौ मीटर्स की दूरी पर, पीछे-पीछे तोन्या नानी चल रही है, जिससे मैं घबरा न जाऊँ. हम जगह घेर लेते हैं, और हमारे बिज़नेस-पड़ोसी शुभ कामनाओं से हमारा स्वागत करते हैं, ज़ाहिर है, उनके दिलों में ये ख़याल भी नहीं आ रहा था, कि हम उनका मुकाबला कर सकेंगे. वाकई में, इधर-उधर नज़र दौड़ाने के बाद, मुझे कुछ अटपटापन महसूस होने लगता है, क्योंकि मेरा और व्लादिक का स्टाल बाकी स्टाल्स के मुकाबले में बहुत मरियल लग रहा था. ज़रा सोचिए: बड़ा भारी स्टाल और उस पर खड़े हैं दस बौने, माचिस की डिबिया के साइज़ के, जबकि औरों के पास अपने सिल्क और मखमल के लिए जगह कम पड़ रही है और उन्हें काफ़ी कुछ हाथों में भी रखना पड़ रहा है. ऊपर से थोड़ी-थोड़ी देर में तोन्या नानी आकर व्लादिक से बौने ख़रीद रही है, क्योंकि मैं उसे नहीं बेच रहा हूँ.

मगर फिर तोन्या नानी कहीं गायब हो जाती है, कबाड़ी बाज़ार अपने नाम के मुताबिक शोर मचा रहा है, और मैं ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर और लोगों को मजबूर करके, अपने सारे बौने बेच देता हूँ. और हालाँकि आख़िरी दो – एक रूबल में नहीं, जैसा कि हमने सोचा था, बल्कि पचास कोपेक में बेचता हूँ, फिर भी मैं बेहद ख़ुश हूँ.

व्लादिक हर संभव उपाय करता है, कि उसके बौनों की तरफ़ कोई न आए. ठोढ़ी पर हाथ रखे वो ग्राहकों की तरफ़ पीठ करके बैठा है और ऐसा दिखा रहा है, जैसे उसे यहाँ किसी बेहद ख़ौफ़नाक बात के होने का डर है. जब मैं अपनी चिल्ल-पुकार से किसी को आकर्षित करता हूँ, तो वो सिकुड़ जाता है और बस, स्टाल के नीचे ही नहीं घुस जाता. हालाँकि उसकी बात भी समझ में आती है – क्योंकि अपने माल को बेचने के लिए जब मैं उन लोगों का भी ध्यान अपनी तरफ़ खींचता हूँ, जो हाथ हिला देते हैं और दुहराते हैं, कि उन्हें हाथियों में कभी भी दिलचस्पी नहीं रही.

“ये हाथी नहीं, बल्कि बौने हैं!” मैं जाने वालों के पीछे चिल्लाता हूँ. “ये बेशकीमत हैं, जापानी कारीगरी 'नेत्सुके' से कम नहीं हैं, क्योंकि इन्हें हाथ से बनाया है और बस एक-एक ही अदद बनाया गया है!!!”

ज़ाहिर, ये सब बर्दाश्त करना, हरेक के बस की बात नहीं है.

हम बौनों वाली बात दुहराना नहीं चाहते, मगर हमारा बिज़नेस चलता रहता है. मैं रास्ते से कंकड इकट्ठा करता हूँ, उन्हें अच्छी तरह धोता हूँ, उन्हें पैकेट्स में बंद करता हूँ, और मण्डी की तरह चिल्ला-चिल्लाकर बेचता हूँ, “एक्वेरियम के लिए बजरी, सीधे बायकाल झील की तली से”. ईमानदारी से कहता हूँ, कि मैं पाँच पैकेट्स बेचने में कामयाब हो गया.

फिर मैं और व्लादिक मछली-पालन का काम करते हैं, जिससे फ्राय-फिश पैदा करके उन्हें बेचें, मगर लगातार गप्पीज़’ (रेनबो फ़िशेज़) ही पैदा होती हैं, और ज़ू-शॉप 'नेचर' में तो वैसी खूब हैं.

आइस्क्रीम का बिज़नेस बुरा नहीं चलता, मगर जब तक डिपार्टमेन्टल स्टोर से बाज़ार तक आइस्क्रीम का बॉक्स ले जाते हो, आधी तो पिघल ही जाती है, और जो नहीं पिघलती, उसका कुछ हिस्सा बाद में पूरे परिवार के साथ ख़ुद ही खाना पड़ता है.

घरेलू साबुन की आठ पेटियाँ एक सेकण्ड में ख़तम हो जाती हैं, क्योंकि बाज़ार में साबुन कहीं है ही नहीं, मगर, अफ़सोस की बात है, कि नानू के गोदाम में सिर्फ आठ ही पेटियाँ थीं.

तब व्लादिक की मम्मा अनुभवी सेल्समैन के समान ये इंतज़ाम करती है कि हम चैरिटी-फ़ण्ड के लॉटरी टिकट्स बेचें. हम लेनिन स्ट्रीट पर जाते हैं, जो हमारे शहर की मुख्य सड़क है, और दिन भर में एक तिहाई टिकट्स बेच देते हैं. ये बता दें, कि किसी ने भी कोई ख़ास इनाम नहीं जीता, और हम तय करते हैं, कि अगर बचे हुए टिकट्स खोलें जाएँ, तो जीत की राशि, हमारी लागत से कहीं ज़्यादा ही होगी. हम टिकट्स खोलते हैं.

अब ख़ास बात – चैरिटी फ़ण्ड का हिसाब समय पर पूरा करना है, और तभी हम कोई नया बिज़नेस शुरू कर सकते हैं...

 

 

 

 

 

फ़ुटबॉल-हॉकी....

“इस शैतान की वजह से मैं अपने ही घर में प्रसिद्ध कलाकारों की कॉन्सर्ट नहीं देख सकता!” नानू बड़बड़ा रहे हैं, मगर फिर भी किचन में चाय पीने के लिए चले जाते हैं, और आख़िरकार मैं टी.वी. का चैनल बदल ही देता हूँ, मैं प्रोग्राम नं. 2 पर आता हूँ, जहाँ पंद्रह मिनटों से फुटबॉल चल रहा है. “स्पार्ताक” – “दिनामो”(कीएव). दसाएव, चिरेन्कोव, रदिओनोव, ब्लोखिन, बल्ताचा, मिखाइलिचेन्कोऔर वो न जाने किन कलाकारों के बारे में परेशान हो रहे हैं!

हमारे यहाँ सिर्फ एक टी.वी. है, और इसलिए, फुटबॉल और हॉकी के सारे मैचेस  देखने के लिए, जो वैसे भी कभी-कभार ही दिखाए जाते हैं, मुझे चार साल की उम्र से ही पढ़ना सीखना पड़ा. अख़बार में टी.वी. प्रोग्राम होता है – उसे ले लो और ख़ुद ही देख लो कि कब टेलिकास्ट होने वाला है. और अगर मुझे पढ़ना नहीं आता, तो कोई भी, इन झगड़ों के मारे, मुझे बताता नहीं, कि किसी कॉन्सर्ट के समय दूसरी चैनल पर, मिसाल के तौर पर, यूरोपियन क्लब का मैच दिखाया जा रहा है.

और मैं, सिर्फ देखता ही थोड़े हूँ. पहली बात, मैं इस बात पर गौर करता हूँ कि कौन गोल बना रहा है, किस खिलाड़ी ने कितने अंक बनाए हैं, और फिर, मेरी अपनी भी तो चैम्पियनशिप मैच है, और वो सीधे बड़े कमरे में चल रही होती है, जो टी.वी. में दिखाई जा रही है, उसके बिल्कुल साथ साथ. जब फुटबॉल का मैच हो रहा होता है, तो मैं कमरे में बॉल धकेलता हूँ, कमेन्ट्री करता हूँ, बिल्कुल ओज़ेरोव या पेरेतूरिन की तरह; बाल्कनी का दरवाज़ा – गोल, और इस दरवाज़े को ढाँकने वाला जाली का परदा, - गोल की जाली होती है. अगर टी.वी. पर गोल हो रहा होता है, या कोई ख़तरे वाली बात होती है, तो मैं अपना खेल रोक देता हूँ, देखता हूँ, बाद में कालीन के सेंटर से शुरू करता हूँ.

“प्रतासोव लेफ्ट फ्लैन्क की ओर जा रहा है! पेनल्टी कॉर्नर में कैनपी बनाने की ज़रूरत है!” यहाँ मुझे याद आता है, कि नेफ़्त्ची (फुटबॉल क्लब, बाकू) के खिलाड़ी आज “द्नेप्र” के फुटबॉल प्लेयर्स के साथ बहुत गलत खेल रहे हैं, एडी से गेंद को पीछे पीछे धकेलता हूँ, अपने आप को ही कमीज़ से पकड़ता हूँ और जहाँ तक संभव हो, विश्वसनीय तरीके से गिरता हूँ. “बेशक, पेनल्टी, प्यारे दोस्तों!!!” मगर रेफ़री न जाने क्यों सिर्फ एक ही पीला कार्ड दिखाता है...

तभी तोन्या नानी आती है और न जाने कौनसी बात कहती है, कि बाहर कम्पाऊण्ड में खेलना बेहतर होगा. मगर मैं कम्पाऊण्ड में भी खेलता हूँ, और जानता हूँ, कि वहाँ वो बात नहीं है. क्या वहाँ कमेन्ट्री कर सकते हो? ये सच है, कि जल्दी ही ये घर के अंदर वाली चैम्पियनशिप्स बंद करनी पडेंगी, क्योंकि हॉकी का सीज़न शुरू हो रहा है और चेकोस्लोवाकिया की टीम के साथ कमरे वाले मैच में फ़ेतिसोव ने इतनी ज़ोर से बॉल फेंकी, कि झूमर टूट गया. ये कैफ़ियत, कि हमारी टीम के पास जीतने के लिए सिर्फ दो ही मिनट बचे थे, नानू को मंज़ूर नहीं है, इसलिए अब मैं सिर्फ टी.वी. पर ही मैच देखता हूँ.

कोई बात नहीं, हॉकी का मैच सिर्फ देखने में भी मज़ा आता है. उसमें सब हमेशा लड़ते ही रहते हैं! ख़ास तौर से इण्टरनेशनल मैचेज़ में. और वर्ल्ड कप मैचेज़, “इज़्वेस्तिया” अख़बार के पुरस्कार मैचेज़, कैनेडियन कप के मैचेज़ – ये हम नानी तोन्या के साथ, और कभी कभी परनानी नताशा के साथ भी देखते हैं. हमें सबसे ज़्यादा रेफ़रियों की नाइन्साफ़ी पर गुस्सा करना अच्छा लगता है, जिन्हें कैनेडियन्स की और फ़िन्स की कोई गलती दिखाई नहीं देती और जो हमेशा नाइन्साफ़ी से हमारे खिलाडियों को आउट कर देते हैं. मेरी नानियाँ तो इतने तैश में आ जाती हैं, कि अगर हमारा कोई खिलाड़ी कभी नियम तोड़ भी देता है, तो भी उन्हें कैनेडियन का ही दोष नज़र आता है, और मुझे उनकी इस राय से सहमत होना न जाने क्यों अच्छा लगता है, हालाँकि मुझे भी मालूम है, कि हमारे खिलाड़ी पर गलती के ही लिए जुर्माना लगा है.

फिर अचानक हॉकी रात को दिखाने लगते हैं. तोन्या नानी कोशिश करती है कि सोए नहीं, जिससे कि सुबह मुझे बता सके कि कैसा खेले थे. मगर तीसरे सेक्शन के शुरू में वह ज़रूर सो जाती है, इसलिए सुबह उसे स्कोर का भी पता नहीं चलता, और टी.वी. भी पूरी रात खुला रहता है.

तब मैं फ़ैसला करता हूँ, कि मैं ख़ुद ही मैचेज़ देखूँगा, और दिन में सो लिया करूँगा, जिससे रात में आँख न लग जाए. अपने बिस्तर पर करवटें लेता रहता हूँ, कभी-कभी तो डेढ़ घण्टा लेटा रहता हूँ, मगर एक सेकण्ड के लिए भी आँख़ नहीं लगती, फिर चाहे कुछ भी हो जाए हॉकी का मैच ख़तम होने तक डटा रहता हूँ. वर्ना तो ये सारा करवटें लेना बेकार ही जाता, और दिन में डेढ़ घण्टा सिर्फ पलंग पर लेटे रहना – माफ़ कीजिए, मेरे बस की बात नहीं है! मगर जब सोवियत संघ और स्वीडन के बीच मैच हो रहा हो, तो आख़िर तक कैसे नहीं देखोगे? अगर पहले सेक्शन के बाद स्कोर 3:0 या 5:1 हो, तो, मतलब ये हुआ कि हमारी टीम ज़रूर 10:1 से जीतने वाली है. ऐसा, अगर ज़्यादा नहीं तो, करीब नौ बार हुआ. एक बार तो नानू भी रात को उठ गए, और ये देखकर कि कैसे लगातार हमने स्वीडन के ख़िलाफ़ पाँच गोल बनाए, गर्व से बोले:

“ऐसा होना चाहिए मैच! मुझे भी दिलचस्पी हो गई.”

ज़रा ठहरो,’ मैं सोचता हूँ, ‘तुम्हारे आर्टिस्ट्स की कॉन्सर्ट्स से बुरा तो नहीं है’.

 

 

 

 

 

 

 

मेरे नानू मोत्या, पर्तोस और पालनहार...                  

 

मैं और तोन्या नानी धीरे-धीरे अपनी मरीना रास्कोवाया स्ट्रीट पर वापस लौट रहे हैं.

जब हम अपने पोर्च तक आ गए, तो मैंने कहा, “चल, पर्तोस का इंतज़ार करते हैं.

जब से टी.वी. पर फिल्म “डीअर्तन्यान एण्ड थ्री मस्केटीर्स” दिखाई गई, मैं अपने नानू को इसी नाम से बुलाने लगा. नानू की शकल पर्तोस से बहुत मिलती है और अगर उसे किनारे से पोनीटेल बांध दी जाए, तो बिल्कुल दूसरा पर्तोस लगेगा! और वैसे, मैं समझता हूँ, कि नानू को अच्छा लगता है, कि मैं उसे इस नाम से बुलाता हूँ, उन्हें तो मालूम है कि उस फ़िल्म में मुझे पर्तोस कितना अच्छा लगा था.

“ठीक है, इंतज़ार कर लेते हैं,” तोन्या ने जवाब दिया. “मगर, सिर्फ हमारे नानू का, न कि पर्तोस का.”

“अरे, वो पर्तोस ही तो हैं!”

“उसे इस नाम से बुलाने की ज़रूरत नहीं है,” नानी शांति से बात करती है, मगर इसी शांति के कारण समझ में आता है, कि उसे कितना बुरा लगता है – वो ये समझती है, कि मैं नानू को चिढ़ा रहा हूँ, जबकि मैं चिढ़ाने की बात सोचता भी नहीं हूँ. “वो कल मुझसे कह रहे थे, कि इलीच आया था, उनका बहुत पुराना दोस्त, और तुमने सीधे इलीच के ही सामने नानू को पर्तोस कह दिया...नानू ऐसे बड़े ओहदे पर हैं, इत्ते सारे लोगों को जानते हैं...और फिर वो हमारे पालनहार भी तो हैं, न कि पर्तोस.”

“ये पालनहार क्या होता है?” मैं पूछता हूँ.           

“वो हमारे खाने के लिए लाते हैं. “सर्कस” कार मैंने तुम्हारे लिए खरीदी. नौ रूबल्स की है, और मुझे पैसे किसने दिए, क्या ख़याल है, अगर नानू ने नहीं, तो किसने दिए?”

और तभी नानू दिखाई देते हैं. अपने पुराने कत्थई सूट में, जैकेट खुला है, क्योंकि शायद पेट पर नहीं बैठता होगा; फीकी-पीली कैप नहीं थी, और नानू के बचे खुचे भूरे बाल किनारों पर हवा के कारण उड़ रहे थे; गंदे, शायद सूट से भी पुराने जूतों में नानू आ रहे हैं; चेहरे पर मुस्कुराहट है (उन्होंने दूर से ही मुझे और नानी को देख लिया था), जो अक्सर, दूसरे (लगभग सभी) लोगों के लिए होती थी, जो इस समय कम्पाऊण्ड में हैं और नानू से नमस्ते कह रहे हैं.

और मुझे अचानक इतनी ख़ुशी होने लगती है, कि मेरे नानू आ रहे हैं, और अब हम घर जाएँगे, और, हो सकता है, व्लादिक आ जाए, और नानू हमारे साथ ताश का खेल “बेवकूफ़” खेलेंगे! मतलब, मैं पूरे कम्पाऊण्ड में भागता हूँ और पूरी ताकत से चिल्लाता हूँ:

“ना-आ-नू!! पा-आ-लन-हार!!!पा-आ-आ-लनहार!!!!”

कम्पाऊण्ड में मौजूद सारे लोग मुड़ते हैं; मैं नानू के कंधे पर उछलकर चढ़ जाता हूँ, और वो सिर्फ इतना ही दुहराते हैं: “अरे, शोर क्यों मचा रहा है? लोग हैं! लोग हैं! क्यों शोर मचा रहा है?!” (नानू न जाने क्यों हमेशा “शोर मचा रहा है” ही कहते हैं, तब भी, जब “चिल्ला रहा है” या “चिंघाड़ रहा है” कहना बेहतर होता.)      

फिर, जब हम सीढ़ियाँ चढ‌ रहे होते हैं, नानी नानू को समझाती है, कि उसीने मुझसे कहा था, कि नानू पालनहार है, न कि पर्तोस, मगर नानू अपनी ही स्टाइल में क्वैक-क्वैक करते हैं, कि “नानी के पास कोई काम-धाम नहीं है”.

और सुबह तो, आह सुबह! आख़िरकार वो हो जाता है, जिसका मैं कब से इंतज़ार कर रहा हूँ, मतलब, जिसका मुझसे काफ़ी पहले वादा किया गया था.

नानू मुझे सुबह छह बजे जगाते हैं और पूछते हैं कि क्या मैं उनके साथ उनके ऑफ़िस जाना चाहता हूँ, या अभी और सोना चाहता हूँ. बेशक, मैं जाना चाहता हूँ, फिर जब नानू ऑफ़िस जाने के लिए तैयार हो रहे होते हैं, तो मैं वैसे भी उठ ही जाता हूँ, भले ही वो मुझे अपने साथ न ले जाएँ. और अब तो – ओहो! मैं बिस्तर से उठता नहीं , बल्कि उछलता हूँ और तीन ही मिनट में मैं किचन में बैठ जाता हूँ, इसलिए भी कि नानू को दिखाना चाहता हूँ, कि जब समय आएगा और मुझे रोज़ ऑफ़िस जाना पड़ेगा, मैं सब कुछ ठीक-ठाक कर लूँगा, बगैर किसी परेशानी के.

 

हमारे लोकल स्मोलेन्स्क रेडियो के प्रोग्राम एक के बाद एक चलते रहते हैं, ऐसे जैसे “अनाज काफ़ी मात्रा में होगा”, “बच्चे पहले के मुकाबले ज़्यादा अच्छी तरह आराम करते हैं”; फ्राइंग पैन पर हर तरफ़ मक्खन चटचटा रहा है और उड़ रहा है; फ्रिज में से हर चीज़ बाहर निकाल ली गई है, क्योंकि नानी को लगता है, कि हम शायद वो चीज़ भी चखना चाहेंगे, जिससे इन्कार कर चुके हैं (हालाँकि उसे ये भी मालूम है, कि हमारी 13 नंबर की बस पंद्रह मिनट बाद जाने वाली है), - ये मैं और नानू नाश्ता कर रहे हैं. मुझे अचरज होता है, कि नानी इसी फ्राइंग पैन पर हर चीज़ कैसे कर सकती है, जहाँ से चारों तरफ़ और उसके हाथों पर भी गरम मख्खन उछल रहा है, और वो ऐसा भी नहीं दिखाती कि उसे डर लग रहा है या दर्द हो रहा है, और फिर मैं फ्राइड अण्डा खाता हूँ, ठीक उसी तरह, जैसे नानू अण्डे की ज़र्दी फ़ैलाते हैं, जिससे बाद में उसे ब्लैक-ब्रेड के टुकडे से प्लेट से इकट्ठा कर सकें.  

और बस में, और ट्राम में नानू अपने परिचितों से मिलते हैं और मेरी तरफ़ इशारा करते हुए सबको बताते हैं: “ये मेरा छोटा वाला है”.

एक तरफ़ से तो मुझे फ़ार्मास्यूटिकल गोदाम काफ़ी गंदा, बिखरा-बिखरा और जर्जर लगता है, मगर दूसरी तरफ़ मुझे ये भी लगता है – यही बिखरापन, इधर-उधर पडी हुई इंजेक्शन की छोटी-छोटी बोतलें, चीथड़े, कागज़ और हर तरह का कचरा, ये ही तो आपको सोचने पर मजबूर करता है, कि फ़ार्मास्यूटिकल-गोदाम में गंभीर किस्म का काम होता है...

ज़रूरी फ़ोन करने के बाद, नानू मुझे अपने साथ ये चेक करने के लिए ले जाते हैं, कि ट्रक्स ठीक से तो काम कर रहे हैं. मज़दूर लोग किसी इवान का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसके बगैर काम शुरू नहीं हो सकता, और जब नानू को ये पता चलता है कि इवान अभी तक नहीं आया है, अपने मातहतों को समझाते हैं कि असल में ये इवान कौन है. वो ऐसे शब्दों से समझाते हैं, जिनको मुझे अपने नानू से सुनने की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी. मगर पहली बात, मज़दूर राज़ी हो जाते हैं, और दूसरी बात, मुझे ख़ुद को भी अच्छा लगता है, कि मेरे नानू ऐसे शब्दों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. मैं तो, ईमानदारी से, काफ़ी पहले से उन्हें जानता हूँ.

और आख़िर में जब मैं फ़ार्मास्यूटिकल-गोदाम में थक जाता हूँ, तो इस गोदाम के डाइरेक्टर, याने कि मेरे नानू, मुझे ट्राम में बिठाकर घर भेज देते हैं. उसमें क्या है? “जुबिली” स्टॉप तक जाऊँगा, और वहाँ से पाँच मिनट पैदल – बस, मैं घर पहुँच जाऊँगा...

 

फिर परनानी नताशा और फ़ाइनल...  

 

ये वही सन् छियासी है, मेरी ज़िंदगी का वो ही महत्वपूर्ण फुटबॉल वर्ल्ड चैम्पियनशिप का मैच, जब मरादोना ने हाथ से गोलबनाया था और सारे रेफ़रीज़ ने उसे ये स्वीकार करके माफ़ कर दिया था, कि ये ख़ुदा का हाथ है; ये वो ही चैम्पियनशिप थी, जिसमें प्लेटिनी ने सेमीफ़ाइनल में निर्णायक पेनल्टी ठोंक दी थी, - वो ही, वो ही! ... ज़ाहिर है, कि मैं सारे मैचेज़ लगातार देखता हूँ, पूरा एक महीना टी.वी. से दूर नहीं हटता हूँ, कमरे वाले अपने मैचेज़ को भी आगे सरका देता हूँ, और जब फ़ाइनल होगा तो मैं, ज़ाहिर है, हरा स्क्रीन बन जाऊँगा और स्टेडियम में मौजूद फ़ैन्स के साथ चिल्लाऊँगा!

और, नानी, ये रही तुम्हारे लिए, बिल्कुल सेंट जॉर्ज-डे की फ़ीस्ट!

टी.वी. चालू करता हूँ, शान से, बिल्कुल नानू की तरह, कुर्सी में बैठता हूँ, उसे टी.वी. के पास सरकाता हूँ, इस तरह कि कुर्सी और चमचमाते हरे स्क्रीन के बीच, जिस पर छोटे-छोटे इन्सान भाग रहे हैं, मुश्किल से डेढ़ मीटर का फ़ासला हो. और क्या? कमेन्टेटर बोलना शुरू करता है, और कमरे में चुपचाप मेरी परनानी नताशा घुसती है.

आज उसका मूड अच्छा नहीं है – ये इस बात से पता चल रहा है, कि उसका हमेशा सलीके से बांधा हुआ रूमाल आज लापरवाही से खिसक गया है, और होंठ एक ख़तरनाक त्रिकोण बना रहे हैं. फिर वो कुछ सुड़सुड़ा भी रही है; मतलब – मुसीबत का इंतज़ार करो.

“अरे,” नताशा कहती है, “चलो, टी.वी. को आराम करने दो”!

समझ रहा हूँ, कि इस “टी.वी. को आराम करने दो” का मतलब मेरे लिए क्या होता है! मैं पूरे महीने भर से फ़ाइनल का इंतज़ार कर रहा था, और सुबह हो गई है, सो तो नहीं सकते, और ऐसे मौके के लिए तो मैं रात को भी नहीं सोता, - और अचानक “चलो...!” भला बताइए!

“मगर ये तो,” मैं तो इतना तैश में आ गया कि मेरी सारी नसें तड़तड़ाने लगीं, “फ़ाइनल है! मरादोना खेलेगा, तिगाना, प्लातिनी, रोझ्तो...”

जितनों को मैं जानता था, उन सबके नाम मैंने गिनवा दिए, मगर नताशा ने दृढ़ता से टी.वी. बंद कर दिया, और आगे ऐसा हुआ: वो – स्टैण्ड के पास खड़ी होकर उस नासपीटे बक्से को बचा रही है, और मैं उसे धकेलता हूँ और बक्से को फिर चालू कर देता हूँ. ऐसा कई बार होता है: मैं चालू करता हूँ, वो बंद करती है – और फिर से स्टैण्ड के पास. हाथापाई शुरू हो गई. ऊपर से, नताशा को तो, जैसे मज़ा आ रहा था, और मैं वाकई में अपना आपा खो रहा था. अब सिर्फ इसलिए नहीं, कि फ़ाइनल था, बल्कि इसलिए कि मुझे ऐसा महसूस हो रहा है, कि मुझे टी.वी. देखने से रोकना इतना आसान है. नताशा जितनी ज़्यादा तैश में आ रही थी, उतना ही मैं भी गरम हो रहा था, और मेरे एक काफ़ी तेज़ धक्के के कारण परनानी धीरे-धीरे दिवान पर गिरने लगी, उसकी आँख़ें धीरे-धीरे गोल-गोल घूमने लगीं, और वो चित हो गई, उसका दायाँ हाथ बेजान होकर एक ओर को लटक गया. बस, सत्यानास...  फ़ाइनल के बारे में मैं, वाकई में, भूल गया, नताशा को कृत्रिम रूप से साँस देने की कोशिश करता हूँ, जैसा मुझे व्लादिक ने सिखाया था, मगर इसका भी कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है...

क्या पुलिस में फोन कर दूँ, कि मैंने अपनी परनानी को मार डाला है?

जिस्म के भीतर – दिल की जगह पर “ठण्डक” छा गई, और इस “ठण्डक” के कारण मेरे दाँत भी किटकिटाने लगते हैं; और तभी दरवाज़े के पीछे से पैकेट्स की सरसराहट सुनाई देने लगती है – ये तोन्या नानी आई है, डिपार्टमेन्टल स्टोर से, उससे मैं क्या कहूँगा?!

मगर मेरे कुछ कहने से पहले ही तोनेच्का बेहद ख़ुश-ख़ुश अंदर आती है और कहती है, कि उसने कण्डेन्स्ड मिल्क के पूरे तीन डिब्बे खरीदे हैं और वो उन्हें औटाकर पेढ़ा बनाएगी, जो मुझे सिर्फ रबड़ी के मुकाबले में ज़्यादा पसंद है.

“सिर्फ ये बात समझ में नहीं आ रही है, कि सब एक साथ औटा दूँ, या पहले दो औटाकर बाद में तीसरा औटाऊँ?”

जैसे ही मैं मुँह खोलता हूँ, जिससे कि अपराध की भावना से कह सकूँ, कि दूध के लिए थैन्क्यू, मगर मैंने गलती से नताशेन्का को मार डाला है, नताशेन्का, अपनी पोज़ बदले बिना, ज़ोर से, पूरे दिल से, रुक-रुक कर कहती है:

“दो ही - उबाल कर औटा, तीन से – ज़्यादा ही चिपचिपा हो जाएगा!”

ज़िंदा है! “ठण्डक” पिघलने लगती है, दाँत अब नहीं किटकिटा रहे हैं; फाइनल की याद आती है, और पेढ़े की कल्पना ने तो मेरी खुशी के प्याले को इतना लबालब भर दिया, कि पूछो मत. नताशा, बुदबुदाते हुए, कि प्योत्र इवानोविच के पास जा रही है (वो टॉयलेट को प्योत्र इवानोविच कहती है), कमरे से निकल गई, जैसे कुछ हुआ ही न हो...(इतना बर्दाश्त इसलिए करना था, कि सिर्फ मुझे डरा सके!)

मैंने फ़ैसला कर लिया कि नताशा वाली बात किसी को भी नहीं बताऊँगा. मैं और तोन्या नानी फ़ाइनल का अंत देखते हैं, नानी पेनाल्टी को “पेनाल्चिक” कहती है और, चाहे कितना ही क्यों न समझाऊँ, कि ऐसा कोई शब्द है ही नहीं, बल्कि सिर्फ “पेनाल्टी” है, फिर भी वह नहीं समझती, “पेनाल्चिक किसलिए”.

शाम को चाय पीते समय, और बातों के अलावा मैं नताशा से हुए झगड़े के बारे में बताता हूँ. नानू क्वैक-क्वैक करते हुए कहते हैं, कि “बूढ़ी औरत कैसे छोकरे को पागल बना सकती है”, और फिर वो कि न्यूज़ आने तक (मतलब, प्रोग्राम व्रेम्याशुरू होने तक) फोर्श्माक(खीमा-अनु.) (एक पकवान, जो नानू बना सकते हैं, और जिसे बनाना उन्हें पसंद है), बना लेंगे, इसलिए हमें किचन से बाहर निकल जाना चाहिए.

मगर मैं नहीं जाता, बल्कि नानू से कहता हूँ, कि न्यूज़ के बाद हम ताश खेलेंगे. और अगर उनका जी चाहे, तो वो मुझे प्रेफ़ेरान्सखेलना सिखा सकते हैं. ये होगी बढ़िया बात! वर्ना तो जब हमारे नाना-दादा खेलना शुरू करते हैं, साथ में व्लादिक के पापा और व्लादिक भी, तो मैं समझ ही नहीं पाता कि क्या करूँ. मगर अब, उम्मीद है, कि जब मैं सीख जाऊँगा तो आसानी से खेल सकूँगा.

 

 

 

 

 

उपसंहार

  

... मैं तोन्या नानी के साथ देर शाम को, करीब-करीब रात ही को समर कॉटेज से लौट रहे हैं. जून का महीना है. अंधेरा होने लगा है, हालाँकि इस समय सबसे लम्बे दिन होते हैं. गंधाती नदी को पार करके पहाड़ी से नीचे उतरते हैं और देखते हैं कि हमसे मिलने नानू आ रहे हैं, जो घर पे नहीं रुक सके, क्योंकि परेशान हो रहे थे: ख़बरों के प्रोग्राम व्रेम्यामें घोषित किया गया था, कि सबसे भयानक तूफ़ान आ रहा है. नानू ने कई बार कहा, कि हम पगला गए हैं, वर्ना ग्यारह बजे तक बगिया में न बैठे रहते, और जैसे ही नानी उन्हें जवाब देती, वो तूफ़ान आ ही गया. बिजली, कड़कड़ाहट, तूफ़ान, हर चीज़ थरथरा रही थी, और मुझे डर भी लग रहा था और ख़ुशी भी हो रही थी, और एक सेकण्ड बाद हमारे बदन पर कुछ भी सूखा नहीं बचा था.

मिलिट्री एरिया की संकरी पगडंडियों से होकर हम एक झुण्ड में भागते हैं; तोन्या नानी और नानू ठहाके लगा रहे हैं, ये देखकर कि मैंने कैसे अपनी सैण्डल्स उतारीं और मोज़े भी उतार दिए और डबरों में छप्-छप् कर रहा हूँ, और उन्हें हँसाने में मुझे खुशी भी हो रही है; मैं डान्स करने लगता हूँ और ज़ोर-ज़ोर से “डिस्को डान्सर” का अपना पसंदीदा गाना गाने लगता हूँ: “गोरों की ना कालों की-ई-ई! दुनिया है दिलवालों की. ना सोना-आ! ना चांदी-ई! गीतोंसे-ए, हम को प्या-आ-आ-र!!!” (गीत का मतलब इस तरह है – चाहे खाने-पीने के लिए हमारे पास पैसा न हो, मगर आज़ादी और गीत – यही मेरी दौलत है). जब हम अपने कम्पाऊण्ड में आ जाते हैं, तब भी मैं गाता रहता हूँ, मगर इतनी ज़ोर से, कि पडोसी भी खिड़कियों से झाँकने लगते हैं; मगर मुझे इससे कोई फ़रक नहीं पड़ता – बल्कि और ज़्यादा गाने और डान्स करने का मन करता है.

घर में हम यूडीकलोन से नहाएँगे, जिससे कि बाद में बीमार न हो जाएं, फिर हम पैनकेक्स खाएँगे, जिन्हें बनाने का परनानी नताशा ने सुबह ही वादा किया था, और कल होगा सण्डे, व्लादिक आएगा और हम पढ़ाई के अलावा कुछ और  चीज़ के बारे में सोचेंगे, जैसे बौनों का बिज़नेस करना या नॉवेल्स लिखना...

और कुछ महीनों बाद मैं हमेशा के लिए स्मोलेन्स्क से चला जाऊँगा, जहाँ ये सब हुआ था, जिसके बारे में मैंने आपको बताया है. एक नई ज़िंदगी शुरू होगी, नए हीरोज़ के साथ, नए कारनामों के साथ, जिनके बारे में मैं यहाँ नहीं बताना चाहता, क्योंकि उनके लिए दूसरी किताब की ज़रूरत है. हो सकता है, वो ज़्यादा गंभीर, ज़्यादा दुखी हो...और ये वाली, अगर ये हँसाने वाली, ख़ुशी देने वाली बनी हो, तो इसे यहीं ख़तम करना अच्छा है. उम्मीद करूँगा, कि दुबारा ऐसा वक्त आएगा, जब हम ख़ुशी-खुशी सिनेमा थियेटर्स में जाएँगे और इण्डियन फिल्म्स देखेंगे. तब मैं नए इण्डियन एक्टर्स से भी उसी तरह प्यार कर सकूँगा, जैसे मैंने मिथुन चक्रवर्ती और अमिताभ बच्चन से किया था, और फिर से बारिश में नंग़े पैर डान्स करते हुए, इण्डियन गाने गाऊँगा, पड़ोसियों को अचरज से अपनी-अपनी खिड़कियों से बाहर झाँकने दो और आश्चर्य करने दो – उसी तरह, जैसे कई साल पहले हुआ था...

 

 

 

 

परिशिष्ठ

 

 

                             

आन्या आण्टी और अन्य लोग...

( मेरी बिल्डिंग के कुछ लोगों के बारे में)

 

 

हमारी मंज़िल पर रहने वाली आन्या आण्टी को, मैं और मम्मा न जाने क्यों उसके सरनेम शेपिलोवा से ही बुलाते हैं. ये सरनेमउस पर एकदम फिट बैठता है, वो इस भली औरत की अच्छाई को गहराई से प्रकट करता है.

तो, वो खूब तेज़ और चतुर है, ऊँचाई करीब एक सौ सत्तावन से.मी थी (उसने ख़ुद ही बताया था), वो बेहद पतली थी; चंचल, तीखी, उत्सुक आँखें और बेहद मज़बूत, हालाँकि, पतले-पतले हाथ थे उसके. हाथ तो उसके वाकई में बेहद मज़बूत थे, क्योंकि वो हर रोज़ काफ़ी दूर से चीज़ों से, खाने पीने के सामान से और सब्ज़ियों से, और ख़ुदा जाने और भी किस किस चीज़ से भरे हुए बड़े-बड़े थैले लाती थी. ये सब किन्हीं आण्टियों के लिए, अंकल्स के लिए, दादियों और दादाओं के लिए, जो या तो उसके परिचित होते थे, या सिर्फ जान-पहचान वाले. आन्या आण्टी उनकी मदद करती है, क्योंकि वे “जीवन के कठिन हालात में हैं”.

वैसे मैं और मम्मा तो कठिन हालात में नहीं रहते हैं, मगर, शेपिलोवा की नज़र में, हमें भी मदद की ज़रूरत है, क्योंकि हम लगातार काम करते रहते हैं. और वह बाज़ार से हमारे लिए सब्ज़ियाँ, फल और हर वो चीज़ ले आती है, जिसकी, उसके हिसाब से हमें ज़रूरत होती है. पैसे हम, बेशक, देते हैं, मगर मैं पूरे समय सोचता हूँ कि ख़ुद भी, आमतौर से, बाज़ार जाकर खीरे और टमाटर ला सकता हूँ. मगर आन्या आण्टी कुछ और ही सोचती है:

“रचनात्मक प्रक्रिया के लिए सम्पूर्ण समर्पण और आंतरिक शक्तियों की बेहद एकाग्रता की ज़रूरत होती है!”

मतलब, हमारी पडोसन शेपिलोवा की राय में, अगर मैं दिन का कुछ हिस्सा कहानी या लघु उपन्यास लिखने में खर्च करता हूँ, तो बचे हुए समय में टमाटर खरीदने में कोई तुक नहीं है. मैं उससे बहस करता, मगर वो बिल्कुल फ़िज़ूल होता. आन्या आण्टी ज़िद्दी है, फ़ौलाद की तरह. किसी भी तरह से उसे मोड़ नहीं सकते. और अपनी बात वो हमेशा मनवा लेती है, चाहे कितनी ही बाधाएँ क्यों न आएँ.

मिसाल के तौर पर ये देखिए. कुछ दिन पहले मम्मा ने आन्या आण्टी से कहा कि वह उससे ऊनी जैकेट और कुछ और भी चीज़ें अपने ऐसे परिचितों के लिए ले ले जो बहुत अमीर नहीं हैं, जिन्हें ये उपयोगी लगें (ये तो आपको पता ही है, कि शेपिलोवा की ढेर सारे लोगों से पहचान है). मगर आन्या आण्टी को ख़ुद ही ये भूरा ऊनी जैकेट बहुत पसन्द आ गया. उसने फ़ैसला कर लिया कि उसे अपने लिए रख लेगी. और इतवार की सुबह, करीब साढ़े आठ बजे, मतलब, जब हम अभी सो ही रहे होते हैं, दरवाज़े की घण्टी बजती है.

“तानेच्का, ये मैं हूँ,” दरवाज़े के पीछे से शेपिलोवा चिल्लाती है.

मेरी मम्मा, जिनका नाम तान्या है, दरवाज़ा खोलती है.

“मैंने आपको जगा तो नहीं दिया??! नहीं? मैं अभी अभी बाज़ार से आई हूँ, ये रहे खीरे, टमाटर, संतरे, सेब, खट्टी कैबेज! ले लीजिए. और वो, भूरा वाला जैकेट, मैं अपने लिए रखना चाहती हूँ, चलेगा? मैं उसके लिए आपको पैसे देना चाहती हूँ. ज़रूर देना चाहती हूँ, क्योंकि वो चीज़ ऊनी है, बेशक महँगी और बढ़िया है!”

और कुछ भी कहने का मौका दिये बिना उसने एक हज़ार रूबल्स बढ़ा दिए, उस पुराने जैकेट के लिए, जिसकी मम्मा को बिल्कुल ज़रूरत नहीं थी, और उसके लिए शेपिलोवा से पैसे लेना बहुत बुरा होता.

“कैसे पैसे!” मम्मा को ताव आ गया. “आन्या! ये बात सोचो भी मत! मैंने यूँ ही वो सब दे दिया था, वो बिल्कुल ग़ैरज़रूरी चीज़ें हैं!”

“मगर जैकेट तो बेहद ख़ूबसूरत है!” अपमानित होकर आवाज़ चढ़ाते हुए आन्या आण्टी बहस पे उतर आई. “कम से कम पाँच सौ लीजिए!”

“नहीं!”

“तीन सौ!”

“नहीं!” मेरी मम्मा भी इस हमले से गड़बड़ा गई.

“एक सौ ले लीजिए, ख़ुदा के लिए!”

“बस, आन्या आण्टी,” मैं बीच में टपका. “ख़ुदा के लिए यहाँ से जाइए. आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.”

हताश होकर वो दरवाज़े की तरफ़ जाती है, मगर लैच घुमाने से पहले मुड़कर कहती है:

“कोई बात नहीं. मैं कोई और रास्ता निकालूँगी.” और सोच में डूबकर सिर हिलाती है.

 

दूसरे दिन शाम को एक बड़ा भारी, शायद एक लिटर का, लाल कैवियर का (स्टर्जन मछली के अण्डों का व्यंजन) डिब्बा लाती है, जिसके लिए इस धमकी से भी पैसे नहीं लेती, कि हमारी दोस्ती ख़तम हो जाएगी. इस कैवियर की कीमत, मेरे ख़याल से एक हज़ार से भी ज़्यादा होगी. आन्या आण्टी ने अपनी बात पूरी कर ली, और समझ सकते हैं कि उसने जैकेट की कीमत चुका दी...

 

...आन्या आण्टी की तरफ़ हम बाद में ज़रूर लौटेंगे, क्योंकि वो हमारी सबसे घनिष्ठ पड़ोसन है, ऐसा कह सकते हैं, और इसके अलावा वो इस कहानी की प्रमुख हीरोइन है. मगर मैं कुछ और हीरोज़ से आपको मिलवाना चाहता हूँ.

तीसरी मंज़िल का यारोस्लाव. ओह, ये आजकल की हाउसिंग-सोसाइटियों के नौजवानों ज्वलंत प्रतिनिधि है! रोमा ज़्वेर ने शायद अपना गीत “ गलियाँ-मुहल्ले”, ज़ाहिर है, रूसी गलियों और मुहल्लों के ऐसे ही निवासियों के लिए लिखा है...

यारोस्लाव – ईडियट है. निकम्मा नौजवान, ढेर सारी ख़तरनाक और, मैं तो कहूँगा, बेहद ख़तरनाक आदतें हैं उसकी, हमेशा ख़ुश रहता है, झगडालू और अपने कभी छोटे, तो कभी लम्बे बालों को इंद्रधनुष के अलग-अलग रंगों में रंगता है. वह उसी तरह के नौजवानों और लड़कियों के ग्रुप का सदस्य है, जिनमें से कुछ हमारी, और कुछ अगल-बगल की बिल्डिंग्स में रहते हैं, और ये ग्रुप, हमेशा रात के दस बजे के बाद हमारी मंज़िल की कचरे की पाइप के पास जमा होता है. ऐसा लगता है कि यारोस्लाव और उसके दोस्तों का किन्हीं ख़ास तबकों में अच्छा ख़ासा दबदबा है, क्योंकि मॉस्को के अलग अलग हिस्सों के निवासी अक्सर शाम को, हम सबके लिए मुसीबत बनकर हमारी बिल्डिंग में आ धमकते हैं, जिससे अच्छी तरह वक्त  बिता सकें.

रात के करीब दो बजे तक बिल्डिंग में शोर-गुल होता रहता है, हँसी और चीखें सुनाई देती हैं. नौजवान और लड़कियाँ जीवन के प्रवाह में बहते रहते हैं. बिल्डिंग में रहने वाले, जिनमें मैं भी शामिल था, पहले तो सुकून और ख़ामोशी के लिए लड़ने की कोशिश करते थे, मगर फिर रुक गए. पहली बात, इसलिए कि ये बिल्कुल फ़िज़ूल था, और दूसरे, इसलिए, कि यारोस्लाव और उसके दोस्त सिर्फ चिल्लाने वाले और खिड़कियाँ तोड़ने वाले डाकू बदमाश ही नहीं थे. मतलब, खिड़कियाँ वो बेशक तोड़ते थे, और हमारी दूसरी मंज़िल का काँच बेतहाशा मार खाकर कई बार चटक कर उड़ चुका है, मगर अचरज की बात ये है, कि बाद में यारोस्लाव और उसका पक्का दोस्त वाल्या च्योर्नी बिना भूले उसे फिट कर देते थे. ऊपर से, अपनी बैठक के बाद सुबह यारोस्लाव कचरे के पाइप के पास झाडू लेकर आता और सब कुछ अच्छी तरह साफ़ कर देता. और कुछ दिन पहले तो इसका उलटा ही हुआ: रात भर धमाचौकड़ी मचाने के बाद, उन लोगों से हुए हंगामे के बाद, जो रात में इन खुशी और बदहवासी से मचल रहे नौजवानों को शांत करने आये थे, यारोस्लाव ने सुबह-सुबह बाहर निकल कर बिल्डिंग के प्रवेश द्वार के पास वाली खिड़की पे बियर का डिब्बा, या ऐसी कोई चीज़ नहीं, बल्कि गमले में लगा हुआ सचमुच का फूल रख दिया! ये वाकई में “धूल का फूल” था!

फूल तो, कहना पड़ेगा, कि काफ़ी अजीब था, और यारोस्लाव ने उसे कहाँ से ढूँढ़ा था – पता नहीं. वो, कुछ भद्दा सा था, या तो मुरझाया हुआ था, या फिर उसे चबाया गया था, किसी पुराने गमले में लगा था, मगर पूरी तरह ताज़ा था और खिल रहा था, बगैर किसी ओर ध्यान दिए. खिल रहा था! जब मैंने एक बार देखा कि यारोस्लाव फूल को पानी भी दे रहा है, तो मुझे ज़रा भी गुस्सा नहीं आया. बात एकदम सही है, न जाने कैसे-कैसे कूड़े-करकट के ढेर में सुंदरता अपना बसेरा ढूँढ़ लेती है!

मैं और यारोस्लाव एक दूसरे को सिर्फ हैलो कहते हैं, इससे हमारा संवाद सीमित हो जाता है. उस समय मैंने उससे फूल के बारे में कहा था, कि, ज़ाहिर है, सिर्फ वही बिल्डिंग को ऐसा बना देता है, कि घुसने में डर लगे, और फिर वहाँ फूल लगा देता है, मगर यारोस्लाव ने मुस्कुराकर चिल्लाते हुए, काफ़ी गहरे अंदाज़ में कहा: “बिज़ पालेवा” – बस ऐसा हो था वो. (एक लोकप्रिय गीत के बोल, इन शब्दों का अर्थ है, “बिना ढोल बजाए, निरर्थक”). इन शब्दों का क्या मतलब है, मैं समझ नहीं पाया, हालाँकि, ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ, कि कुछ देर तक उनके असली मतलब के बारे में सोचता रहा...

कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि बिल्डिंग में शांति है, और शेपिलोवा भी न कुछ ला रही है, न कोई सुझाव दे रही है. तब हो सकता है, कि अचानक फोन बजने लगता है. और रिसीवर में, जब आप उसे उठाते हो, तो उत्तेजित, ज़ोर की, जैसे कम से कम कहीं आग लगी है, एक औरत की, भर्राई हुई आवाज़ कहती है:

“तो! (विराम) तो! तो!”

ये प्रकट हो रही है मेरी अगली हीरोइन, जिसका नाम आपको जल्दी ही पता चल जाएगा.

“हैलो,” आप कहते हैं, “कौन बोल रहा है?”

कोई प्रतिक्रिया नहीं, उल्टे – मेरे सवाल का सवालिया जवाब मिलता है.

“मैं किससे बात कर रही हूँ? कौन हैं आप? मैं किस नंबर पे आ गई?!”

“आपको कौन चाहिए?” मैं पूछता हूँ.

फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं. रिसीवर रख देने को जी चाहता है, मगर उसमें फिर से और ऊँची, परेशान आवाज़ में पूछा जाता है:

“क्या ये तान्या का बेटा है?! सिर्गेइ?!”

“हाँ, मैं,” मैं कहता हूँ.

“सेब!!!” रिसीवर में ज़ोर से चिल्लाते हैं.

मालूम नहीं, कि क्या प्रतिक्रिया देना चाहिए, मगर फिर कहता हूँ, कि अच्छा है, कि सेब हैं.

“खूब सारे सेब हैं!!!”

“बहुत अच्छा,” मैं कहता हूँ.

“ये,” पहले ही की तरह उत्तेजित-परेशानी से रिसीवर जानकारी देता है, “ल्येना विदूनोवा है, तीसरी मंज़िल वाली, ऊपर वाली पडोसन! किसी ने मेरे शौहर को दो बैग्स भर के सेब दिए हैं. उन्हें खा नहीं सकते. टूटे-टूटे हैं! मुरब्बे के लिए!!! आधे ले लो!!!”

कह ऐसे रही है, कि साफ़ पता चल रहा है: अगर नहीं लूँगा, तो कोई भयानक बात हो जाएगी, क्रांति जैसी. उससे पूछने का खूब मन हो रहा था, कि इतनी बदहवास क्यों है. मगर पूछना बेकार है: ल्येना विदूनोवा – दुबली-पतली, लम्बी, अधेड़ उम्र की  औरत है, और वो हमेशा बदहवास ही रहती है. चाहे कहीं भी जा रही हो, किसी से भी बात कर रही हो – वो हर काम इस तरह करती है, मानो युद्ध चल रहा हो, और हम सबके चारों ओर दुश्मन का मज़बूत घेरा पड़ा हो.

मैं, बेशक, थैन्क्यू कहता हूँ, मगर ये ज़रूरी नहीं है.

“बढ़िया! अभी सिर्गेइ लेकर आयेगा!”

और उसका शौहर सिर्गेइ, मेरा हमनाम, टूटे हुए सेबों की थैली लाता है, और साथ ही तीन सौ रूबल्स भी देता है, जो ल्येना ने करीब सात महीने पहले मुझसे तीन दिनों के लिए उधार लिए थे.

“थैन्क्यू!” मैं कहता हूँ और चुपचाप सेबों को किचन में ले जाता हूँ.

अब मैं और मम्मा हमेशा ओवन में सेब पकाते हैं और उन्हें शक्कर के साथ खाते हैं.          

 

और हमारी बिल्डिंग की छठी मंज़िल पे कुत्तों वाली अक्साना रहती है. कुत्तों वाली – इसलिए, कि ऐसा एक भी बार नहीं हुआ, कि चाहे दिन हो या रात, गर्मियाँ हों या सर्दियाँ, मैं घर से बाहर निकला और कुत्ते के साथ घूमती हुई अक्साना से न मिला होऊँ. और हर बार वो अलग-अलग कुत्तों के साथ घूमती है. उसके सारे कुत्ते छोटे हैं, घर के भीतर रहने वाले हैं, मगर बेहद गुस्सैल हैं और हमेशा भौंकते रहते हैं. वो कुत्ते क्यों बदलती है? इसलिए कि अक्साना के पास एक ही कुत्ता ज़्यादा दिन नहीं रहता. पहले, करीब दो साल पहले, उसके पास विकी था, लाल बालों वाला. उसने भौंक-भौंककर पूरी बिल्डिंग को हैरान कर दिया और मर गया.

“बीमार हो गया था,” अक्साना ने कहा.

फिर आया एक काला कुत्ता, वैसा ही जैसा विकी था, मगर इसका नाम था जस्सी. अक्साना के हाथ से छिटक कर बिल्डिंग के पीछे भागा, हमारी बिल्डिंग रास्ते की बगल में ही है, और कार के नीचे आ गया. अब अक्साना के पास है बेली. सफ़ेद है, काले धब्बों वाला. ये भी ऐसा भौंकता है, जैसे किसी ने उसे घायल कर दिया हो.       

ठण्ड के दिनों में अक्साना अपने कुत्तों को ख़ास तरह के कोट पहनाती है, जिससे कि उन्हें ठण्ड न लगे. मगर कुत्तों के अलावा अक्साना इस बात के लिए भी मशहूर है, कि उसे हमारी बिल्डिंग के हर इन्सान के बारे में सब कुछ मालूम है.

“नौंवीं मंज़िल वाली दीना को लड़की हुई है.”

“फ़ेद्या पलेताएव मर गया.”

“वेरा तरासोवा पर मुकदमा चलेगा.”

मैं तो अक्सर ये ही समझ नहीं पाता हूँ, कि वो किसके बारे में बता रही है, मगर कोई प्रतिक्रिया तो देनी ही होती है. ख़ैर, किसी तरह कुछ कह देता हूँ, हमेशा नहीं, शायद, कभी कभार.    

मगर अक्साना से मेरी बातचीत अक्सर इस बात पर आकर रुक जाती है, कि मेरी शादी हुई है या नहीं, और मैं कब शादी करने वाला हूँ. पहले ये सवाल मुझसे अक्साना की मम्मी ताइस्या ग्रिगोरेव्ना अक्सर पूछती थी. मगर बाद में ताइस्या ग्रिगोरेव्ना के पैरों में दर्द रहने लगा, और उसने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया. इसलिए, अब उसकी जगह अक्साना ने ले ली है.

स्टोर में जाता हूँ, वहाँ कुछ ख़रीदता हूँ और घर वापस लौटता हूँ. आन्या आण्टी फोन करती है.

“सिर्योझ, चाय पीने आ जा! चीज़-पैनकेक बनाया है!”

ख़ुशी-ख़ुशी जाता हूँ, क्योंकि मैं यहाँ चाहे जो भी कहूँ, आन्या आण्टी से मैं बहुत अच्छी तरह बर्ताव करता हूँ...

आन्या आण्टी को अपने चारों तरफ की दुनिया में बेहद दिलचस्पी है, जो टी.वी. के पर्दे पर सबसे अच्छी तरह दिखाई जाती है, और साप्ताहिक अख़बार “आर्ग्युमेन्ट्स एण्ड फैक्ट्स” के पन्नों पर.

जब मैं चाय पी रहा होता हूँ, आन्या आण्टी के चारों टी.वी. चल रहे होते हैं, एक-एक कमरे में एक-एक टी.वी और किचन में भी. उन पर अलग अलग चैनल्स चल रहे हैं, वॉल्यूम काफ़ी तेज़ है, क्योंकि शेपिलोवा ऊँचा सुनती है. मगर ख़ुद आन्या आण्टी इस समय संकरे कॉरीडोर में फोन पर बात कर रही होती है:

“हाँ, वालेच्का, सिर्फ कड़े गद्दे पर सोना चाहिए! क्या?!”

“उच्कुदू-ऊक, तीन कुँए!” किचन का टी.वी. गा रहा है.

“फिर रूस में साल के शुरू से शरणार्थियों का आना कम नहीं होगा, इस बात पर भी, निःसंदेह ध्यान देने की ज़रूरत है,” हॉल वाला टी.वी. सूचना दे रहा है.

“हाँ, हाँ!” आन्या चिल्लाती है. “और सिर्फ बिना तकिए के!”

“इसाउल, इसाउल, घोड़े को क्यों छोड़ा!” कॉरीडोर से सटे, छोटे कमरे वाला टी.वी. लगातार ऊँची आवाज़ में अपने बारे में याद दिला रहा है.

“वालेच्का, क्या?! नहीं, ज़रूरत नहीं है! और ज़्यादा घूमना फिरना चाहिए! गति ही - जीवन है! वालेच्का, तेरी आवाज़ बिल्कुल सुनाई नहीं दे रही है!”

फिर जब बातचीत ख़त्म हो जाती है, चाय पी चुकी होती है, तो पता चलता है, कि मुझे मुर्गी-आलू ज़रूर खाना पडेगा (अपने अनुभव से मैं जानता हूँ, कि जब तक आन्या की पेश की हुई हर चीज़ खा नहीं लोगे, उसके घर से बाहर नहीं निकल सकते). मैं खाता हूँ, और शेपिलोवा हॉल में बड़ी गोल मेज़ के पास बैठ कर, साप्ताहिक अख़बार “आर्ग्युमेन्ट्स एण्ड फैक्ट्स” के ऊपर रंगबिरंगा पेन लेकर झुकी होती है. आन्या सिर्फ यही अख़बार पड़ती है, और न जाने अपने किसी सिद्धांत के तहत कुछ और नहीं पढ़ती. मैंने उसे हमारी मशहूर हस्तियों के जीवन के बारे में, प्रकृति के दिलचस्प तथ्यों के बारे में, वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में अलग-अलग तरह की किताबें प्रेज़ेंट कीं, मगर मैंने ग़ौर किया कि उन सबका ढेर किचन में बेसिन के पास रखा है, फेंकने के लिए, या उनका इसी तरह का कुछ करने के लिए. “आर्ग्युमेन्ट्स एण्ड फैक्ट्स” आन्या को वो दूर दराज़ की जानकारी देता था, जो उसकी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी है.              

 

विसोत्स्की के बारे में लेख, जिससे उसके बारे में फ़िल्म “विसोत्स्की. थैन्क्यू फॉर बीइंग अलाइव” रिलीज़ होने के बाद बचना मुश्किल था. एक छोटा सा लेख, इस बारे में, कि दोस्तों, चाहने वालों की भीड़ में भी वह भीतर से अकेला था, लाल रंग की तिहरी लाइन से रेखांकित किया जाता है. इस बारे में जानकारी को, कि रीढ़ की हड्डी को सहारा देने के लिए कड़े गद्दे पर, और जहाँ तक संभव हो, बिना तकिए के सोना चाहिए, पूरी तरह हरे रंग से पोत दिया गया था. गाल्किन की फोटो के चारों ओर, न जाने क्यों, काला घेरा बना दिया गया था. संक्षेप में कहूँ तो, सचमुच का संपादन चल रहा था, अगर इसे रचनात्मक काम न कहें तो! बाद में इस सबकी कतरनें काटी जाती हैं और तीसरे, सबसे छोटे कमरे में एक छोटी सी मेज़ पर गड्डियाँ बनाकर रख दी जाती हैं.    

अख़बार की महत्वपूर्ण जानकारियों को अलग-अलग रंगों से रेखांकित करने और उनकी कतरनें काटने के इस थका देने वाले काम से निपटकर आन्या आण्टी ज़िद करती है कि मैं कल उसके साथ थियेटर जाऊँ. थियेटर मुझे बहुत अच्छा तो नहीं लगता, किसी तरह मैं इनकार कर देता हूँ, मगर आन्या की इस पेशकश से जुड़ी एक और बात बताना चाहता हूँ.

मेरी प्यारी, बढ़िया मेहमाननवाज़ी करने वाली पड़ोसन को थियेटर्स और कॉन्सर्ट्स जाना बहुत अच्छा लगता है. वहाँ, जब शो चल रहा होता है, तो वो ज़रूर सो जाती है, क्योंकि अपनी तूफ़ानी गतिविधियों से वो बेहद थक जाती है, ऊपर से नींद न आने की शिकायत भी रहती है. मगर इससे उसे बाद में शो के बारे में बताने में कोई बाधा नहीं पड़ती, वह मज़े से बताती है कि शो कितना मज़ेदार था और उसे हर चीज़ कितनी पसंद आई थी, म्यूज़िक भी, और ड्रेसेज़ भी. आन्या आण्टी को हर शो अच्छा लगता है, जो वो देखती है. बस एक बार, जब उसे शोपसंद नहीं आया था, ‘बल्शोय थियेटर में हुआ था, जहाँ “कार्मेन” दिखाया जा रहा था. उसे इस बात पर बेहद गुस्सा आया, कि पुराने ढंग की पोषाकों के बदले, कलाकारों ने किसी किसी दृश्य में स्विमिंग सूट पहने थे. लगता है, ‘बल्शोयथियेटर में किसी वजह से वह सो नहीं पाई थी...

आन्या आण्टी के घर से निकलता हूँ, भरपेट खाकर और तरह-तरह के ख़यालों से भरा हुआ, और खिड़की के पास कचरे की पाइप के पास से यारोस्लाव जोश से कहता है “ग्रेट!”. वहाँ काफ़ी लोग जमा थे.

“नमस्ते,” मैं जवाब देता हूँ.

मुझे अचरज होता है, कि नीचे से कुत्ते वाली अक्साना, अपना सवाल लिए, कि मैं कब शादी कर रहा हूँ, नहीं आ रही है...

हाल ही में मुझे काफ़ी लम्बे समय के लिए दूसरे शहर जाना पड़ा था. वापस लौटने के बाद मेरे मन में ख़याल आया कि चिल्लाते हुए टी.वी., शाम की उत्तेजित टेलिफ़ोन की “तो!”, यारोस्लाव और अक्साना के कुत्तों के बिना मैं बोरहो गया था. मैं समझ गया कि ये सब लोग उससे भी ज़्यादा मुझे प्यारे हैं, जितने की मैं कल्पना करता था, और मैंने उनके बारे में कहानी लिखने का फ़ैसला किया.

स्टेशन से घर आने के बाद कोई कमी मुझे खटक रही थी, जब तक आन्या ने दरवाज़े की घण्टी बजाकर ये नहीं कहा, कि कल बाज़ार में मश्रूम्स का अचार खरीदने जाएँगे. मैं कचरे की बाल्टी रखने बाहर निकला, और यारोस्लाव ने प्रॉमिस किया कि कल ही वो और च्योर्नी मिलकर टूटा हुआ काँच लगा देंगे, जो अभी-अभी च्योर्नी के सिर की मार से टूट गया था, इस टूटे हुए काँच के बीच से मैंने अक्साना को देखा, जो अपने बेली को बुला रही थी, और ल्येना विदूनोवा को भी देखा, जो स्टोर्स से सामान का हरा थैला ला रही थी. “सब ठीक है,” मैंने अपने अंदर की आवाज़ सुनी, “ तू घर पहुँच गया है”.

और अप्रैल-मई में, जब गर्मी पड़ने लगेगी, अक्साना और ल्येना शाम को हमारी बिल्डिंग के पास वाली छोटी सी बेंच पर बैठा करेंगी और, मुझे देखते ही, ज़िद करेंगी कि मैं गिटार लाकर बजाऊँ. मैं बजाऊँगा, और तब अक्साना सोच में डूबकर कहेगी:

“क्या गाता है! – और अब तक शादी नहीं हुई!”

मेरे दिल में ये ख़याल आया कि, वाकई में, ऐसा सोचना सही नहीं है, मगर मई की हवा इस ख़याल को हरे-हरे कम्पाऊण्ड्स की गहराई में ले जाती है, और वो वहीं खो जाता है, कभी वापस न लौटने के लिए, जैसे कभी मन में आया ही नहीं था....

 

 

 

 

 

 

 

 

लेखक की ओर से..... 

अत्यंत दुःख के साथ सूचित करते हुए कि श्री सिर्गेइ पिरिल्याएव की जनवरी 2021 में अचानक मृत्यु हो गई, उनका अपना निवेदन प्रस्तुत कर रही हूँ – अनुवादक) 

    

मेरा जन्म मशहूर हीरो-सिटी स्मोलेन्स्क में सन् 1978 में हुआ और मैं वहाँ सितम्बर 1985 तक रहा. स्मोलेन्स्क में करीब-करीब मेरे सारे रिश्तेदार रहते थे, ममा की तरफ़ से और पापा की तरफ़ के भी.

चूँकि मेरे मम्मा-पापा काम करते थे (पापा फ़ौज में थे, और मम्मा रेडिओ स्टेशन पर), और मैं नर्सरी स्कूल में जाता था, जहाँ मैं अक्सर बीमार हो जाता था, इसलिए लम्बे समय तक मैं अपने नानू-नानी के पास ही रहा. इसीलिए मेरे इस लघु उपन्यास में नानी की, परनानी की, और नानू की कहानी आई है. और व्लादिक – मेरा मौसेरा भाई है – मम्मा की बहन, स्वेता आण्टी का बेटा. उनका परिवार भी स्मोलेन्स्क में रहता था.  और वैसे, मेरी कहानियों के बाकी पात्र भी वास्तविक हैं – वे या तो उस समय हमारे कम्पाऊण्ड में रहा करते थे, या मेरे रिश्तेदारों के दोस्त थे. मैंने कोई भी काल्पनिक चीज़ नहीं लिखी है.

स्मोलेन्स्क उन दिनों एक ख़ामोश, हरियाली से लबालब शहर था, जिसमें, बुढ़ापे के कारण चरमराती हुई ट्रामगाड़ियाँ घिसटती थीं. सामूहिक फार्म के बाज़ार में हमारे मनपसंद बीज, तरबूज़ और चेरीज़ बिकते थे, और शहर के सिनेमाघरों में अलग-अलग तरह की, नई और पुरानी इण्डियन फिल्में दिखाई जाती थीं...

आज जब उस समय को मैं याद करता हूँ, तो वो मुझे जन्नत के समान लगता है, जिसे, मैं सोचता हूँ, कि कभी नहीं भूल पाऊँगा. हमारे मॉस्को आने के बाद भी, करीब सन् 1994 तक मैंने अपनी सारी छुट्टियाँ और पूरी गर्मियाँ स्मोलेन्स्क में ही बिताईं, इस जन्नत के एहसास को लम्बा करने की कोशिश में, क्योंकि वहीं मेरी असली ज़िंदगी थी. किसी और शहर और देश ने मुझे कभी आकर्षित नहीं किया, जैसे मैं कोई, इस लब्ज़ का इस्तेमाल करने से मैं डरूँगा नहीं, वहीं पर सीमित होकर रह गया था. सन् 1998 में मेरे नानू गुज़र गए ( वो ही इण्डियन फिल्म्सवाले लघु उपन्यास के पर्तोस), और जन्नत का एहसास लुप्त हो गया. मैं स्मोलेन्स्क जाता रहा, मगर ये अलग ही तरह की यात्रा होती थी.

सन् 2005 में मैंने मॉस्को स्टेट युनिवर्सिटी से जर्नलिज़्म का कोर्स पूरा किया, पहले एक प्रकाशन गृह में काम किया, फिर रेडिओ पे, मगर साथ ही मेरी ज़िंदगी में लेखकों के लिए सेमिनार्स भी होते रहे, मेरी अपनी रचनाएँ छपती रहीं, अपनी कहानियों और गीतों को भी तरह-तरह की पब्लिक के सामने प्रस्तुत करता रहा – (वैसे तो मैंने बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था, मगर बात एकदम बनी नहीं). मेरे लिए ख़ास तौर से मुश्किल था लेखिका मरीना मस्क्विना से, कवियत्री एवम् अनुवादक मरीना बरदीत्स्काया से, कवियत्री तात्याना कुज़ोव्लेवाया से, आलोचक इरीना अर्ज़ामास्त्सेवाया से, कवियत्री और नाटककार एलेना इसायेवा से, और बेशक एडवर्ड निकोलायेविच उस्पेन्स्की से बातचीतकरना). एडवर्ड उस्पेनस्की द्वारा मेरी रचनाओं की तारीफ़ किए जाने के बाद मुझे विश्वास हुआ कि मैं लेखक हूँ. मैं इरीना युरेव्ना कवाल्योवा को, जो लीप्की में आयोजित नौजवान लेखकों के मंच के संयोजकों में से एक हैं, जिसमें मैंने सन् 2004 में भाग लिया था, उनके विशेष प्यार भरे बर्ताव के लिए और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ.

मैंने ख़ास तौर से बच्चों के लिए लिखने की कोशिश नहीं की – बस, जो जी में आया, लिखता रहा, बल्कि बड़ों के ही लिए लिखता रहा. मगर, इसके बावजूद, मुझे बच्चों का लेखक समझने लगे. ठीक है, मैं विरोध नहीं करता.

तहे दिल से उन सबका शुक्रिया अदा करता हूँ, जो इस किताब को पढेंगे. और उन्हें, जिनको ये पसंद आएगी, ख़ुशी से अपना दोस्त समझूँगा.

हमेशा आपका

सिर्गेइ पिरिल्याएव                    

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