सिर्योझा
लेखिका
वेरा पनोवा
अनुवाद
आ.
चारुमति रामदास
@ आ. चारुमति रामदास
श्रीमति वेरा पनोवा के उत्तराधिकारियों से संपर्क
करने के सभी प्रयास किए गए. यदि भविष्य में उनका पता चला तो उनसे अनुमति ले ली
जायेगी.
दो शब्द
वेरा फ़्योदरव्ना पनोवा ( 1905-1973) द्वारा लिखित “सिर्योझा” एक छोटे बालक
की आँखों से आसपास की दुनिया को देखने का अनुभव है.
बच्चे की मानसिकता को समझने के लिये उसी के स्तर पर जाना होता है, इस बात को वेरा पनोवा अत्यंत रोचक ढंग से दर्शाती हैं.
सिर्योझा बहुत छोटा बालक है, युद्ध में उसके पिता वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं. अपने आसपास के वातावरण से, लोगों
से,
अजनबियों से, अच्छे व्यक्तियों से, बुरे
व्यक्तियों से सिर्योझा बहुत कुछ सीखता है.
मन में कोई पूर्वाग्रह लाये बिना वह अपने नये पिता को
समझने की,
सावधानी से उसके निकट जाने
की कोशिश करता है.
देखते-देखते सिर्योझा के सभी साथी स्कूल जाने लगते
हैं. सिर्योझा भी अपने माता-पिता के साथ दूसरे शहर जाता है, वहाँ उसे स्कूल में जाना है, नई चुनौतियों का सामना करना है...वह इस सबके लिये
तैयार है.
ऐसे समझदार और वीर बालक की आँखों से वेरा पानवा
तत्कालीन समाज के ही दशन कराती हैं – अत्यंत सरल और प्रभावपूर्ण भाषा में.
उपन्यास पढ़ते हुए आप सिर्योझा से प्यार करने लगेंगे!
आ. चारुमति रामदास
अध्याय 1
कौन है ये सिर्योझा
और वह कहाँ रहता है?
कहते हैं कि वह लड़की जैसा है. ये तो सरासर
मज़ाक हुआ! लड़कियाँ तो फ्रॉक पहनती हैं, मगर सिर्योझा ने तो कब का फ्रॉक पहनना छोड़
दिया है. क्या लड़कियों के पास गुलेल होती है? मगर सिर्योझा के पास तो गुलेल है,
उससे पत्थर मार सकते हैं. गुलेल उसे शूरिक ने बनाकर दी थी. इसके बदले में सिर्योझा
ने शूरिक को अपनी सारी डोरों की रीलें दे दी थीं जिन्हें वह अपनी पूरी ज़िन्दगी
इकट्ठा करता रहा था.
मगर, इसमें उसका क्या कुसूर कि उसके बाल
ही ऐसे हैं; कितनी ही बार मशीन से काटे; सिर्योझा बेचारा चुपचाप बैठा रहता है,
तौलिए से ढँका हुआ, और आख़िर तक बर्दाश्त करता रहता है; मगर वे हैं कि फिर से बढ़
जाते हैं.
मगर है वह होशियार, सभी ऐसा कहते हैं. ढेर
सारी किताबें उसे ज़ुबानी याद हैं. दो-तीन बार किताब पढ़कर सुना दो, और बस, उसे याद
हो जाती है. उसे अक्षर भी मालूम हैं - मगर ख़ुद पढ़ने में बहुत देर लगती है. किताबें
रंगबिरंगी पेंसिलों से पूरी रंग गईं हैं, क्योंकि सिर्योझा को तस्वीरों में रंग
भरना अच्छा लगता है. तस्वीरें चाहे रंगीन ही क्यों न हों, वह अपनी पसन्द से उनमें
दुबारा रंग भरता है. किताबें ज़्यादा देर तक नई नहीं रहतीं, उनके टुकड़े-टुकड़े हो
जाते हैं. पाशा बुआ उन्हें करीने से लगाती है, सीती है और किनारों से फट गए पन्नों
को चिपकाती है.
कभी कोई पन्ना गुम हो जाता है – सिर्योझा
उसे ढूँढ़ने लगता है और तभी चैन लेता है जब उसे खोज लेता है: अपनी किताबों से वह
बहुत प्यार करता है, हालाँकि उनमें लिखी बातों पर दिल से भरोसा नहीं करता. कहीं
जानवर भी बातें करते हैं; और कालीन-हवाई जहाज़ उड़ नहीं सकता क्योंकि उसमें इंजिन ही
नहीं होता, ये तो हर बेवकूफ़ जानता है.
और कोई उन बातों पर भरोसा करे भी तो कैसे,
जब चुडैल के बारे में पढ़कर सुनाते हैं और फ़ौरन ये भी कह देते हैं कि , ‘मगर,
सिर्योझेन्का, चुडैलें होती ही नहीं हैं.’
मगर, फिर भी, उससे बर्दाश्त नहीं होता जब
वो लकड़हारा और उसकी बीबी धोखे से अपने बच्चों को जंगल में ले जाते हैं, जिससे वे
रास्ता भूल जाएँ और कभी भी लौटकर घर न आ सकें. हालाँकि अंगूठे वाले लड़के ने उन
सबको बचा लिया , मगर ऐसी बातों के बारे में सुनना मुश्किल है. सिर्योझा इस किताब
को पढ़कर सुनाने की इजाज़त नहीं देता.
सिर्योझा अपनी माँ, पाशा बुआ और लुक्यानिच
के साथ रहता है. उनके घर में तीन कमरे हैं. एक में सिर्योझा माँ के साथ सोता है,
दूसरे में पाशा बुआ और लुक्यानिच और तीसरा कमरा है – डाइनिंग रूम. जब मेहमान आते
हैं तो डाइनिंग रूम में खाना खाते हैं, और जब मेहमान नहीं होते तो किचन में. इसके
अलावा टेरेस है, और आँगन भी. आँगन में मुर्गियाँ हैं. दो लम्बी-लम्बी क्यारियों
में प्याज़ और मूली लगी हैं. मुर्गियाँ क्यारियाँ न खोद दें, इसलिए उनके चारों ओर
कंटीली सूखी टहनियाँ लगी हैं; और जब भी सिर्योझा को मूली तोड़नी पड़ती है, ये काँटे
ज़रूर उसके पैरों को खुरच देते हैं.
कहते हैं कि उनका शहर छोटा-सा है.
सिर्योझा और उसके दोस्तों का मानना है कि ये गलत है. बड़ा ही है शहर. उसमें दुकानें
हैं, वाटर-टॉवर है, स्मारक हैं, सिनेमाघर भी है. कभी-कभी माँ सिर्योझा को अपने साथ
सिनेमा ले जाती है. “मम्मा”, जब हॉल में अँधेरा हो जाता है तो सिर्योझा कहता है,
“अगर कोई समझने वाली बात हो तो मुझे बताना.”
सड़कों पर कारें दौड़ती हैं. ड्राईवर
तिमोखिन बच्चों को अपनी लॉरी में घुमाने ले जाता है. मगर, ऐसा कभी-कभी ही होता है.
ये तभी होता है जब तिमोखिन ने वोद्का नहीं पी हो. तब उसकी नाक-भौंह चढ़ी रहती हैं,
वो बात नहीं करता है, सिगरेट पीता रहता है, थूकता रहता है, और सबको घुमा देता है.
मगर जब वह ख़ुशी में गुज़रता है – तो उससे पूछना भी बेकार है, कोई फ़ायदा नहीं होगा :
हाथ हिलाएगा खिड़की से और चिल्लाएगा: “नमस्ते, बच्चों! आज मुझे नैतिक अधिकार नहीं
है! मैंने पी रखी है!”
जिस सड़क पर सिर्योझा रहता है, उसका नाम है
दाल्न्याया (दाल्न्याया- दूरस्थ-अनु.) . सिर्फ नाम ही है दाल्न्याया: वैसे
तो सभी कुछ उसके पास ही है. चौक तक – क़रीब दो किलोमीटर, वास्का कहता है. और सव्खोज़
(सव्खोज़ – सोवियत फ़ार्म – अनु.) ‘यास्नी बेरेग’ तो और भी पास है, वास्का
कहता है.
’यास्नी बेरेग’ सव्खोज़ से ज़्यादा
महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है. वहाँ लुक्यानिच काम करता है. पाशा बुआ वहाँ हैरिंग
मछली और कपड़े ख़रीदने जाती है. माँ का स्कूल भी सव्खोज़ में है. त्यौहारों पर
सिर्योझा माँ के साथ सुबह के प्रोग्राम में जाता है. वहाँ उसकी पहचान लाल बालों
वाली फ़ीमा से हुई. वह बड़ी है, आठ साल की. उसकी चोटियाँ कानों पर 8 के अंक की तरह
होती हैं, और चोटियों में रिबन लिपटॆ रहते हैं, फूल की तरह : या तो काले रिबन, या
नीले, या सफ़ेद, या भूरे; फ़ीमा के पास कई सारे रिबन हैं. सिर्योझा का तो ध्यान ही
नहीं जाता, मगर फ़ीमा ने ख़ुद ही उससे पूछा, “तूने ध्यान दिया, मेरे पास कितने सारे
रिबन हैं”
अध्याय 2
ज़िन्दगी की मुश्किलें
ये उसने अच्छा किया जो पूछ लिया. वर्ना क्या हर
चीज़ पे ध्यान दे सकते हो? सिर्योझा को अच्छा ही लगता, मगर ध्यान ही तो बस नहीं
होता ना. चारों ओर इतनी सारी चीज़ें हैं. दुनिया ठसाठस भरी है चीज़ों से. दीजिए हर
चीज़ पर ध्यान!
क़रीब-क़रीब सारी चीज़ें बहुत बड़ी हैं:
दरवाज़े, ऊफ़, कितने ऊँचे-ऊँचे, लोग (बच्चों को छोड़कर) लगभग उतने ही ऊँचे हैं, जितने
दरवाज़े. लॉरी की तो बात ही मत करो; कम्बाईन की भी; इंजिन की भी, जो ऐसी सीटी बजाता
है कि बस उसकी सीटी को छोड़कर कुछ और सुनाई ही नहीं देता.
आम तौर से – ये सब इतना ख़तरनाक नहीं है:
लोग सिर्योझा से अच्छी तरह पेश आते हैं, अगर ज़रूरत पड़े तो उसके लिए झुक जाते हैं,
और कभी भी अपने भारी-भरकम पैरों से उसके पैर नहीं कुचलते. लॉरी और कम्बाईन भी
ख़तरनाक नहीं हैं, अगर उनका रास्ता न काटो तो. इंजिन तो दूर है, स्टेशन पर, जहाँ
सिर्योझा दो बार तिमोखिन के साथ गया था. मगर आँगन में एक जंगली जानवर घूमता रहता
है. उसकी गोल-गोल, शक भरी, निशाना साधती आँख, तेज़-तेज़ साँस लेता थैली जैसा
भारी-भरकम गला, पहिए जैसा सीना और फ़ौलादी चोंच है. वह जानवर रुक जाता है और अपने
कँटीले पैर से ज़मीन कुरेदता है. जब वह गर्दन तान लेता है तो सिर्योझा जितना ऊँचा
हो जाता है. और वह सिर्योझा को भी उसी तरह चोंच मार सकता है, जैसे पड़ोस के जवान
मुर्गे को मारी थी, जो बेवकूफ़ी से उड़कर आँगन में आ गया था. सिर्योझा इस खून के प्यासे जानवर की बगल से
निकल जाता है, ऐसा दिखाते हुए कि उसे देख ही नहीं रहा है – मगर जानवर, अपनी लाल
कलगी को तिरछा करते हुए गले से कुछ धमकी भरी बात कहता है, उसकी सतर्क, दुष्ट नज़र
सिर्योझा का पीछा करती है...
मुर्गे चोंच मारते हैं, बिल्लियाँ खरोंचती
हैं, बिच्छू-बूटी से खुजली और जलन होती है; लड़के लड़ते हैं, जब गिरते हो तो ज़मीन
घुटने की खाल खींच लेती है – और सिर्योझा का बदन ढँक जाता है खँरोचों से, चोटों
से, ज़ख़्मों से. हर रोज़ कहीं न कहीं से खून निकलता ही है. हमेशा कुछ न कुछ होता ही
रहता है. वास्का फ़ेंसिंग पर चढ़ गया, मगर जब सिर्योझा चढ़ने लगा तो उसका हाथ छूट गया
और चोट लग गई. लीदा के गार्डन में गड्ढा खोदा था, सारे बच्चे कूद-कूद कर गड्ढा
फाँदने लगे, और किसी को भी कुछ भी नहीं हुआ, मगर जब सिर्योझा कूदने लगा तो गड्ढे
में गिर गया. पैर फूल गया और दर्द करने लगा, सिर्योझा को पलंग पर लेटना पड़ा.
मुश्किल से वह उठने के क़ाबिल हुआ ही था कि गेंद खेलने के लिए आँगन में पहुँचा,
मग्र गेंद ही उड़कर छत पर चली गई और वहाँ पाईप के पीछे तब तक पड़ी रही जब तक वास्का
ने आकर उसे ढूँढ नहीं निकाला. एक बार तो सिर्योझा डूब ही गया था. लुक्यानिच अपनी
नाव में उन्हें नदी पर घुमाने ले गया था – सिर्योझा को, वास्का को, फ़ीमा को और एक
जान-पहचान वाली लड़की नाद्या को. लुक्यानिच की नाव बकवास ही निकली : जैसे ही बच्चे
ज़रा-सा हिले डुले, वह गोता खा गई और वे सब के सब, लुक्यानिच को छोड़कर, पानी में
गिर पड़े. पानी भयानक ठण्डा था. वह फ़ौरन सिर्योझा की नाक में, मुँह में, कानों में
घुस गया – वह चिल्ला भी नहीं सका; पेट में भी घुस गया. सिर्योझा पूरा गीला हो गया,
भारी हो गया , जैसे कोई उसे कोई नीचे नीचे पानी में खींच रहा हो. उसे इतना डर लगा
जितना पहले कभी नहीं लगा था. और अंधेरा था, और ये काफ़ी देर तक चलता रहा. अचानक उसे
ऊपर खींच लिया गया. उसने आँखें खोलीं – चेहरे के बिल्कुल पास नदी बह रही थी,
किनारा दिखाई दे रहा था, और धूप में सब कुछ चमक रहा था. सिर्योझा के भीतर जो पानी
भरा था वह बाहर निकल रहा था, वह हवा भीतर खींच रहा था, किनारा नज़दीक आता गया, और
सिर्योझा हाथों-पैरों पर सख़्त बालू में ख़ड़ा था, ठण्ड और डर से कँपकँपाते हुए. ये
वास्या के दिमाग में आया कि उसे बालों से पकड़कर खींच ले. और अगर सिर्योझा के बाल
लम्बे न होते तो क्या होता?
फ़ीमा ख़ुद तैर कर बाहर आ गई, उसे तैरना आता
है. नाद्या भी क़रीब-क़रीब डूब ही गई थी, उसे लुक्यानिच ने बचाया. और जब लुक्यानिच
नाद्या को बचाने में लगा था, तब तक नाव बह गई. सोवियत-फ़ार्म की औरतों ने नाव पकड़ी
और लुक्यानिच को ऑफ़िस में फोन पर बताय कि वह उसे ले जाए. मगर अब लुक्यानिच कभी भी
बच्चों को नाव पर नहीं ले जाता. वह कहता है, “मुझ पर लानत लगे जो मैं फिर कभी तुम
लोगों के साथ जाऊँ.”
दिन भर में जो कुछ भी देखना पड़ता है,
बर्दाश्त करना पड़ता है, उससे सिर्योझा बेहद थक जाता है. शाम होते-होते वह पस्त हो
जाता है : उसकी ज़ुबान मुश्किल से घूमती है, आँखें घूमने लगती हैं , पंछियों की
आँखों के समान. उसके हाथ-पैर धुलाए जाते हैं, कमीज़ बदली जाती है – वह ख़ुद कुछ भी
नहीं करता; उसकी चाभी ख़त्म हो चुकी है, जैसे घड़ी की चाभी ख़त्म होती है.
वह सो जाता है, भूरे बालों वाला सिर आराम
से तकिये में डाले, दुबले-पतले हाथ फैलाए; एक पैर लम्बा खींचे, दूसरा घुटने पर
मोड़े, जैसे किसी गोल सीढ़ी पर चढ़ रहा हो. हल्के, पतले बाल, दो लहरों में बंटे दोनों
भँवों की कमानों के ऊपर उभरे उसके माथे को खोल रहे हैं. बड़ी-बड़ी पलकें, घनी
बरौनियों की झालर डाले, कस कर बन्द हैं. मुँह बीच में कुछ खुला हुआ, किनारों पर
नींद के कारण चिपका हुआ. और वह हौले-हौले साँस लेता है, बे आवाज़, फूल की तरह.
वह सो रहा है – और चाहे ढोल भी बजाओ, तोप
के गोले भी दागो – सिर्योझा नहीं उठेगा, वह ताक़त बटोर रहा है, आगे जीने के लिए.
अध्याय 3
घर में परिवर्तन
“ सिर्योझेंका,” मम्मा ने कहा, “जानते हो,
...मैं चाहती हूँ कि हमारे पास पापा होते.”
सिर्योझा ने आँखें उठाकर उसकी ओर देखा.
उसने इस बारे में सोचा ही नहीं था. कुछ बच्चों के पापा होते हैं, कुछ के नहीं.
सिर्योझा के भी नहीं हैं : उसके पापा लड़ाई में मारे गए हैं; उसने उन्हें सिर्फ फ़ोटो में देखा है. कभी कभी
मम्मा फ़ोटो को चूमती थी और सिर्योझा को भी चूमने के लिए देती थी. वह फ़ौरन मम्मा की
साँसों से धुँधला गए काँच पर अपने होंठ रख देता था, मगर प्यार का एहसास उसे नहीं
होता था : वह उस आदमी से प्यार नहीं कर सकता था जिसे उसने सिर्फ फ़ोटो में देखा हो.
वह मम्मा के घुटनों के बीच में खड़ा था और
सवालिया नज़र से उसके चेहरे की ओर देख रहा था. वह धीरे-धीरे गुलाबी होता गया : पहले
गाल गुलाबी हो गए, उनसे नाज़ुक सी लाली माथे और कानों पर फैल गई....मम्मा ने
सिर्योझा को घुटनों के बीच दबा लिया, उसे बाँहों में भर लिया और अपना गर्म गाल
उसके सिर पर रख दिया. अब उसे सिर्फ उसका हाथ ही दिखाई दे रहा था, सफ़ेद-सफ़ेद गोलों
वाली नीली आस्तीन में. फुसफुसाते हुए मम्मा ने पूछा:
“बगैर पापा के अच्छा नहीं लगता, है ना? ठीक है
ना?”
“हाँ–आ,” उसने भी न जाने क्यों फुसफुसाहट से
जवाब दिया.
असल में इस बात का उसे यक़ीन नहीं था. उसने
“हाँ” इसलिए कह दिया, क्योंकि वह चाहती थी कि वो “हाँ” कहे. तभी उसने सोचा : “क्या
अच्छा है – पापा के साथ या बगैर पापा के? जैसे कि, जब तिमोखिन उन्हें लॉरी में
घुमाने ले जाता है, तो सारे बच्चे ऊपर बैठते हैं, मगर शूरिक हमेशा कैबिन में बैठता
है, और सभी उससे जलते हैं, मगर कोई भी बहस नहीं करता, क्योंकि तिमोखिन – शूरिक के
पापा हैं. मगर, जब शूरिक सुनता नहीं है
तो तिमोखिन उसे बेल्ट से मारता भी है, और शूरिक गालों पर आँसुओं के निशान लिए उदास
घूमता है; और सिर्योझा को बहुत दुख होता है, वह अपने सारे खिलौने आँगन में ले आता
है जिससे शूरिक को अच्छा लगे...मगर, हो सकता है, फिर भी पापा के साथ ज़्यादा अच्छा
होता है : अभी हाल ही में वास्का ने लीदा को सताया था तो वह चीख़ी थी, “मेरे पास तो
पापा हैं, तेरे तो पापा ही नहीं हैं...आ हा हा!”
“ये क्या धड्-धड् कर रहा है?” सिर्योझा ने मम्मा
के सीने में धड्-धड् की आवाज़ सुनकर दिलचस्पी लेते हुए ज़ोर से पूछा.
मम्मा मुस्कुराई, उसने सिर्योझा को चूमा
और कस कर सीने से लगा लिया.
“ये दिल है, मेरा दिल.”
“और मेरे पास?” उसने सिर झुकाते हुए पूछा जिससे
सुन सके.
“तेरे पास भी है.”
“नहीं, मेरा दिल तो धड्-धड् नहीं कर रहा है.”
“करता है. सिर्फ तुझे सुनाई नहीं देता. वह तो
धड़कता ही है. अगर धड़केगा नहीं तो आदमी ज़िन्दा नहीं रह सकता.”
“हमेशा धड़कता है?”
:हमेशा.”
“और, जब मैं सोता हूँ?”
“जब तुम सोते हो तब भी.”
“तो क्या तुम्हें सुनाई दे रहा है?”
“हाँ. सुनाई दे रहा है. तुम भी हाथ से महसूस कर
सकते हो,” उसने उसका हाथ पकड़ा और पसलियों के पास रखा.
“महसूस हो रहा है?”
“हो रहा है. ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा है. क्या वह बड़ा
है?”
“अपनी मुट्ठी बन्द करो. ऐसे. वो क़रीब-क़रीब इतना
ही बड़ा होता है.”
“छोड़ो,” उसने मम्मा के हाथों से छूटते हुए
ख़यालों में डूबे-डूबे कहा.
“अभी आया, “ उसने कहा और बाईं ओर हाथ कस कर दबाए बाहर सड़क पर भागा. सड़क पर
वास्का और झेन्का थे. वह भागकर उनके पास गया और बोला, “देखो, देखो, कोशिश करो,
चाहते हो? यहाँ मेरा दिल है. मैं हाथ से उसे महसूस कर रहा हूँ. देखना है तो देखो,
देखोगे?”
“इसमें क्या ख़ास बात है!” वास्का ने कहा, “सभी
के पास दिल होता है.”
मगर झेन्का ने कहा, “चल, देखते हैं.”
और उसने सिर्योझा के सीने पर एक किनारे
हाथ रख दिया.
“महसूस हो रहा है?” सिर्योझा ने पूछा.
“हाँ, हाँ,” झेन्का ने कहा.
वो क़रीब-क़रीब उतना बड़ा है जितनी मेरी ये
मुट्ठी है,” सिर्योझा ने कहा.
“तुझे कैसे मालूम?” वास्का ने पूछा.
“मुझे मम्मा ने बताया,” सिर्योझा ने जवाब दिया,
और याद करके आगे बोला, “और मेरे पास तो पापा आने वाले हैं!”
मगर वास्का और झेन्का ने कुछ सुना नहीं,
वे अपने काम में मगन थे : वे औषधी वनस्पतियाँ ले जा रहे थे, गोदाम में देने के
लिए. फेन्सिंग पर फ़ेहरिस्त लगी हुई थी उन वनस्पतियों की जो वहाँ ली जाती थीं; और
बच्चे पैसे कमाना चाहते थे. दो दिन घूम-घूमकर उन्होंने घास-फूस इकट्ठा किया.
वास्का ने अपना घास-फूस माँ को दिया और उससे कहा कि वह उन्हें अलग-अलग छाँट कर साफ़
कपड़े में बांध दे; और अब वह बड़ी, बढ़िया गठरी में उन्हें गोदाम ले जा रहा था. मगर
झेन्का की तो माँ ही नहीं है, मौसी और बहन काम पर गई हैं; वह ख़ुद तो यह सब कर नहीं
सकता; झेन्का इन औषधी वनस्पतियों को आलुओं के फटे थैले में बेतरतीबी से ठूँस कर
गोदाम ले जा रहा था, जड़ समेत, मिट्टी समेत. मगर उसने ख़ूब सारी वनस्पतियाँ इकट्ठी
कर ली थीं; वास्का से भी ज़्यादा; उसने थैले को पीठ पर डाला – और वह बोझ से दुहरा
हो गया.
“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा,” सिर्योझा उनके
पीछे-पीछे चलते हुए बोला.
“नहीं,” वास्का ने कहा, “घर वापस जाओ, हम काम से
जा रहे हैं.”
“मैं, बस यूँ ही,” सिर्योझा ने कहा, “बस साथ
चलूँगा.”
“कह दिया ना – वापस जा!” वास्का ने हुकुम दिया.
“ये कोई खेल नहीं है. छोटे बच्चों का वहाँ कोई काम नहीं है!”
सिर्योझा पीछे ठहर गया. उसका होंठ थरथरा
रहा था, मगर उसने अपने आप पर काबू पा लिया: लीदा आ रही थी, उसके सामने रोना नहीं
चाहिए, वर्ना वह चिढ़ाएगी: ‘रोतला! रोतला!’
“तुझे नहीं ले गए? उसने पूछा. “कैसा है रे तू!”
“अगर मैं चाहूँ,” सिर्योझा ने कह, “तो ये इत्ती
बहुत सी अलग-अलग तरह की घास इकट्ठा कर लूँ! आसमान से भी ऊँचा ढेर!”
“आसमान से भी ऊँचा – झूठ बोल रहा है,” लीदा ने
कहा. “आसमान से ऊँचा ढेर तो कोई भी नहीं बना सकता.”
“अच्छा, तो मेरे पापा आने वाले हैं ना, वे
बनाएँगे,” सिर्योझा ने कहा.
“तू बस, झूठ ही बोलता रहता है,” लीदा ने कहा.
“कोई पापा-वापा नहीं आएँगे तेरे पास. और अगर आ भी गए तो कुछ इकट्ठा नहीं करेंगे.
कोई भी इकट्ठा नहीं करेगा.”
सिर्योझा ने सिर पीछे करके आसमान की ओर
देखा और सोच में पड़ गया : ’क्या आसमान से ऊँचा घास का ढेर इकट्ठा किया जा सकता है
या नहीं?’ जब तक वह सोचता रहा लीदा भागकर अपने घर गई और एक रंगबिरंगा स्कार्फ उठा
लाई – उसकी माँ यह स्कार्फ पहनती थी, कभी गर्दन में, तो कभी सिर पर. स्कार्फ लेकर
लीदा नाचने लगी – स्कार्फ हवा में नचाती, हाथ-पैर इधर-उधर फेंकती और कुछ
गुनगुनाती. सिर्योझा खड़े-खड़े देख रहा था. एक मिनट के लिए रुककर लीदा ने कहा:
“नाद्या झूठ बोलती है कि उसे बैले-स्कूल भेज रहे
हैं.”
कुछ देर और नाचने के बाद फिर बोली,
“बैलेरीना की पढ़ाई मॉस्को में भी होती है और लेनिनग्राद में भी.”
और सिर्योझा की आँखों में अचरज के भाव
देखकर उसने बड़े दिल से कहा:
“
तू क्या कर रहा है? सीख मेरे साथ, हूँ, मेरी तरफ देख और जैसा मैं कर रही हूँ, वैसा
ही कर.”
वह करने लगा, मगर बिना स्कार्फ के बात बनी
नहीं. उसने उसे गाने के लिए कहा, इसका भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ. उसने मिन्नत की, “
मुझे स्कार्फ दे!”
मगर उसने कहा:
“ऐह, कैसा है रे तू! तुझे हर चीज़ चाहिए!”
और उसने स्कार्फ नहीं दिया. इसी समय
‘गाज़िक’ कार वहाँ आई और सिर्योझा के गेट के पास रुक गई. कार से ड्राईवर-महिला
उतरी, और फ़ाटक से पाशा बुआ बाहर आई. महिला-ड्राईवर ने कहा, “ये लीजिए, दिमित्री कर्नेयेविच
ने भेजा है.”
कार में सूटकेस थी और रस्सियों से बँधे
किताबों के गट्ठे थे. और कोई एक मोटी, भूरी चीज़ थी, गोल-गोल बंधी हुई – वह खुल गई,
और पता चला कि वह एक ग्रेट-कोट था. पाशा बुआ और ड्राईवर यह सब घर के अन्दर ले जाने
लगीं. मम्मा ने खिड़की से बाहर झाँका और वह छिप गई. महिला-ड्राईवर बोली, “माफ़
कीजिए.’ यही सब कुछ है.”
पाशा बुआ ने दुखी आवाज़ में कहा:
“कम से कम ओवरकोट ही ख़रीद लेता.”
“ख़रीदेगा,” ड्राईवर ने वादा किया. “थोड़ा इंतज़ार
कीजिए. और, ये ख़त दे दीजिए.”
उसने ख़त दिया और वह चली गई. सिर्योझा
चिल्लाते हुए घर के भीतर भागा:
“”मम्मा! मम्मा! करस्तिल्योव ने हमें अपना ग्रेट
कोट भेजा है!”
(दिमित्री कर्नेयेविच करस्तिल्योव उनके यहाँ अक्सर आया करता था. वह सिर्योझा को
खिलौने दिया करता और एक बार सर्दियों में उसे स्लेज पर सैर भी कराई थी. उसके ग्रेट
कोट पर शोल्डर स्ट्रैप्स नहीं थे, वह लड़ाई के समय से पड़ा था. ‘दिमित्री कर्नेयेविच’
कहना मुश्किल लगता है, इसलिए सिर्योझा उसे करस्तिल्योव कहता था.)
ग्रेट कोट हैंगर पर टंग गया, और मम्मा ख़त
पढ़ रही थी. उसने फ़ौरन जवाब नहीं दिया, बल्कि ख़त को पूरा पढ़ने के बाद बोली:
“मुझे मालूम है, सिर्योझेन्का, करस्तिल्योव अब हमारे साथ रहेंगे. वही तुम्हारे पापा होंगे.”
और वह फिर से उसी ख़त को पढ़ने लगी – शायद
एक बार पढ़ने से याद नहीं रहा होगा कि उसमें क्या लिखा है.
’पापा’ शब्द सुनकर सिर्योझा ने किसी
अनजान, अनदेखी चीज़ की कल्पना की थी. मगर करोस्त्येलोव तो उनकी अच्छी जान-पहचान का
है, पाशा बुआ और लुक्यानिच उसे ‘मीत्या’ कहकर बुलाते हैं – ये मम्मा को क्या सूझी?
सिर्योझा ने पूछा, “मगर क्यों?”
“सुनो,” मम्मा ने कहा, “तुम मुझे ख़त पढ़ने दोगे
या नहीं?”
उसने उसकी बात का जवाब नहीं दिया. उसे
बहुत सारे काम करने थे. उसने किताबें खोलीं और उन्हें शेल्फ पर रख दिया. हर किताब
को कपड़े से पोंछ दिया. फिर उसने दूसरी चीज़ें आईने की सामने वाली दराज़ में रख दीं.
फिर वह आँगन में गई और फूल तोड़ लाई और उन्हें फ्लॉवर-पॉट में सजा दिया. फिर न जाने
क्यों उसने फर्श धो दिया, हालाँकि वह साफ़ ही था. इसके बाद वह ‘पिरोग’ बनाने लगी.
पाशा बुआ उसे सिखा रही थी कि आटा कैसे मलना है. सिर्योझा को भी थोड़ी सी लोई और
सेमिया दी गईं, और उसने भी पिरोग बनाया, छोटा सा.
जब करस्तिल्योव आया तो सिर्योझा अपने सभी संदेहों के बारे में
भूल चुका था और उसने उससे कहा, “करस्तिल्योव ! देखो, मैंने ‘पिरोग’ बनाया!”
करस्तिल्योव ने नीचे झुककर उसे कई बार चूमा, सिर्योझा सोचने
लगा, “ये मुझे इसलिए इतनी देर चूम रहा है क्योंकि अब ये मेरा पापा है.”
करस्तिल्योव ने अपना सूटकेस खोला, उसमें से मम्मा की
फ्रेम-जड़ी तस्वीर निकाली, किचन से हथौड़ा और कील ली और उसे सिर्योझा के कमरे में
टांग दिया.
“ये किसलिय?” मम्मा ने पूछा, “जब मैं हमेशा
जीती-जागती तुम्हारे साथ रहने वाली हूँ?”
करस्तिल्योव ने उसका हाथ पकड़ा, वे एक दूसरे के नज़दीक आए, मगर
उनकी नज़र सिर्योझा पर पड़ी और उन्होंने हाथ छोड़ दिए. मम्मा बाहर निकल गई. करस्तिल्योव
कुर्सी पर बैठ गया और ख़यालों में डूबकर
कहने लगा, “तो, ये बात है, भाई सिर्गेई. मैं, मतलब, तुम्हारे यहाँ आ गया हूँ,
तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है ना?”
“क्या तुम हमेशा के लिए आ गए हो?” सिर्योझा ने
पूछा.
“हाँ,” करस्तिल्योव ने कहा, हमेशा के लिए.”
“और, क्या तुम मुझे बेल्ट से मारा करोगे?”
सिर्योझा ने पूछा.
करस्तिल्योव को बड़ा अचरज हुआ.
“मैं तुम्हें बेल्ट से क्यों मारूँगा?”
“जब मैं तुम्हारी बात नहीं सुनूँगा,” सिर्योझा
ने समझाया.
“नहीं,” करस्तिल्योव ने कहा, “मेरे ख़याल से ये बेवकूफ़ी है – बेल्ट से
मारना- है ना?”
“बेवकूफ़ी है,” सिर्योझा ने पुष्टि की. “और बच्चे
रोते हैं.”
“हम-तुम आपस में सलाह-मशविरा कर सकते हैं, जैसे
एक मर्द दूसरे मर्द से करता है, बगैर किसी बेल्ट-वेल्ट के.”
“और तुम कौन से कमरे में सोया करोगे?” सिर्योझा
ने पूछा.
“लगता है कि इसी कमरे में,” करस्तिल्योव ने जवाब दिया. “ऐसा लगता तो है, भाई. और इतवार
को हम और तुम जाएँगे – मालूम है हम दोनों कहाँ जाएँगे? दुकान में, जहाँ खिलौने
मिलते हैं. जो पसन्द हो, तुम ख़ुद चुनोगे. पक्का?”
“पक्का!” सिर्योझा ने कहा. “मुझे बैसिकल चाहिए.
और क्या इतवार जल्दी आने वाला है?”
“जल्दी.”
“कितने के बाद?”
“कल है शुक्रवार, फिर शनिवार और फिर इतवार.”
“मतलब, कोई ख़ास जल्दी नहीं आयेगा !” सिर्योझा ने
कहा.
तीनों ने साथ बैठकर चाय पी : सिर्योझा,
माँ और करस्तिल्योव ने. (पाशा बुआ और
लुक्यानिच कहीं बाहर गए थे.) सिर्योझा को नींद आ रही थी. भूरी तितलियाँ लैम्प के
चारों ओर घूम रही थीं, वे लैम्प से टकरातीं और कालीन पर गिर जातीं, अपने पंख
फ़ड़फड़ाते हुए – इसकी वजह से और भी ज़्यादा नींद आ रही थी. अचानक उसने देखा कि
कोरोस्तेयोव उसका पलंग कहीं ले जा रहा है.
“तुमने मेरा पलंग क्यों लिया?” सिर्योझा ने
पूछा.
मम्मा ने कहा, “तुम बिल्कुल सो रहे हो,
चलो, पैर धोएँगे.”
सुबह सिर्योझा उठा तो एकदम से समझ ही नहीं
पाया कि वह कहाँ है. दो खिड़कियों के बदले तीन खिड़कियाँ क्यों हैं, और वे भी उस ओर
नहीं, और परदे भी वो नहीं हैं. फिर उसे समझ में आया कि यह पाशा बुआ का कमरा है. वो
बहुत ख़ूबसूरत है : खिड़कियों की देहलीज़ पर फूल रखे हैं, और शीशे के पीछे मोर का पंख
फंसा है. पाशा बुआ और लुक्यानिच कब के उठकर चले गए थे, उनका बिस्तर ढँका हुआ था,
तकिए सलीके से गड्डी बनाकर रखे थे. खुली हुई खिड़कियों के पीछे झाड़ियों में सुबह का
सूरज खेल रहा था. सिर्योझा रेंगते हुए पलंग से बाहर आया, उसने लम्बी कमीज़ उतार दी,
शॉर्ट्स पहन लिए और डाइनिंग रूम में आया. उसके कमरे का दरवाज़ा बन्द था. उसने
हैंडिल को घुमाया – दरवाज़ा नहीं खुला. और उसे तो वहाँ ज़रूर जाना था : आख़िर उसके
सारे खिलौने वहीं तो थे. नया छोटा सा फ़ावड़ा भी, जिससे अचानक मिट्टी खोदने का उसका
मूड़ हुआ.
“मम्मा,” सिर्योझा ने पुकारा.
“मम्मा!” उसने दुबारा आवाज़ दी.
दरवाज़ा नहीं खुला, ख़ामोशी थी.
“मम्मा!” सिर्योझा पूरी ताक़त से चीख़ा.
पाशा बुआ भाग कर आई, उसका हाथ पकड़ा और
किचन में ले गई.
“क्या करते हो, क्या करते हो!” वह फुसफुसाई.
“कोई ऐसे चिल्लाता है भला! चिल्लाते नहीं हैं! भगवान की दया से, तुम छोटे नहीं हो!
मम्मा सो रही है, और उसे आराम से सोने दो, क्यों उठाना है?”
“मुझे अपना फ़ावड़ा चाहिए,” उसने उत्तेजना से कहा.
“ले लेना, फ़ावड़ा कहीं भागा नहीं जा रहा है.
मम्मा उठेगी – तब ले लेना,” पाशा बुआ ने कहा.
“देखो तो, यह रही तुम्हारी गुलेल. अभी तुम गुलेल से खेल लो. चाहो, तो
तुम्हें गाजर छीलने के लिए दूँगी. मगर सबसे पहले अच्छे आदमी मुँह-हाथ धोते हैं.”
तर्कसंगत और प्यारी बातों से सिर्योझा का
मन शांत हो जाता है. उसने अपने हाथ-मुँह धुलवा लिए और दूध का गिलास भी पी लिया.
फिर गुलेल लेकर बाहर निकल पड़ा. सामने फेंसिंग पर चिड़िया बैठी थी. सिर्योझा ने बिना
निशाना साधे गुलेल से उस पर कंकर चलाया और, ज़ाहिर है, चूक गया. उसने जान बूझ कर
निशाना नहीं साधा था, क्योंकि वह चाहे कितना ही निशाना क्यों न साधे, वह लगता ही
नहीं, न जाने क्यों; मगर तब लीदा चिढ़ाती; मगर अब तो उसे चिढ़ाने का कोई हक ही नहीं
है : ज़ाहिर था कि इन्सान ने निशाना नहीं साधा है, उसे तो बस गुलेल चलानी थी, सो
चला दी, बगैर यह देखे कि कंकर कहाँ लगता है.
शूरिक अपने गेट से चिल्लाया:
“सेर्गेई, बगिया में चलें?”
“नहीं, दिल नहीं चाहता!” सिर्योझा ने कह.
वह बेंच पर बैठ गया और पैर हिलाने लगा.
उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. आँगन से गुज़रते हुए उसने देखा कि खिड़कियों के पल्ले
भी बन्द हैं. उसने फ़ौरन तो इसका कोई मतलब नहीं निकाला, मगर अब वह समझ गया :
गर्मियों में तो वे कभी भी बन्द नहीं होते, बन्द होते हैं सिर्फ सर्दियों में, जब
तेज़ बर्फ गिरती है; मतलब ये कि खिलौने चारों तरफ़ से बन्द हैं, और उसे तो उनकी इतनी
ज़रूरत थी कि वह ज़मीन पर पसर कर बिसूरने को भी तैयार था. बेशक, वह ज़मीन पर पसर कर
चीखने वाला तो नहीं है, वह कोई छोटा थोड़े है, मगर इससे उसे हल्का महसूस नहीं हुआ.
मम्मा और करस्तिल्योव ने सब कुछ बन्द कर
लिया है, और उन्हें इस बात की ज़रा भी फ़िकर नहीं है कि उसे इसी समय फ़ावड़ा चाहिए.
‘जैसे ही वे उठेंगे,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘ मैं
फ़ौरन सब-सब पाशा बुआ के कमरे में ले जाऊँगा. क्यूब नहीं भूलना है : वह एक बार
अलमारी के पीछे गिर गया था और अभी तक वहीं पड़ा है.’
वास्का और झेन्का सिर्योझा के सामने आकर
खड़े हो गए. और लीदा भी नन्हे विक्टर को हाथों में उठाए हुए वहाँ आ पहुँची. वे सब
खड़े होकर सिर्योझा की ओर देख रहे थे. वह अपना पैर हिलाए जा रहा था और कुछ भी नहीं
कह रहा था. झेन्का ने पूछा:
“आज तुझे क्या हुआ है?”
वास्का ने कहा:
“उसकी मम्मा ने शादी कर ली.”
कुछ देर सब चुप रहे.
“किससे शादी की?” झेन्का ने पूछा.
“करस्तिल्योव
से,” ‘यास्नी बेरेग’ के डाइरेक्टर से,”
वास्का ने कहा. “ओह, तो इसकी हजामत भी बना दी!”
“किसलिए बनाई हजामत?” झेन्का ने पूछा.
“यूँ ही – मतलब किसी अच्छे कारनामे के लिए,”
वास्का ने कहा और जेब से सिगरेट का मुड़ा-तुड़ा पैकेट निकाला.
“मुझे भी पीने दे,” झेन्का ने कहा.
“मेरे पास भी, शायद, ये आख़री है,” वास्का ने
कहा, मगर फिर भी उसने सिगरेट दी और, कश लगाकर, झेन्का की ओर जलती हुई दियासलाई बढ़ा
दी. तीली की नोक पर लौ सूरज की रोशनी में पारदर्शी नज़र आ रही थी, दिखाई नहीं दे
रही थी; दिखाई नहीं दे रहा था कि तीली काली होकर मुड़ क्यों गई और सिगरेट कैसे धुआँ
छोड़ने लगी. सूरज सड़क के उस ओर था, जहाँ बच्चे इकट्ठा हुए थे; और दूसरी ओर अभी भी
छाँव थी, और बिच्छू-बूटी के पत्ते, बागड़ के किनारे-किनारे, ओस में नहाए, काले और
गीले लग रहे थे. सड़क के बीचोंबीच धूल : उस तरफ़ ठण्डी और इस तरफ़ गरम थी. और दो
कतारें दाँतेदार पहियों के निशानों की: कोई ट्रैक्टर इधर से गुज़रा था.
“सिर्योझा दुखी है,” लीदा ने शूरिक से कहा, “उसके नए पापा आ
गए हैं.”
“दुखी मत हो,” वास्का ने कहा, “वो चचा अच्छा ही
है, चेहरे से पता चलता है. जैसे रहता है, वैसे ही तू रहेगा, तुझे क्या करना है.”
“वो मुझे बैसिकल ख़रीद के देने वाला है,”
सिर्योझा ने अपनी कल की बातचीत को याद करके कहा.
“उसने वादा किया है,” वास्का ने पूछा, “या तू
सिर्फ उम्मीद लगाए बैठा है?”
“वादा किया है. हम साथ-साथ जाएँगे दुकान में.
इतवार को. कल होगा शुक्रवार, फिर शनिवार, और फिर इतवार.”
“दो पहिए वाली?” झेन्का ने पूछा.
“तीन पहियों वाली मत लेना,” वास्का ने सलाह दी.
“उसका तुझे कोई फ़ायदा नहीं है. तू जल्दी से बड़ा हो जाएगा, तुझे दो पहियों वाली
चाहिए.”
“झूठ बोल रहा है,” लीदा ने कहा. “कोई सैकल-वैकल
उसके लिए नहीं खरीदेंगे.”
शूरिक ने मुँह फुलाया और कहा:
“मेरे पापा भी मेरे लिए बैसिकल खरीदेंगे. जैसे
ही तनखा मिलेगी, फ़ौरन खरीदेंगे.”
अध्याय 4
करस्तिल्योव के साथ पहली सुबह – नास्त्या दादी के यहाँ
आँगन में लोहे के खड़खड़ाने की आवाज़ आई. सिर्योझा ने फ़ाटक से भीतर देखा: करस्तिल्योव
बोल्ट निकाल कर खिड़कियाँ खोल रहा था. उसने
धारियों वाली कमीज़ पहनी थी, नीली टाई बांधी थी, गीले बाल खूब अच्छे से सँवारे थे.
उसने खिड़कियों के बोल्ट खोले और मम्मा ने भीतर से पल्लों को धक्का दिया, वे खुल
गए, और मम्मा ने करस्तिल्योव से कुछ कहा.
उसने खिड़की की देहलीज़ पर कुहनियाँ टिकाते हुए जवाब दिया. उसने हाथ फैलाए और
हथेलियों से उसका चेहरा दबाया. उन्हें होश ही नहीं था कि सड़क से बच्चे उनकी ओर देख
रहे हैं.
सिर्योझा आँगन में गया और बोला:
“करस्तिल्योव
! मुझे फ़ावड़ा चाहिए.”
“फ़ावड़ा?...” करस्तिल्योव ने पूछा.
“और, सब कुछ,” सिर्योझा ने कहा.
“अन्दर आओ,” मम्मा ने कहा, “और जो चाहो ले लो.”
मम्मा के कमरे में तम्बाकू की और पराई
साँसों की अजीब सी गंध फैली थी. पराई चीज़ें यहाँ-वहाँ फैली पड़ी थीं : कपड़े, ब्रश,
मेज़ पर सिगरेट के टुकड़े...मम्मा चोटी खोल रही थी. जब वह अपनी लम्बी-लम्बी चोटियाँ
खोलती तो गहरे भूरे रंग के अनगिनत छोटे-छोटे साँप उसे कमर के नीचे तक ढँक देते; और
फिर वह उनमें कंघी करती है, जब तक कि वे सीधे नहीं हो जाते और गर्मियों की बारिश
जैसे नहीं हो जाते...गहरे भूरे साँपों के पीछे से मम्मा ने कहा :
“गुड मॉर्निंग, सिर्योझेन्का.”
उसने जवाब नहीं दिया. वह डिब्बे देखने में
मशगूल था. अपने नएपन और एक से होने के कारण वे उसका ध्यान खींच रहे थे. उसने एक
डिब्बा उठाया, वह बन्द था, खुला नहीं.
“जगह पे रख दे,” मम्मा ने कहा, जो शीशे में सब
कुछ देख रही थी. “तुम तो खिलौनों के लिए आए थे ना?”
क्यूब अलमारी के पीछे पड़ा था. उकडूँ बैठकर
सिर्योझा उसे देख रहा था, मगर निकाल नहीं पा रहा था : हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच रहा
था.
“तू वहाँ क्या गड़बड़ कर रहा है?”
“मुझसे निकल ही नहीं रहा,” सिर्योझा ने जवाब
दिया.
करस्तिल्योव भीतर आया. सिर्योझा ने उससे पूछा:
“तुम मुझे बाद में ये डिब्बे दोगे?”
(उसे मालूम था कि बड़े लोग बच्चों को
डिब्बे तभी देते हैं, जब वो, जो डिब्बों में भरा होता है, उसे या तो खा लिया जाता
है, या उसके कश लग चुके होते हैं.)
“ये लो, एडवान्स के तौर पर एक डिब्बा,” करस्तिल्योव
ने कहा.
और उसने एक डिब्बे से सिगरेट्स बाहर निकाल
कर डिब्बा सिर्योझा को दे दिया. मम्मा ने विनती की:
“उसकी मदद करो ना. अलमारी के पीछे उसका कुछ गिरा
है.”
करस्तिल्योव ने अपने बड़े-बड़े हाथों से अलमारी को पकड़ कर
खींचा – पुरानी अलमारी चरमराई, सरक गई, और सिर्योझा ने आसानी से अपना क्यूब निकाल
लिया.
“शाबाश!” उसने प्रशंसा की दृष्टि से ऊपर, करस्तिल्योव
को देखकर कहा.
और वह डिब्बा, क्यूब और जितने पकड़ सकता था
उतने खिलौने सीने से लगाए चला गया. वह उन्हें पाशा बुआ के कमरे में ले गया और फ़र्श
पर डाल दिया, अपने पलंग और शेल्फ के बीच में.
“तू अपना फ़ावड़ा भूल गया,” मम्मा ने कहा, “तुझे
तो उसकी फ़ौरन ज़रूरत थी, और उसी को भूल गया.”
सिर्योझा ने चुपचाप फ़ावड़ा ले लिया और आँगन
में चला गया. असल में अब खुदाई करने का उसका मन नहीं हो रहा था, उसे तो अब मिठाई
और चॉकलेट्स के रैपर्स को नए डिब्बे में रखने की जल्दी हो रही थी; मगर कम से कम
थोड़ी सी भी खुदाई न करना बुरा दिखता, क्योंकि मम्मा ने ऐसा कह जो दिया था.
सेब के पेड़ के नीचे ज़मीन भुरभुरी है और
जल्दी से खुद जाती है. खोदते हुए उसने गहरे जाने की कोशिश की – क़रीब क़रीब पूरे
फ़ावड़े की गहराई तक. ये काम वह डर के मारे नहीं बल्कि अपने विवेक से कर रहा था,
मेहनत के कारण वह कराह रहा था, उसके हाथों के और खुली, धूप से सुनहरी हो गई पतली
पीठ के स्नायु तन गए थे. करस्तिल्योव ऊपर
छत पर खड़ा था, सिगरेट पीते हुए वह उसकी ओर देख रहा था.
लीदा प्रकट हुई – विक्टर को गोद में उठाए –
और बोली:
“चलो, फूल लगाएँ. ख़ूबसूरत लगेगा.”
उसने विक्टर को ज़मीन पर बिठाया, सेब के
पेड़ से टिकाकर, जिससे वह गिर न जाए. मगर वह फ़ौरन गिर गया – एक करवट पर.
“ओह, तू, बैठ!” लीदा चिल्लाई, उसने विक्टर को
झटका और फिर दबा कर बिठा गया. “बेवकूफ़ बच्चा. इस उम्र में दूसरे बच्चे तो बैठने भी
लगते हैं.”
वह जानबूझ कर ज़ोर ज़ोर से बोल रही थी,
जिससे छत पर खड़ा करस्तिल्योव सुन ले और
समझ जाए कि वह कितनी सयानी और होशियार है. कनखियों से उसकी ओर देखते हुए वह गेंदे
के फूल लाई और उन्हें सिर्योझा की खोदी हुई ज़मीन पर यह कहते हुए खोंस दिया:
“देख, कितना सुन्दर है!”
और फिर टब के नीचे से लाल-सफ़ेद छोटे-छोटे
पत्थर लाई और उन्हें गेंदे के फूलों के चारों ओर बिछा दिया. उसने अपनी उँगलियों से
मिट्टी झाड़ी और हथेलियाँ थपथपाईं, उसके हाथ काले हो गए थे.
“है ना सुन्दर?” उसने पूछा. “बोल, पर झूठ न
बोलना.”
“हाँ,” सिर्योझा ने मान लिया, “सुन्दर है.”
“कैसा है रे तू!” लीदा ने कहा, “मेरे बिना कुछ
नहीं कर सकता.”
अब विक्टर फिर से गिर पड़ा, इस बार सिर के
बल.
“ओह, लेटा रह, तेरी यही सज़ा है,” लीदा ने कहा.
विक्टर रोया नहीं, वह अपनी मुट्ठी चूस रहा
था और चकित होकर पत्तियों की ओर देख रहा था जो उसके ऊपर सरसरा रही थीं. और लीदा ने
कूदने वाली रस्सी निकाली जो उसने बेल्ट के बदले कमर पर बांध रखी थी, और वह छत के
सामने रस्सी कूदने लगी, ज़ोर ज़ोर से गिनते हुए, “एक, दो, तीन...” करस्तिल्योव हँसने लगा और छत से चला गया..
“देख,” सिर्योझा ने कहा, “उसके ऊपर चींटियाँ
रेंग रही हैं.”
“छिः, बेवकूफ़!” दुख से लीदा ने कह, उसने विक्टर
को उठाया और उसके बदन से चींटियाँ साफ़ करने लगी, और इस सफ़ाई में उसकी कमीज़ और नंगे
पैर काले हो गए.
“धोते रहते हैं, धोते रहते हैं उसे,” लीदा ने
कहा, “मगर ये गन्दा का गन्दा ही रहता है.”
मम्मा ने छत से पुकारा:
“सिर्योझा! आ जा, कपड़े पहन ले, हमें बाहर जाना
है.”
वह फ़ौरन भागा – बाहर कोई रोज़ रोज़ थोड़े ही
जाते हैं. लोगों के घर जाना अच्छा लगता है, चॉकलेट्स देते हैं और खिलौने दिखाते
हैं.
“हम नास्त्या दादी के यहाँ जा रहे हैं,” मम्मा
ने समझाया, हालाँकि उसने पूछा नहीं था, कहीं भी क्यों न जाएँ, किसी के घर तो जा
रहे हैं, यही अच्छी बात है.
नास्त्या दादी संजीदा और कड़े स्वभाव की
है, सिर पर गोल गोल धब्बों वाला सफ़ेद रुमाल – ठोड़ी के नीचे बंधा हुआ. उसके पास एक
मेडल है, मेडल पर लेनिन है. और उसके हाथ में हमेशा ज़िप वाली काली थैली होती है. वह
थैली खोलती है और सिर्योझा को कोई बढ़िया चीज़ खाने के लिए देती है. मगर सिर्योझा
उसके यहाँ कभी गया नहीं था.
वे सब तैयार हो गए – वो, और मम्मा, और करस्तिल्योव
– और चल पड़े. करस्तिल्योव और मम्मा ने दोनों ओर से उसके हाथ पकड़े, मगर
उसने जल्दी ही हाथ छुड़ा लिए : अपने आप चलना कितना अच्छा लगता है. कहीं रुक सकते हो
और औरों की बागड़ की झिरी से झाँक कर देख सकते हो कि वहाँ खूँखार कुत्ता ज़ंजीर से
बंधा बैठा है और बत्तख़ें घूम रही हैं. भाग कर आगे जा सकते हैं और वापस दौड़कर मम्मा
के पास आ सकते हो. इंजिन की आवाज़ की नकल करते हुए भोंपू और सीटी बजा सकते हो. किसी
झाड़ी से हरी फल्ली – सीटी – तोड़ो, और बजाओ – सीटी. ज़मीन पर गिरा हुआ सुनहरा सिक्का
उठा लो, जिसे किसी ने गिरा दिया था. मगर जब तुम्हारा हाथ पकड़ कर ले जाते हैं तो
सिर्फ हाथों में पसीना आता है, और कुछ भी मज़ा नहीं आता.
वे एक छोटे से घर की ओर आए जिसकी दो छोटी
छोटी खिड़कियाँ सड़क पर खुलती थीं. आँगन भी छोटा सा था, और कमरे भी छोटे से. कमरों
में किचन से होकर जाना पड़ता था, जिसमें भारी-भरकम रूसी भट्टी थी. नास्त्या दादी
उनसे मिलने बाहर आई और बोली, “आपको बहुत बहुत मुबारक हो!”
बेशक, कोई त्यौहार ही होगा. ऐसे अवसरों पर
पाशा बुआ जैसे जवाब देती थी, उसी अंदाज़ में सिर्योझा ने जवाब दिया, “आपको भी!”
उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई – खिलौने दिखाई
नहीं दे रहे थे, कोई मूर्तियाँ-वूर्तियाँ भी नहीं थीं, जिन्हें सजावट के लिए रखा
जाता है – सिर्फ बेकार की चीज़ें थीं – खाने की और सोने की. सिर्योझा ने पूछा,
“आपके पास खिलौने हैं?”
(हो सकता है हों, मगर छिपा दिए गए हों.)
“वही एक चीज़ नहीं है,” नास्त्या दादी ने जवाब
दिया. “घर में छोटे बच्चे नहीं हैं, इसलिए खिलौने भी नहीं हैं. तुम चॉकलेट्स
खाओगे.”
मेज़ पर खूब सारे पिरोगों के बीच चॉकलेट्स
की नीली काँच की बरनी रखी थी. सभी मेज़ के चारों ओर बैठ गए. करस्तिल्योव ने पेंचदार कांटे से बोतल खोली और वाईन ग्लासेस
में लाल-काली वाईन डाली.
“सिर्योझा को मत देना,” मम्मा ने कहा.
हमेशा ऐसा ही करते हैं : ख़ुद पीते हैं, और उसे – नहीं
देना! जो भी सबसे अच्छी चीज़ होती है, उसे नहीं मिलती है.
मगर करस्तिल्योव ने कहा:
“मैं बस ज़रा सी दूँगा. उसे भी हमारी ख़ातिर पीने
दो.”
और उसने सिर्योझा को भी छोटे से वाईन
ग्लास में भर दी, जिससे सिर्योझा ने यह नतीजा निकाला कि उस पर भरोसा किया जा सकता
है.
सभी ने जाम टकराए, सिर्योझा ने भी अपना
जाम टकराया.
वहाँ एक और भी दादी थी. सिर्योझा को बताया
गया कि यह सिर्फ दादी नहीं, बल्कि परदादी है; वह उसे इसी तरह बुलाए. मगर करस्तिल्योव
उसे सिर्फ दादी कहकर पुकार रहा था, बगैर
“पर - ” के. सिर्योझा को वह बिल्कुल अच्छी
नहीं लगी. उसने कहा:
“वह कालीन पर गिरा देगा.”
उसने वाक़ई में थोड़ी सी वाईन कालीन पर गिरा
ही दी थी, जब जाम टकरा रहा था. उसने कहा:
“देखो, मैंने पहले ही कहा था.”
और उसने गुस्से से फुनफुनाते हुए गीले
धब्बे पर नमकदानी से नमक छिड़क दिया. और उसके बाद वह पूरे समय सिर्योझा पर नज़र रखे
हुए थी. उसकी आँखें चश्मे के पीछे छिपी थीं. वह खूब बूढ़ी, जक्खड़ बूढ़ी थी. हाथ भूरे
भूरे, झुर्रियों से भरे, जोड़ों पर फूले फूले थे, खूब बड़ी नाक नीचे को झुकी थी, और
हड़ीली ठोड़ी - ऊपर की ओर.
वाईन मीठी और स्वादिष्ट थी. सिर्योझा गट्
से पी गया. उसे पिरोग दिया गया, वह खाने लगा और खाते खाते उसे मसल दिया...परदादी
ने कहा:
“तू कैसे खा रहा है?”
बैठने में बड़ा अजीब लग रहा था, वह कुर्सी
में कसमसाने लगा. परदादी ने कहा:
“तू कैसे बैठा है?”
और अब उसे गरमी और जलन महसूस होने लगी, और
गाना गाने का मन करने लगा. वह गाने लगा.
वह बोली, “अच्छे से चुपचाप बैठ.”
करस्तिल्योव ने सिर्योझा का पक्ष लेते हुए कहा, “छोड़िए.
बच्चे को जीने दीजिए!”
परदादी गरजी, “थोड़ा ठहर जाओ, वह तुम्हें
अपनी कारगुज़ारी दिखाएगा!”
उसने भी वाईन पी थी., चश्मे के पीछे उसकी
आँखें वैसे भी चमक रही थीं. मगर सिर्योझा बहादुरी से उस पर चिल्लाया, “दफ़ा हो जा!
मैं तुझसे नहीं डरता!”
“ओह, कितना भयानक!” मम्मा ने कहा.
“मामूली बात है,” करस्तिल्योव ने कहा, “अभी ठीक हो जाएगा. थोड़ी सी ही तो पी है
उसने.”
“मुझे और चाहिए!” सिर्योझा चिल्लाया, उसने अपने
जाम की ओर हाथ बढ़ाया और ख़ाली बोतल गिरा दी. शीशे के बर्तन खनखनाने लगे. मम्मा
भौंचक्की रह गई. परदादी ने मेज़ पर मुट्ठी से वार किया और चीखी, “देख रहे हो, क्या
हो रहा है!”
मगर अब सिर्योझा को झूलने का मन होने लगा.
वह एक ओर से दूसरी ओर झूलने लगा. और पिरोग वाली मेज़ उसके सामने झूलने लगी, और
मम्मा, और करस्तिल्योव , और नास्त्या दादी, बातें करते हुए झूल रहे थे, जैसे झूले
पर बैठे हों – यह सब मज़ेदार लग रहा था. सिर्योझा ठहाका मार कर हँस पड़ा. अचानक उसे
गाना सुनाई दिया. ये परदादी थी. अपने फूले फूले हाथ में चष्मा पकड़ कर, उसे ज़ोर ज़ोर
से हिलाते हुए वह गा रही थी कि कैसे “कात्यूशा” नदी के किनारे पर आती है, गाना
गाने लगती है : परदादी का गाना सुनते हुए सिर्योझा सो जाता है, पिरोग के टुकड़े पर
सिर रख के.
....उसकी आँख खुली – परदादी वहाँ नहीं थी,
और बाकी लोग चाय पी रहे थे. वे सिर्योझा की ओर देखकर मुस्कुराए. मम्मा ने पूछा, “आ
गए होश में? अब और दंगा मस्ती तो नहीं करोगे?”
‘क्या मैंने दंगा मस्ती की थी?’ सिर्योझा ने
अचरज से सोचा.
मम्मा ने पर्स में से छोटी से कंघी निकाली
और सिर्योझा के बाल संवार दिए. नास्त्या दादी ने कहा, “अब चॉकलेट खाओ.”
बगल वाले कमरे में, चमकीले, धारियों वाले
पर्दे के पीछे, जिसे दरवाज़े के बदले लगाया गया था, कोई खर्राटे ले रहा था : खुर्र!
खुर्र!! सिर्योझा ने बड़ी सावधानी से परदा हटाया, भीतर झाँका और पाया कि वहाँ पलंग
पर परदादी सो रही है. सिर्योझा हौले से परदे से दूर हटा और बोला, “चलो, घर चलें.
अब मैं यहाँ बोर हो गया.”
बिदा लेते हुए उसने सुना कि करस्तिल्योव ने नास्त्या दादी को ‘मम्मा’ कहकर पुकारा.
सिर्योझा को तो मालूम ही नहीं था कि करस्तिल्योव की मम्मा भी है, वह सोचता था कि करस्तिल्योव और नास्त्या दादी एक दूसरे को सिर्फ जानते हैं.
वापसी का रास्ता सिर्योझा को बड़ा लम्बा और
उकताने वाला प्रतीत हो रहा था. सिर्योझा ने सोचा, ‘अगर करस्तिल्योव मेरे पापा हैं, तो वे मुझे उठाकर ले चलें’. उसने
कई बार देखा था कि कैसे पापा लोग अपने बच्चों को कंधे पर बिठाकर ले जाते हैं.
बच्चे बैठते हैं और अकड़ दिखाते हैं, और उन्हें, शायद ऊपर से दूर तक दिखाई देता
होगा. सिर्योझा ने कहा, “मेरे पैर दुख रहे हैं.”
“बस, नज़दीक ही तो है,” मम्मा ने कहा, “थोड़ा
बर्दाश्त करो.”
मगर सिर्योझा आगे से भागा और उसने करस्तिल्योव
के घुटने पकड़ लिए.
“तू बड़ा है न रे,” मम्मा ने कहा, “गोद में उठा
लो, यह कहने में शरम नहीं आती!”
मगर करस्तिल्योव ने सिर्योझा को उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया.
सिर्योझा ने देखा कि वह एकदम खूब ऊँचा हो
गया है. उसे ज़रा सा भी डर नहीं लग रहा था : इतना बड़ा बलवान, जो बड़ी आसानी से
अलमारी खिसका सकता है, उसे गिरा ही नहीं सकता. ऊँचाई से साफ़ दिखाई दे रहा था कि
फेन्सिंग के पीछे आँगनों में और छतों पर क्या हो रहा है; बढ़िया दिख रहा है! इस
आकर्षक दृष्य में सिर्योझा पूरे रास्ते व्यस्त रहा, सामने से अपने पैरों पर चले आ
रहे बच्चों की ओर वह गर्व से देख रहा था. और अपनी इस नई फ़ायदेमन्द स्थिति का अनुभव
करते हुए वह घर पहुँच गया – पिता के कंधे पर, जैसा कि बेटे को करना चाहिए.
अध्याय 5
साइकल ख़रीदी गई
और इसी कंधे पर बैठकर वह इतवार को दुकान
में गया – साइकल ख़रीदने.
इतवार अचानक ही आ गया, उम्मीद से भी पहले,
और सिर्योझा बेहद उत्तेजित हो गया, यह जानकर कि वह आ गया है.
“तुम भूले तो नहीं?” उसने करस्तिल्योव से पूछा.
“कैसे भूल सकता हूँ,” करस्तिल्योव ने जवाब दिया, “हम बिल्कुल जा रहे हैं. बस, मैं
थोड़े से काम निपटा लूँ.”
मगर काम के बारे में उसने झूठ ही बोला था,
कोई काम करता हुआ वह दिखा ही नहीं, बस बैठे बैठे मम्मा के साथ बातें कर रहा था.
बातचीत समझ में भी नहीं आ रही थी और दिलचस्प भी नहीं थी, मगर उन्हें वह अच्छी लग
रही थी. वे बस बोले ही चले जा रहे थे, ख़ास तौर से मम्मा तो लम्बी लम्बी बात करती
है : एक ही शब्द को न जाने क्यों सौ बार दुहराती है. उसी से करस्तिल्योव भी यही सीख रहा है. सिर्योझा उनके चारों ओर डोल
रहा है, अपने भीतर की उत्तेजना से शांत, एक ही ख़याल पर अपना ध्यान केन्द्रित किए
हुए, और राह देख रहा है – कब वे अपना यह काम ख़त्म करेंगे.
“तुम सब समझते हो,” मम्मा कह रही है. “मुझे
कितनी ख़ुशी हुई यह जानकर कि तुम सब समझते हो.”
“सच कहूँ तो,” करस्तिल्योव ने जवाब दिया, “इस बारे में तुमसे मिलने से
पहले, मैं बहुत कम जानता था. बहुत कुछ समझ में नहीं आता था, सिर्फ तभी समझना शुरू
किया, जब – तुम समझ रही हो...!”
वे एक दूसरे के हाथ पकड़ते हैं, जैसे
‘गोल्डन गेट’ खेल रहे हों.
“मैं छोटी बच्ची थी,” मम्मा कह रही है, “ मुझे
ऐसा लगता था कि मैं बेहद, बेहद ख़ुशनसीब हूँ. फिर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दुख से मर
जाऊँगी. मगर, अब ऐसा लगता है जैसे वह सब एक सपना था...”
उसे एक नया शब्द मिल गया और वह उसे पक्का
याद कर रही है, करस्तिल्योव के बड़े बड़े
हाथों से अपना चेहरा ढाँपते हुए:
“सपना था, समझ रहे हो? जैसे सपने दिखाई देते
हैं. ये सब सपने में हुआ था. मुझे सपना आया था. और आँख खुली तो - तुम...”
करस्तिल्योव उसे बीच ही में रोकते हुए कहता है:
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ.”
मम्मा को यक़ीन ही नहीं होता.
“सच?”
“प्यार करता हूँ,” करस्तिल्योव ज़ोर देकर कहता है.
मगर मम्मा को फिर भी यक़ीन नहीं होता.
“सच – प्यार करते हो?”
‘उससे ऐसा कह देता : ‘कसम से’ या ‘धरती में समा
जाऊँ अगर झूठ बोलूँ तो’, सिर्योझा सोचता है, ‘तब वह यक़ीन कर लेती.’
करस्तिल्योव जवाब देते देते बोर हो गया, वह ख़ामोश हो गया और
मम्मा को देखने लगा, और वह उसकी ओर देखने लगी. इस तरह से वे, शायद, घंटे भर से एक
दूसरे को देख रहे हैं. फिर मम्मा कहती है, “मैं तुमसे प्यार करती हूँ,” (जैसा कि
खेल में होता है, जब सभी बारी बारी से एक ही शब्द को दुहराते हैं).
‘ये कब ख़त्म होगा?’ सिर्योझा सोचता है.
ज़िन्दगी के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी
उसे थी, वह, बेशक, उससे कह रही थी, कि जब बड़े लोग अपनी बातों में मगन होते हैं तो
उन्हें परेशान नहीं करना चाहिए : बड़े लोगों को यह अच्छा नहीं लगता, वे गुस्सा कर
सकते हैं, और, न जाने, इसका क्या नतीजा निकले. मगर वह बड़ी सावधानी से अपने बारे
में याद दिला देता है, उनकी नज़रों के सामने रहकर, गहरी गहरी साँसें लेते हुए.
आख़िर उसकी परेशानियों का अंत हो ही गया. करस्तिल्योव
ने कहा, “मार्याशा, मैं घंटे भर के लिए
बाहर जाऊँगा, हमने सिर्योझा के साथ एक काम के लिए जाने का वादा किया है.”
उसके पैर लम्बे हैं, सिर्योझा ठीक से देख
भी न पाया कि एकदम – चौक आ गया, जहाँ दुकानें हैं. यहाँ करस्तिल्योव ने सिर्योझा को नीचे उतार दिया और वे खिलौनों की
दुकान की ओर चले.
दुकान की खिड़की में मोटे गालों वाली
गुड़िया असली चमड़े के जूते पहने, पैर फैलाए मुस्कुरा रही थी. नीले नीले भालू लाल
लाल ड्रम पर बैठे थे. पायोनियर बच्चों का बिगुल सोने जैसा दमक रहा था. सुख की
कल्पना से सिर्योझा की साँस रुकने लगी... दुकान के अन्दर संगीत बज रहा था. कोई एक
अंकल हाथ में एकार्डियन लिए कुर्सी पर बैठा था. वह बजा नहीं रहा था, बल्कि सिर्फ
थोड़ी थोड़ी देर में एकार्डियन को खींच देता था, तब उससे दिल को तड़पाने वाली,
सिसकियाँ लेती कराह निकलती और वह चुप हो जाता; और दूसरी ओर से ज़ोरदार म्युज़िक
सुनाई देने लगता, काउंटर के पास से. बढ़िया कपड़ों मे सजे धजे बहुत सारे अंकल, टाई
पहने, काउंटर के सामने खड़े थे और म्युज़िक सुन रहे थे. काउंटर के पीछे बूढ़ा
सेल्समेन खड़ा था. उसने करस्तिल्योव से
पूछा:
“आपको क्या चाहिए?”
“बच्चों की साइकल,” करस्तिल्योव ने कहा.
बूढ़े ने काउंटर के ऊपर से झुककर सिर्योझा
की ओर देखा.
“तीन पहियों वाली?” उसने पूछा.
“तीन पहियों वाली मुझे क्यों चाहिए...” सिर्योझा
ने तनाव के कारण थरथराती आवाज़ में कहा.
“वार्या!” बूढ़ा चिल्लाया.
उसकी पुकार पर कोई भी नहीं आया, और वह,
सिर्योझा के बारे में भूल गया – अंकल लोगों के पास गया और वहाँ उसने कुछ किया, और
ज़ोरदार म्युज़िक अचानक रुक गया, एक धीमा धीमा दुख भरा म्युज़िक सुनाई देने लगा.
सिर्योझा यह देखकर बेहद परेशान हो रहा था कि करस्तिल्योव भी भूल गया था कि वे यहाँ किसलिए आए हैं : वह भी
अंकल लोगों के पास गया, और वे सब बिना हिले डुले खड़े रहे, बस सामने की ओर देखते
हुए, सिर्योझा और उसके कँपकँपाहट भरे इंतज़ार के बारे में ज़रा भी न सोचते
हुए...सिर्योझा से रहा नहीं गया और उसने करस्तिल्योव की जैकेट पकड़ कर खींची. करस्तिल्योव होश में आ गया और गहरी साँस लेते हुए बोला,
“लाजवाब रेकार्ड है!”
“ये हमें साइकल देंगे ना?” खनखनाते हुए सिर्योझा
ने पूछा.
“वार्या!” बूढ़ा चिल्लाया.
ज़ाहिर है, इस वार्या के ऊपर ही निर्भर
करता था कि सिर्योझा के पास साइकल होगी या नहीं होगी. आख़िरकार वो वार्या आ ही गई,
वह काउंटर के पीछे, शेल्फ़ों के बीच में बने एक छोटे से दरवाज़े से आई, वार्या के
हाथ में ब्रेड-रोल था और वह उसे चबा रही थी. बूढ़े ने उसे गोदाम से दो पहियों वाली
साइकल लाने के लिए कहा, ‘इस नौजवान के लिए’, उसने कहा. सिर्योझा को अच्छा लगा कि
उसे इस नाम से पुकारा गया.
गोदाम, बेशक, सात समन्दर पार ही था,
क्योंकि वार्या तो खूब खूब देर तक लौटी ही नहीं. जब तक वह गायब रही, उस वाले अंकल
ने एकार्डियन ख़रीद लिया था, और करस्तिल्योव ने भी ग्रामोफोन ख़रीद लिया था. ये एक बक्सा होता
है, उसमें काली गोल गोल रेकार्ड रखी जाती है, वह गोल गोल घूमती है और म्युज़िक
बजाती है – ख़ुशी का या दुख का, जैसा आप चाहें; यही बक्सा तो बज रहा था काउंटर पर. करस्तिल्योव
ने कागज़ की थैलियों में बहुत सारे
रेकार्ड्स भी ख़रीदे, और किन्हीं सुईयों के दो छोटे छोटे डिब्बे भी.
“ये मम्मा के लिए,” उसने सिर्योझा से कहा, “हम
उसके लिए गिफ्ट ले जाएँगे.”
अंकल लोग बड़े ध्यान से देख रहे थे कि बूढ़ा
इन चीज़ों को कैसे पैक करता है. और तभी सात समन्दर पार से वार्या आई और साइकल लाई.
सचमुच की साइकल, स्पोक्स के साथ, घण्टी के साथ, हैण्डल के साथ, पैडल्स के साथ,
चमड़े की सीट के साथ, और छोटी सी लाल बत्ती के साथ! उस पर लोहे की छोटी सी पट्टी
पर, पीछे, नम्बर भी लिखा हुआ था – पीली पट्टी पर काले काले अंक!
“ये बढ़िया चीज़ आपकी होने जा रही है,” बूढ़े ने कहा. “हैण्डल घुमाईये, घण्टी
बजाईये, पैडल दबाईये. दबाईये, दबाईये, आप सिर्फ उनकी ओर देख क्यों रहे हैं? तो? ये
असली चीज़ है, कोई ऐसी वैसी नहीं है. आप हर रोज़ मुझे धन्यवाद दिया करेंगे.”
करस्तिल्योव ने बड़े प्यार से हैण्डल घुमाया, घंटी बजाई, और
पैडल्स भी दबाए, और सिर्योझा लगभग डर से यह सब देख रहा था, मुँह थोड़ा सा खोले,
जल्दी जल्दी साँस लेते हुए, मुश्किल से यक़ीन करते हुए कि यह सब दौलत अब उसकी होने
वाली है.
घर वह साइकल पर आया. मतलब – चमड़े की सीट
पर बैठकर, उसके प्यारे प्यारे गुदगुदेपन को महसूस करते हुए, डगमगाते हुए हाथों से
हैण्डल पकड़े और फिसल फिसल जा रहे ज़िद्दी पैडल पर काबू पाने की कोशिश करते हुए. करस्तिल्योव
लगभग दुहरा झुककर साइकल चला रहा था, उसे
गिरने से रोक रहा था. लाल चेहरे से, और हाँफ़ते हुए. इस तरह से वह सिर्योझा को गेट
तक लाया और उसे बेंच से टिकाकर रख दिया.
“अब ख़ुद सीखो,” उसने कहा, “तूने तो, दोस्त, मुझे
पूरा पसीने से तरबतर कर दिया.”
और वह घर के अन्दर चला गया. सिर्योझ्का के
पास फ़ौरन झेन्का, लीदा और शूरिक आ गए.
“मैं थोड़ी बहुत सीख भी गया!” सिर्योझा ने उनसे
कहा. दूर रहो, वर्ना मैं तुम लोगों को दबा दूँगा!”
उसने साइकल पर बेंच से कुछ दूर जाने की
कोशिश की और गिर पड़ा.
“धत् तेरे की!” उसने साइकल के नीचे से निकलते
हुए हँस कर कहा, जिससे यह दिखा सके कि कोई ख़ास बात नहीं हुई है. “पैडल ठीक से नहीं
घुमाया. पैडल पर पैर रखना बड़ा मुश्किल है.”
“तू जूते उतार दे,” झेन्का ने सलाह दी. “नंगे
पैर ज़्यादा अच्छा रहेगा – उंगलियों से पैडल पर जमा रहेगा. मुझे दे, मैं कोशिश करता
हूँ. मगर हाँ, पकड़े रहना.” वह सीट पर चढ़ गया. “कस के पकड़ना.” मगर हालाँकि उसे तीन
तीन लोगों ने पकड़ रखा था, वह भी गिर गया, और उसका साथ देते हुए सिर्योझा भी गिर
गया, जिसने उसे सबसे ज़्यादा कस कर पकड़ रखा था.
“अब मैं,” लीदा ने कहा.
“नहीं मैं,” शूरिक ने कहा.
“कैसी ख़तरनाक धूल है,” झेन्का ने कहा. “कहीं इस
पर सीख सकते हो? चलो, वास्का की गली में चलते हैं.”
इस नाम से वे छोटी सी बन्द गली को पुकारते
थे जो वास्का के बाग के पीछे थी. गली के दूसरी ओर एक लकड़ी का गोदाम था, जो ऊँची
बागड़ से घिरा था. घुंघराली, नर्म नर्म, छोटी छोटी घास इस ख़ामोश गली में उग आई थी,
जहाँ बड़ों की नज़रों से दूर खेलना बड़ा सुविधाजनक लगता था. और हालाँकि उस गली का
बन्द छोर तिमोखिन के बगीचे से सटा था और दोनों माँएँ – वास्का की माँ और शूरिक की
माँ – समान अधिकार से अपनी गन्दे पानी की बाल्टियाँ घुंघराली घास में उंडेलती थीं –
मगर इस बात में किसी को भी शक नहीं था कि इस भाग पर पहला अधिकार वास्का का है; इसीलिए
इस गली को वास्का का नाम दिया गया था. झेन्का साइकल को वहीं लाया. लीदा और शूरिक
उसकी मदद कर रहे थे, इस बात पर बहस करते हुए कि उनमें से कौन पहले चलाना सीखेगा,
और सिर्योझा पीछे पीछे पहिये को पकड़े हुए दौड़ रहा था.
झेन्का ने बड़े होने की वजह से यह घोषणा की
कि पहले वह सीखेगा, उसके बाद सीखा लीदा ने, लीदा के बाद शूरिक ने. फिर सिर्योझा को
थोड़ी देर सीखने के लिए साइकल दी गई, मगर फ़ौरन ही झेन्का ने कहा:
“बस! उतर नीचे! अब मेरी बारी है!”
सिर्योझा का साइकल से उतरने को ज़रा भी मन नहीं
कर रहा था. उसने अपने हाथों पैरों से कस कर उसे पकड़ लिया और बोला, “मुझे और चलानी
है! ये मेरी सैकल है!”
मगर तभी, जैसी कि उम्मीद थी, शूरिक ने उसे
डाँटा,
‘उफ़, लालची!”
और लीदा भी जानबूझ कर बेसुरी आवाज़ में
शामिल हो गई, “लालची-इलायची! लालची-इलायची!”
“लालची-इलायची” होना बड़े शर्म की बात है;
सिर्योझा चुपचाप उतर कर दूर हट गया. वह तिमोखिन की बागड़ की ओर गया, और बच्चों की
ओर पीठ करके रोने लगा. वह इसलिए रो रहा था, क्योंकि उसे बड़ा अपमान लगा था; क्योंकि
वह अपनी ख़ुद की पैरवी नहीं कर सका था; क्योंकि इस समय पूरी दुनिया में उसे साइकल
के अलावा किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं थी, मगर वे, बेरहम और ताक़तवर, इस बात को नहीं
समझते हैं!
उन्होंने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. वह
उनकी ज़ोर ज़ोर से हो रही बहस को, घंटी को और बार बार गिरती हुई साइकल की खनखनाहट को
सुन रहा था. उसे किसी ने नहीं बुलाया, किसी ने नहीं कहा , ‘अब तू चला’, वे
तीसरी-तीसरी बार चला रहे थे, और वह खड़े खड़े रो रहा था. अचानक अपनी बागड़ के पीछे से
वास्का प्रकट हुआ.
वह प्रकट हुआ – कमर तक नंगा, खूब लम्बी
लम्बी - बढ़े हुए साइज़ की – पतलून पहने, बेल्ट बांधे, कैप का कोना पीछे किए –
ज़बर्दस्त, ताक़तवर व्यक्तित्व! एक मिनट देखा, बागड़ के पार से, और सब समझ गया.
“ऐ!” वह चीखा, “तुम लोग कर क्या रहे हो? सैकल
किसके लिए ख़रीदी है – उसके लिए या तुम्हारे लिए? चल, आ जा सेर्गेई!”
वह बागड़ फाँद कर आया और उसने मज़बूत हाथ से
हैंडिल पकड़ लिया. झेन्का, लीदा और शूरिक चुपचाप पीछे हट गए. कुहनियों से आँसू
पोंछते हुए सिर्योझा साइकल के पास आया. लीदा फिसकने लगी.
“दो लालची!”
“और तू...पैरेसाइट कहीं की,” वास्का ने जवाब
दिया. और उसने लीदा के बारे में और भी बुरी बुरी बातें कहीं. – “इंतज़ार नहीं कर
सकती थी, जब तक ये छोटा बच्चा सीख लेता,” और उसने सिर्योझा को हुक्म दिया, “बैठ!”
सिर्योझा बैठ गया और देर तक सीखता रहा.
और, सारे बच्चे उसकी मदद कर रहे थे, सिवाय लीदा के – वह घास पर बैठ कर घास के
फूलों का हार बना रही थी और ऐसा दिखा रही थी कि उसे इन लोगों से ज़्यादा मज़ा आ रहा
है जो साइकल चला रहे हैं. फिर वास्का ने कहा,
“अब मैं,” और सिर्योझा ने उसे ख़ुशी ख़ुशी
साइकल दे दी; वह वास्का के लिए कुछ भी करने को तैयार था. फिर सिर्योझा ने ख़ुद,
अकेले साइकल चलाई, और क़रीब क़रीब गिरा भी नहीं, बस साइकल डगमगा कर कहीं भी चली जा
रही थी, और अनजाने में सिर्योझा का पैर पहिए में चला गया , और चारों की चारों
स्पोक्स बाहर निकल गईं, मगर कोई बात नहीं, साइकल तो चलती ही रही. फिर सिर्योझा को
बच्चों पर दया आ गई, वह बोला, “उन्हें भी चलाने दो. सब लोग एक एक बार चलाएँगे.”
पाशा बुआ बाहर आँगन में आई और उसे सड़क से
सिर्योझा के रोने की आवाज़ सुनाई दी. गेट खुला, झुंड बनाकर बच्चे भीतर आए. सबसे आगे
था सिर्योझा, वह हाथ में साइकल का हैंडल पकड़े था; वास्का फ्रेम उठाए था, झेन्का –
दोनों पहिए, दोनों कंधों पर एक एक; लीदा – घंटी; सबसे पीछे था उछलता हुआ शूरिक
साइकल के स्पोक्स की गड्डी उठाए.
“हे भगवान!” पाशा बुआ ने कहा.
शूरिक ने नीची आवाज़ में कहा, “ये उसने ख़ुद
ने ही किया है. उसका पैर पहिए में फँस गया था.”
करस्तिल्योव बाहर आया और भौंचक्का रह गया.
“अच्छी हालत बनाई उसकी,” उसने कहा.
सिर्योझा गला फ़ाड़कर रो पड़ा.
“दुखी मत हो, दुरुस्त कर देंगे,” करस्तिल्योव ने वादा किया. “कारखाने में दे देंगे – नई जैसी
हो जाएगी.”
सिर्योझा ने बस हाथ हिला दिया और रोने के
लिए पाशा बुआ के कमरे में चला गया : करस्तिल्योव तो यूँ ही कह रहा है, जिससे मुझे धीरज बंधा सके;
कहीं इन टुकड़ों से पहले जैसी ख़ूबसूरत साइकल बनाई जा सकती है? वो, जो चलती थी और
घंटी बजाती थी, और धूप में जिसके स्पोक्स चमचमाते थे? नहीं हो सकता, नहीं हो सकता!
सब ख़त्म हो गया, सब कुछ! सिर्योझा पूरे दिन दुखी रहा, ग्रामोफोन भी उसे ख़ुश नहीं
कर सका, जो करस्तिल्योव ख़ास तौर से उसके
लिए बजा रहा था. “गूंज रहे थे, खेल रहे थे तार! ऐसा हमने देखा पहली पहली बार!”
– पूरी गली में रेकार्ड वाला बक्सा तैश में गाए जा रहा था, और सिर्योझा सुन भी रहा
था और नहीं भी सुन रहा था, सिर्फ निराशा से सिर हिलाते हुए वह अपने ही बारे में
सोचे जा रहा था.
...मगर, आप क्या सोचने लगे – साइकल सचमुच
में दुरुस्त कर दी गई. करस्तिल्योव ने यूँ
ही गप नहीं मारी थी. उसे सोव्खोज़ ‘यास्नी बेरेग’ के कारीगरों ने दुरुस्त कर दिया
था. सिर्फ यह कहा था कि बड़े बच्चे इसे न चलाएँ; वर्ना वह फिर टूट जाएगी. वास्का और
झेन्का ने उनकी बात मान ली, तब से सिर्फ सिर्योझा और शूरिक ही साइकल चलाते हैं, और
हाँ, लीदा भी बड़ों से छुपकर चलाती है, मगर लीदा दुबली पतली है और ज़्यादा भारी भी
नहीं है, चलाने दो उसे.
सिर्योझा अब बढ़िया साइकल चलाने लगा, पहाड़ी
से उतरना भी सीख गया है – हैंडल छोड़कर, सीने पर हाथ रखे, जैसा कि एक बढ़िया साइकल
चलाने वाले ने किया था. मगर न जाने क्यों सिर्योझा को अब अपनी साइकल होने की वैसी
ख़ुशी नहीं हो रही थी, वैसी आकस्मिक उत्तेजना नहीं महसूस हो रही थी, जैसे उन पहले
के कुछ ख़ुशनुमा घंटों में हुई थी...
और फिर जल्दी ही साइकल से उसका जी भर गया.
वह किचन में खड़ी रहती थी और अपनी लाल लाइट और चांदी जैसी घंटी के साथ, ख़ूबसूरत और
फिट, मगर सिर्योझा पैदल ही अपने काम के लिए चला जाता, उसकी ख़ूबसूरती के प्रति
उदासीन: हर चीज़ से जी भर गया, क्या किया जाए! बस!
अध्याय 6
करस्तिल्योव और बाकी लोगों में क्या फ़र्क है
बड़े लोगों के पास कितने फ़ालतू शब्द होते
हैं
! मिसाल के तौर पर,
यही देखिए:
सिर्योझा चाय पी रहा था और उसने चाय गिरा
दी; पाशा बुआ कहती है:
“कैसा फ़ूहड़ है! तेरे रहते तो घर में मेज़पोश रह
ही नहीं सकता. अब कोई छोटा तो नहीं है तू, शायद!”
यहाँ सारे के सारे शब्द फ़ालतू हैं,
सिर्योझा की राय में. सबसे पहले, वह उन्हें सौ बार सुन चुका है. और दूसरी बात,
उनके बिना भी वह समझता है कि उससे गलती हुई है: जैसे ही चाय गिराई, समझ गया और उसे
बहुत बुरा भी लगा. उसे शर्म आ रही है और वह बस एक ही बात चाहता है – कि वह जल्दी
से मेज़पोश निकाल ले, जब तक और लोग इस ओर ध्यान दें. मगर वह है कि बोले ही जाती है,
बोले ही जाती है:
“तुम कभी भी नहीं सोचते कि किसी ने इस मेज़पोश को
धोया, कलफ़ किया, इस्त्री की, मेहनत की...”
“मैंने जान बूझ कर तो नहीं किया,” सिर्योझा उसे
समझाता है, “मेरे हाथों से कप छूट गया.”
“मेज़पोश पुराना है,” पाशा बुआ शांत होने का नाम
ही नहीं लेती, “मैंने उसे रफ़ू किया, पूरी शाम बैठी रही, कितनी मेहनत की.”
जैसे कि अगर मेज़पोश नया होता तो उस पर चाय
गिराई जा सकती थी!
अंत में पाशा बुआ उद्विग्नता से कहती है:
“शुक्र है कि तूने ये जानबूझ कर नहीं किया! बस,
इसी की कमी रह गई थी!”
यदि सिर्योझा कोई चीज़ फ़ोड़ देता है, तब भी
यही सब कुछ कहा जाता है. मगर जब वे ख़ुद गिलास और प्लेटें तोड़ते हैं, तो ऐसा दिखाते
हैं कि ऐसा ही होना चाहिए था.
या फिर, मिसाल के तौर पर, मम्मा यह कोशिश
करती है कि वह ‘प्लीज़’ कहा करे, मगर इस शब्द के तो कोई मायने ही नहीं हैं.
“इससे विनती प्रकट होती है,” मम्मा ने कहा. “तुम
मुझसे पेन्सिल मांगते हो, और यह दिखाने के लिए कि यह विनती है, तुम उसके साथ
‘प्लीज़’ जोड़ते हो.”
“मगर क्या तुम समझी नहीं,” सिर्योझा ने पूछा,
“कि मैंने तुमसे पेन्सिल मांगी है?”
“समझ गई, मगर बगैर ‘प्लीज़’ के – यह अशिष्टता
होगी, असभ्यता होगी. इसका क्या मतलब हुआ: “पेन्सिल दे!” मगर, अगर तुम कहते हो कि
“पेन्सिल दो, प्लीज़,” – तो यह शिष्टाचार है, और मैं ख़ुशी-ख़ुशी दूँगी.”
“और अगर मैं न कहूँ – तो बिना ख़ुशी के दोगी?”
“बिल्कुल नहीं दूँगी!” मम्मा ने कहा.
अच्छी बात है, प्लीज़ - सिर्योझा उनसे कहता है
“प्लीज़”, अपनी सारी अजीब अजीब हरकतों के बावजूद वे ताकतवर हैं और बच्चों पर राज
करते हैं, वे सिर्योझा को पेन्सिल दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते हैं, जैसी
उनकी मर्ज़ी.
मगर करस्तिल्योव ऐसी फ़ालतू की बातों से परेशान नहीं होता, वह उन
पर ध्यान भी नहीं देता – कि सिर्योझा ने ‘प्लीज़’ कहा है या नहीं कहा.
और अगर सिर्योझा गली के कोने में अपने खेल
में मगन है और वह नहीं चाहता कि कोई उसे इसमें से बाहर खींचे – करस्तिल्योव कभी भी उसका खेल नहीं बिगाड़ता, वह कोई भी
बेवकूफ़ी भरी बात नहीं कहेगा, जैसे, “चल, आ जा, मैं तेरी पप्पी ले लूँ!” – जैसा
लुक्यानिच कहता है, काम से लौटते समय. अपनी कड़ी दाढ़ी से सिर्योझा की पप्पी लेकर
लुक्यानिच उसे चॉकलेट या सेब देता है. धन्यवाद, मगर बताइए तो, इन्सान की क्यों
ज़बर्दस्ती पप्पी ली जाए और उसे खेल से उठा लिया जाए- खेल तो सेब से ज़्यादा ज़रूरी
है, सेब तो सिर्योझा बाद में भी खा सकता है.
...घर में कई तरह के लोग आते हैं – अक्सर करस्तिल्योव
के पास. सबसे ज़्यादा आता है अंकल तोल्या.
वह जवान है और ख़ूबसूरत है, उसकी काली लम्बी बरौनियाँ हैं, सफ़ेद दाँत और शर्मीली
मुस्कुराहट है. सिर्योझा के मन में उसके प्रति आदर है, दिलचस्पी है, क्योंकि अंकल
तोल्या कविताएँ लिख सकता है.
उसे अपनी नई कविताएँ पढ़ने के लिए मनाते
हैं, पहले तो वह शरमाता है और इनकार करता है, फिर उठ कर खड़ा हो जाता है, एक ओर को
जाता है और मुँह ज़बानी पढ़ने लगता है. कौन सी ऐसी चीज़ है जिसके बारे में उसने कविता
नहीं लिखी है! युद्ध के बारे में, शांति के बारे में, कल्ख़ोज़ के बारे में,
फ़ासिस्टों के बारे में, और बसंत के बारे में, और नीली आँखों वाली किसी लड़की के
बारे में जिसका वह इंतज़ार कर रहा है, इंतज़ार कर रहा है, और यह इंतज़ार ख़त्म होने का
नाम ही नहीं ले रहा है. लाजवाब कविताएँ! वैसी ही लय में, और प्रवाह में, जैसी
किताबों में होती हैं! पढ़ने से पहले अंकल तोल्या खाँसता है और एक हाथ से अपने काले
बाल पीछे करता है; और ज़ोर से पढ़ता है, छत की ओर देखते हुए. सब उसकी तारीफ़ करते
हैं, और मम्मा उसके लिए प्याले में चाय डालती है. चाय पीते हुए गायों की बीमारियों
के बारे में बातें करते हैं: अंकल तोल्या ‘यास्नी बेरेग’ में गायों का इलाज करता
है.
मगर घर में आने वाले सभी लोग अच्छे और
आपका ध्यान खींचने वाले नहीं होते. मिसाल के तौर पर, अंकल पेत्या से सिर्योझा दूर
ही रहता है: उसका चेहरा ही बड़ा घिनौना है, और सिर हल्का गुलाबी और गंजा है जैसे
प्लास्टिक की गेंद हो. और हँसी भी गन्दी है : “ही-ही-ही-ही!” एक बार, मम्मा के साथ
छत पर बैठे हुए – करस्तिल्योव घर पर नहीं
था – अंकल पेत्या ने सिर्योझा को अपने पास बुलाया और एक चॉकलेट दी – बड़ी और
मुश्किल से मिलने वाली ‘मीश्का कोसोलापी’. सिर्योझा ने शराफ़त से कहा: ‘धन्यवाद’,
रैपर खोला, मगर उसमें कुछ भी नहीं था – वह एकदम ख़ाली था. सिर्योझा को बड़ी शर्म आई –
अपने आप पर कि उसने विश्वास किया, और अंकल पेत्या पर कि उसने धोखा दिया. सिर्योझा
ने देखा कि मम्मा को भी शर्म आ रही थी, उसने भी विश्वास कर लिया था....
“ही-ही-ही-ही!” अंकल पेत्या हँसने लगा.
सिर्योझा ने बिना गुस्सा हुए, अफ़सोस से
कहा:
“अंकल पेत्या, तू बेवकूफ़ है?”
उसे पूरा यक़ीन था कि मम्मा भी उससे सहमत
थी. मगर वह विस्मय से चिल्लाई, “ये क्या है! चल, फ़ौरन माफ़ी मांग!”
सिर्योझा ने अचरज से उसकी ओर देखा.
“तूने सुना, मैंने क्या कहा?” मम्मा ने पूछा.
वह ख़ामोश रहा. उसने उसका हाथ पकड़ा और घर
के भीतर ले गई.
“मेरे पास आने की हिम्मत भी न करना,” उसने कहा.
“अगर तू इतना फ़ूहड़ है, तो मुझे तुझसे बात भी नहीं करनी है.”
वह कुछ देर खड़ी रही, इस उम्मीद में कि वह
पछताएगा और माफ़ी मांगेगा. मगर उसने अपने होंठ भींच लिए और आँखें फेर लीं, जिनमें
दुख और खिन्नता थी. वह अपने आप को दोषी नहीं मान रहा था; फिर वह माफ़ी किस बात की
मांगे? उसने वही कहा जो वह सोच रहा था.
वह चली गई. वह अपने कमरे में आया और
खिलौनों से दिल बहलाने लगा, जिससे इस बात से ध्यान हटा सके. उसकी पतली-पतली
उँगलियाँ थरथरा रही थीं; पुराने ताशों से काटी गई तस्वीरें देखते हुए उसने अनजाने
में काली औरत का सिर फ़ाड़ दिया...मम्मा बेवकूफ़ अंकल पेत्या की तरफ़दारी क्यों कर रही
है? देखो, कैसे वह उसके साथ बातें कर रही है और हँस रही है, जैसे कुछ हुआ ही न हो;
और सिर्योझा से तो उसे बात भी नहीं करनी है...
शाम को उसने सुना कि कैसे वह करस्तिल्योव को इस बारे में बता रही थी.
“तो ठीक ही किया,” करस्तिल्योव ने कहा. “इसे कहते हैं निष्पक्ष आलोचना.”
“क्या इस बात की इजाज़त दी जा सकती है,” मम्मा ने
प्रतिरोध करते हुए कहा, “कि बच्चा बड़ों की आलोचना करे? अगर बच्चे हमारी आलोचना
करने लगें – तो हम उन पर संस्कार कैसे डालेंगे? बच्चे को बड़ों का आदर करना ही
चाहिए.”
“किसलिए, माफ़ कीजिए, उसे इस ठस दिमाग का आदर
करना चाहिए!” करस्तिल्योव ने कहा.
“करना ही होगा आदर. उसके दिमाग़ में ये ख़याल भी
पैदा नहीं होना चाहिए कि बड़ा आदमी ठस दिमाग़ हो सकता है. पहले बड़ा हो जाए, इसी
प्योत्र इलिच के जितना, तब भले ही वह उसकी आलोचना कर ले.”
“मेरे ख़याल से,” करस्तिल्योव ने कहा, “दिमाग़ी तौर पर वह कब का प्योत्र इलिच
से बड़ा हो गया है. और शिक्षा शास्त्र के किसी भी नियम के अनुसार बच्चे को इस बात
के लिए सज़ा नहीं दी जानी चाहिए कि उसने बेवकूफ़ को बेवकूफ़ कहा.”
आलोचना और शिक्षा शास्त्र वाली बात तो
सिर्योझा समझ नहीं सका, मगर बेवकूफ़ के बारे में समझ गया, और इन शब्दों के लिए उसने
करस्तिल्योव के प्रति कृतज्ञता का अनुभव
किया.
अच्छा आदमी है करस्तिल्योव , अजीब सा लगता
है सोचने में, कि पहले वह सिर्योझा से दूर, नास्त्या दादी और परदादी के साथ रहता
था, और कभी कभार उसके घर आया करता था.
अध्याय -7
झेन्का
झेन्का – अनाथ है, अपनी मौसी और बहन के
साथ रहता है. बहन – उसकी सगी बहन नहीं है – मौसी की बेटी है. दिन में वह काम पर जाती है, और शाम को
इस्त्री करती है. वह अपने ड्रेस इस्त्री करती है. आँगन में बड़ी भारी इस्त्री लिए
आती है, जो कोयले से गरम होती है. कभी वह इस्त्री पर फूँक मारती है, कभी उस पर
थूकती है, कभी उस पर समोवार की नली रखती है. और उसके बाल छोटी-छोटी लोहे की पिनों
में गोल गोल बंधे रहते हैं.
अपनी ड्रेस को इस्त्री करने के बाद वह
तैयार होती है, बाल खुले छोड़ती है और हाउस ऑफ़ कल्चर में डांस करने के लिए जाती है.
दूसरे दिन शाम को फिर इस्त्री के साथ आँगन में कुछ कुछ करती रहती है.
मौसी भी नौकरी करती है. वह हमेशा शिकायत
करती है कि वह सफ़ाई मर्मचारी भी है और डाकिया भी है, मगर तनख़्वाह उसे सिर्फ सफ़ाई
कर्मचारी की दी जाती है; जबकि स्टाफ़-लिस्ट में डाकिए का ख़ास तौर से उल्लेख किया
गया है. वह बड़ी देर तक बाल्टियाँ लिए नुक्कड़ के नल पर खड़ी रहती है, और औरतों को
सुनाती रहती है कि उसने कैसे अपने मैनेजर को खरी खरी सुनाई और कैसे उसके ख़िलाफ़
शिकायत लिखी.
झेन्का पर मौसी हमेशा गुस्सा करती है, कि
वह ख़ूब खाता है और घर में कुछ काम नहीं करता.
मगर उसका तो काम करने का मन ही नहीं होता.
वह सुबह उठता है, उसके लिए जो रखा है वह खाता है और बच्चों के पास निकल जाता है.
पूरा दिन या तो वह सड़क पर होता है या
पड़ोसियों के यहाँ. जब वह आता है तो पाशा बुआ उसे खाना खिलाती है. मौसी के काम से
लौटने से पहले झेन्का घर जाता है और पढ़ने बैठ जाता है. गर्मियों की छुट्टियों के
लिए उसे ख़ूब सारा होम वर्क दिया गया है, क्योंकि वह बहुत पिछड़ गया है: दूसरी कक्षा
में वह दो साल पढ़ा, तीसरी में दो साल और चौथी क्लास में भी यह उसका दूसरा साल है.
जब वह स्कूल में दाख़िल हुआ था तब वास्का अभी छोटा ही था, मगर अब वास्का उसके बराबर
आ गया है, बावजूद इसके कि वह भी तीसरी क्लास में दो साल बैठा रहा.
और ऊँचाई और ताक़त में भी वास्का ने झेन्का
को पीछे छोड़ दिया था...
शुरू शुरू में तो टीचर्स झेन्का के बारे
में परेशान रहते थे, उसकी मौसी को स्कूल में बुलाते, ख़ुद उसके पास जाते, मगर वह
उनसे कहती:
“मेरे सिर का बोझ है वो, उसके साथ आप जो चाहे कर
लीजिए, मगर मेरे लिए तो कुछ भी संभव नहीं है, वह मुझे खा गया है – पूरी तरह – अगर
सुनना है तो सुनिए.”
और औरतों से शिकायत करती:
“कहते हैं उसे पढ़ाई के लिए एक अलग कोना दो. उसे
कोना नहीं, चाबुक चाहिए – बढ़िया चाबुक, दया सिर्फ इसलिए आती है कि वह मेरी
स्वर्गवासी बहन की निशानी है.”
फिर टीचर्स ने उसके पास आना बन्द कर दिया.
बल्कि वे झेन्का की तारीफ़ भी करने लगे: कहने लगे, बड़ा अनुशासन वाला लड़का है; दूसरे
लड़के क्लास में शोर मचाते हैं, मगर वह ख़ामोश बैठा रहता है – बड़े अफ़सोस की बात है
कि वह स्कूल में कभी-कभार ही आता है, और उसे कुछ आता भी नहीं है.
वे बर्ताव के लिए झेन्का को ‘अति उत्तम’
ग्रेड देते. गाने में भी ‘अच्छा’ ग्रेड मिलता. मगर बाकी के विषयों में उसे ‘बुरा’
और ‘बहुत बुरा’ ग्रेड मिलता.
मौसी के सामने झेन्का ऐसे दिखाता है जैसे
पढ़ रहा हो, जिससे कि वह उस पर कम चिल्लाए. वह घर आती है, तब वह किचन की मेज़ के पास
बैठा मिलता है, जहाँ गन्दे बर्तन पड़े रहते हैं और गन्दे कपड़े इधर-उधर बिखरे रहते
हैं – वह बैठा रहता है और गणित के सवाल हल करता रहता है.
“तू क्या रे, गिरगिट,” मौसी शुरू हो जाती है,
“फिर से पानी नहीं लाया, केरोसिन लाने भी नहीं गया, कुछ भी नहीं किया? मैं क्या
पूरी उम्र तेरे साथ सड़ती रहूँगी, सूखे के मरीज़?”
“मैं पढ़ रहा था,” झेन्का जवाब देता है.
मौसी चिल्लाती है – वह हिकारत से गहरी
साँस लेकर पेन रख देता है और केरोसिन के लिए डिब्बा उठा लेता है.
“तू क्या मेरा मज़ाक उड़ा रहा है क्या?!” मौसी
अजीब आवाज़ में चीख़ती है. “तुझे मालूम है, शैतान, कि दुकान बन्द हो चुकी है!!”
“हाँ , बन्द हो गई है,” झेन्का उसकी बात से सहमत
होते हुए कहता है, “तू चिल्ला क्यों रही है?”
“
जा, लकड़ियाँ तोड़ कर ला!!!” मौसी इस तरह गला फ़ाड़ती है कि लगता है वह अभी फट जाएगा.
“जा, बगैर लकड़ियों के घर में पैर न रखना!!!”
वह बेंच से बाल्टियाँ उठाती है और
आक्रामकता से उन्हें हिलाते हुए, चीख़ते हुए पानी लाने जाती है, और झेन्का आराम से
लकड़ियाँ तोड़ने के लिए शेड में जाता है.
मौसी झूठ बोलती है कि वह आलसी है. ऐसी कोई
बात नहीं है. अगर पाशा बुआ उससे किसी काम के लिए कहती है, या बच्चे कुछ करने को
कहते हैं, तो वह ख़ुशी ख़ुशी करता है. जब उसकी तारीफ़ करते हैं, तो वह बड़ा ख़ुश हो
जाता है और काम को यथासंभव करने की कोशिश करता है. एक बार तो उसने वास्का के साथ
मिलकर एक मीटर लम्बा पेड़ का ठूंठ काट काट कर लकड़ियाँ जमा दी थीं.
और यह भी झूठ है कि वह मोटी अक्ल वाला है.
सिर्योझा को किसी ने लोहे का मेकैनो सेट भेंट में दिया था, तब झेन्का और शूरिक ने
मिलकर ऐसा बढ़िया सिग्नल-पोस्ट बनाया था कि कालीनिन स्ट्रीट से बच्चे उसे देखने आते
थे: लाल-हरी बत्ती वाला था सिग्नल पोस्ट. इस काम में शूरिक ने खूब मदद की थी, उसे
मशीनों के बारे में काफ़ी कुछ जानकारी है, क्योंकि उसके पापा – तिमोखिन – ड्राइवर
हैं, मगर शूरिक के दिमाग में यह बात नहीं आई कि सिर्योझा की क्रिसमस ट्री पर सजाए
गए रंगीन बल्ब लेकर सिग्नल-पोस्ट पर लगा दिए जाएँ, मगर झेन्का यह बात समझ गया.
सिर्योझा के प्लास्टीसिन के साँचे से
झेन्का आदमी और जानवर बनाता है – ठीक ठाक ही होते हैं, बुरे भी नहीं होते.
सिर्योझा की मम्मा ने जब यह देखा तो उसके लिए भी प्लास्टीसिन ख़रीदा. मगर मौसी
चिल्ला चोट मचाने लगी कि झेन्का को वह ऐसी बेवकूफ़ियाँ नहीं करने देगी, और उसने
प्लास्टीसिन को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया.
वास्का से झेन्का ने सिगरेट पीना भी सीख
लिया. सिगरेट ख़रीदने के लिए तो उसके पास पैसे थे नहीं, तो वह वास्का की सिगरेट
पीता है; और जब सड़क पर कोई सिगरेट का टुकड़ा मिलता है, तो वह उसे उठा लेता है और
पीता है. सिर्योझा, झेन्का पर दया करके, ज़मीन पर पड़े हुए सिगरेट के टुकड़े उठा उठा
कर उसे देता रहता है.
छोटे बच्चों के सामने, वास्का की तरह,
झेन्का कभी अकड़ता नहीं है – वह उनके साथ कोई भी खेल खेलता है: अगर वे युद्ध का खेल
खेलना चाहते हैं – तो युद्ध खेलता है, पुलिस का खेल चाहते हैं – तो पुलिस का खेल;
लोटो खेलना चाहें – तो लोटो. मगर बड़ा होने के कारण वह जनरल या पुलिस अफ़सर बनना
चाहता है. और जब लोटो खेल रहे होते हैं, तस्वीरों के साथ, और वह जीतता है, तो उसे
बड़ी ख़ुशी होती है; मगर जब नहीं जीतता तो वह बुरा मान जाता है.
उसका चेहरा ख़ूब दयालु है, मोटे मोटे होंठ;
लम्बे लम्बे बाहर को निकले कान; और गर्दन पर, पीछे, चोटियाँ, क्योंकि बाल वह
कभी-कभार ही कटवाता है.
एक बार वास्का और झेन्का बगिया की ओर गए
और सिर्योझा को भी अपने साथ ले गए. बगिया में उन्होंने आग जलाई, जिससे आलू भून
सकें. आलू, नमक और हरी प्याज़ वे अपने साथ लाए थे. आग बड़े धीरे धीरे सुलग रही थी, ख़ूब घना धुँआ निकल रहा था.
वास्का ने झेन्का से कहा, “चलो, तुम्हारे भविष्य के बारे में बात करते हैं.”
झेन्का घुटनों को ऊपर उठाए बैठा था,
घुटनों के चारों ओर हाथों का घेरा, ठोढ़ी घुटनों पर टिकी हुई थी, उसकी तंग पतलून
ऊपर उठ गई थी और पतले पतले पैर दिखाई दे रहे थे. वह एकटक गहरे, भूरे और पीले धुएँ
के ग़ुबार की ओर देखे जा रहा था, जो आग में से निकल रहा था.
“स्कूल तो
हर हाल में पूरा करना ही होगा,” वास्का ने इस अंदाज़ में कहा जैसे वह हर विषय में
प्रवीण हो और झेन्का से कम से कम पाँच क्लास आगे हो. “बिना शिक्षा के – तुम्हारी
किसे ज़रूरत है?”
“ये तो
सही है,” झेन्का ने सहमति दिखाई. “बिना शिक्षा के मैं किसी काम का नहीं.”
उसने एक टहनी उठाई और आग को कुरेदा, जिससे कि वह
अच्छी तरह जलने लगे. गीली टहनियाँ फुफकार रही थीं, उनमें से थूक बाहर निकल रहा था,
और धीरे धीरे सुलग रहा था. उस खुली जगह के चारों ओर, जहाँ बच्चे बैठे थे, बर्च के
ऍस्पेन के और ऍल्डर के घने पेड़ थे. अपने खेलों में बच्चे इन पेड़ों को ‘ऊँघता हुआ
जंगल’ कहते थे. बसंत में वहाँ काफ़ी सारे लिली के फूल होते थे और गर्मियों में ख़ूब
सारे मच्छर. इस समय धुएँ से परेशान मच्छर दूर हट गए थे; मगर कुछ कुछ बहादुर धुएँ
के बीच भी उड़कर आ रहे थे और काट रहे थे, और तब बच्चे ज़ोर ज़ोर से अपने पैरों और
गालों पर थप्पड़ मारते.
“तू अपनी
मौसी को उसकी जगह दिखा दे, और बस...” वास्का ने सलाह दी.
“कोशिश तो
करके देख!” झेन्का ने प्रतिवाद किया. “कोशिश तो कर उसे उसकी जगह दिखाने की.”
“या फिर
उसकी ओर ध्यान ही मत दे.”
“मैं यही
करता हूँ, ध्यान ही नहीं देता. मैं उससे बेज़ार हो गया हूँ. बस, तू देख रहा है न –
मेरा जीना दूभर कर दिया है उसने.”
“और
ल्यूस्का?”
“ल्यूस्का
का ठीक ठाक है – ल्यूस्का का क्या, वह शादी करने की सोच रही है.”
“किससे?”
“किसी से
भी. उसका प्लान है – फ़ौजी अफ़सर से शादी करने का, मगर यहाँ तो अफ़सर हैं ही नहीं.
शायद वह कहीं चली जाएगी, जहाँ फ़ौजी अफ़सर हों.”
आग जल उठी थी: आग ने नमी को भगाकर पत्तों और
टहनियों को अपनी लपेट में ले लिया था, उसकी चमकीली लपटें फुदक रही थीं. अचानक
पिस्तौल की गोली छूटने जैसी आवाज़ हुई. धुँआ अब बिल्कुल नहीं था.
“जा,
भाग,” वास्का ने सिर्योझा को हुक्म दिया, “सूखी चीज़ें ले आ आग में डालने के लिए.”
सिर्योझा दिए गए काम को करने के लिए भागा. जब वह
वापस आया तो झेन्का बोल रहा था, और वास्का बड़े ध्यान से और व्यस्तता के भाव से सुन
रहा था.
“मैं तो
ठाठ से रहूँगा!” झेन्का कह रहा था. “तुम ज़रा सोचो: शाम को होस्टल में वापस आओगे –
तुम्हारे पास अपना बिस्तर है, एक अलमारी है...लेट जाओ और रेडियो सुनो, या फिर
ड्राफ्ट्स खेलो, कोई तुम्हारे कान के पास आकर नहीं चिल्लाएगा...तुम्हारे लिए
लेक्चर्स आयोजित किए जाते हैं, कॉन्सर्ट्स होती हैं...और रात को खाना – आठ बजे.”
“हाँ,”
वास्का ने कहा, “सभ्य समाज में जैसे होता है. मगर तुम्हें वहाँ ले लेंगे?”
“मैं
अर्ज़ी दूँगा. क्यों नहीं लेंगे. शायद ले लें.”
“तू कब
हुआ था?”
“मैं सन्
तैंतीस में. मुझे पिछले हफ़्ते चौदह पूरे हो गए.”
“अगर मौसी
ने मना कर दिया तो?”
“वह मना
नहीं करेगी, उसे बस इसी बात का डर है कि अगर मैं चला गया तो फिर उसकी कोई मदद नहीं
करूँगा.”
“जाने दे
उसे,” वास्का ने कहा और कुछ बुरे शब्द भी कहे.
“हाँ,
मैं, चाहे जो भी हो, शायद, चला जाऊँगा,” झेन्का ने कहा.
“तू, सबसे
ज़रूरी बात, कोई निर्णय ले और उस तरह से काम कर,” वास्का ने कहा. “वर्ना यह ‘शायद’,
‘शायद’ करता रहेगा और स्कूल का नया साल शुरू हो जाएगा, और तेरी मुसीबतें फिर से
शुरू हो जाएँगी.”
“हाँ, मैं
शायद निर्णय ले ही लूँगा,” झेन्का ने कहा, “मैं उसके अनुसार काम करूँगा. मैं,
वास्या, मालूम है, अक्सर इस बारे में सपने देखता हूँ. जैसे ही याद आता है कि जल्दी
से एक सितम्बर आने वाला है – मुझे इतना बुरा लगता है, इतना बुरा लगता है...”
“हाँ, देख
ना!” वास्का ने कहा.
जब तक आलू भुन रहे थे वे झेन्का के प्लान्स के
बारे में बातें करते रहे. फिर उन्होंने आलू खाए, उँगलियाँ जल रही थीं, मोटी हरी
प्याज़ मुँह में कर्र कर्र आवाज़ कर रही थी; और फिर वे लेट गए. सूरज डूब रहा था;
बर्च के तने गुलाबी हो गए; छोटी सी खुली जगह में, जहाँ सफ़ेद सफ़ेद राख में अभी भी
कुछ चिंगारियाँ छिपी थीं, छाँव पड़ रही थी. साथियों ने सिर्योझा से मच्छर भगाने के
लिए कहा. वह बैठा रहा और ईमानदारी से सोने वालों के ऊपर एक टहनी हिलाता रहा, और
सोचता रहा: क्या वाक़ई में जब झेन्का काम करने लगेगा तो मौसी को पैसे देगा, जो उस पर
सिर्फ चिल्लाती ही रहती है – ये तो बड़े अन्याय की बात है! मगर फिर जल्दी ही वास्का
और झेन्का के बीच में लेटते ही उसे भी नींद आ गई. उसके सपनों में फ़ौजी अफ़सर आते
रहे और उनके साथ थी ल्यूस्का, झेन्का की बहन.
झेन्का कोई पक्का निर्णय लेने वाला इंसान नहीं था,
उसे काम करने के बजाय सपने देखना ज़्यादा अच्छा लगता था, मगर पहली सितम्बर निकट आ
रही थी, स्कूल में मरम्मत का काम पूरा हो गया, स्कूली बच्चे वहाँ कॉपियों और
किताबों के लिए जाने लगे. लीदा अपनी नई यूनिफॉर्म की शान बघार रही थी, अपनी तमाम
अप्रियताओं के साथ स्कूल का नया साल देहलीज़ पर खड़ा था, और झेन्का ने निर्णय ले
लिया. उसने कहा कि उसे ट्रेड स्कूल या फैक्ट्री स्कूल में, शायद, ले लेंगे. मतलब,
उसने जाने का निर्णय ले लिया.
काफ़ी लोगों ने उसकी प्रशंसा की और उसकी मदद करने
की कोशिश भी की. स्कूल ने चरित्र-प्रमाणपत्र दिया. करस्तिल्योव और मम्मा ने झेन्का को पैसे दिए, और मौसी ने भी
उसे रास्ते में खाने के लिए केक बना दिया.
उसके जाने के दिन मौसी ने बिना चिल्ला चोट मचाए
उससे बिदा ली और कहा कि वह ये न भूले कि उसने उसके लिए कितना कुछ किया है. उसने
कहा, “अच्छा, मौसी,” और आगे कहा, “धन्यवाद.” इसके बाद वह अपने दफ़्तर चली गई और वह
जाने की तैयारी करने लगा.
मौसी ने उसे
हरे रंग का लकड़ी का सन्दूक दिया. वह काफ़ी देर तक सोचती रही, सन्दूक के जाने
का दुख हो रहा था, मगर फिर भी उसने दे ही दिया, यह कहते हुए कि “अपने कलेजे का
टुकड़ा दे रही हूँ तुझे. इस सन्दूक में झेन्का ने कमीज़ रखी, फटे मोजों का एक जोड
रखा, धुला हुआ तौलिया और केक भी रखा. बच्चे देख रहे थे कि वह किस तरह सामान रखता
है. सिर्योझा अचानक अपनी जगह से उठ कर भागा. वह हाँफ़ते हुए वापस आया, उसके हाथों
में सिग्नल-पोस्ट था, लाल-हरी बत्तियों वाला. वह सबको इतना अच्छा लगता था, सिग्नल-पोस्ट,
कि उन्होंने अब तक उसे तोड़ा नहीं था, वह छोटी सी मेज़ पर रखा रहता था, और उसे
मेहमानों को दिखाया जाता था.
“ले लो!”
सिर्योझा ने झेन्का से कहा. “अपने साथ ले जाओ, मुझे नहीं चाहिए, वह यूँ ही तो रखा
है!”
“मगर मैं
इसका करूँगा क्या,” झेन्का ने सिग्नल पोस्ट की ओर देखकर कहा. “वैसे भी पन्द्रह
किलो वज़न ले जाना है.”
तब सिर्योझा फिर भाग कर गया और डिब्बा लेकर आया.
“तो, ये
ले लो!” उसने उत्तेजित स्वर में कहा, “तू वहाँ बनाया करना. ये तो हल्का है.
झेन्का ने डिब्बा ले लिया और उसे खोला. उसमें
प्लास्टीसिन के टुकड़े थे. झेन्का के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई.
“ठीक है,”
उसने कहा, “ले लेता हूँ,” और उसने डिब्बा सन्दूक में रख लिया.
तिमोखिन ने वादा किया था कि झेन्का को स्टॆशन पर
ले जाएगा: स्टेशन तीस किलोमीटर दूर था. अभी तक उनके शहर तक रेल मार्ग बना नहीं था –
मगर अचानक शाम को उसकी गाड़ी ने हड़ताल कर दी, इंजिन चल ही नहीं रहा था, उसे दुरुस्त
कर रहे हैं, और तिमोखिन सो रहा है, शूरिक ने बताया.
“भूल जा,”
वास्का ने कहा, “पहुँच जाएगा.”
“बस में
जा सकता है,” सिर्योझा ने कहा.
“बड़ा
होशियार है तू!” शूरिक ने विरोध जताया, “बस में पैसे देना पडेंगे.”
“हाई वे
पर जाकर लिफ्ट मांग लूँगा,” झेन्का ने कहा. “कोई न कोई तो, शायद, ले ही जाएगा.
वास्का ने उसे सिगरेट का पैकेट भेंट में दिया. मगर
माचिस उसके पास नहीं थी, झेन्का ने मौसी की माचिस ले ली. सब लोग मौसी के घर से
निकले. झेन्का ने दरवाज़े पर ताला लगाया और चाबी पोर्च के नीचे रख दी. वे चल पड़े.
सन्दूक बेहद भारी था – उसमें रखे सामान के कारण नहीं, बल्कि वह वज़नदार ही था;
झेन्का उसे कभी एक हाथ में लेता तो कभी दूसरे में. वास्का झेन्का का ओवरकोट लिए
था, और लीदा – नन्हें विक्टर को लेकर चल रही थी. उसने पेट बाहर की ओर निकालकर उसे
उठाया हुआ था, और बार बार उसे हिलाते हुए कह रही थी, “ओह, तू! बैठ! क्या चाहिए
तुझे!”
तेज़ हवा चल रही थी. शहर से बाहर हाई वे पर आए –
वहाँ धूल गोल गोल ऊपर की ओर उड़ रही थी, आँखों में धूल के कण उड़ कर जा रहे थे. हवा
के कारण भूरी घास और बदरंग हो चुके घास के फूल, जो हाई वे के किनारे पर लगे थे,
थरथराते हुए ज़मीन पर गिर रहे थे. बिल्कुल साफ़ बादल, गोल गोल और सफ़ेद, चमकीले नीले
आकाश में तैर रहे थे; उनसे कोई ख़तरा नहीं था; मगर नीचे एक काला बादल अपने बालों
वाले पंजे फैलाए नज़दीक आ रहा था, और ऐसा लग रहा था कि हवा इसी से आ रही है और रह
रह कर धूल से गुज़रते हुए कुछ तीक्ष्ण सा, ताज़ा सा अपने साथ ला रही है, और सीने में
राहत महसूस हो रही है. ..बच्चे रुक गए, उन्होंने संदूक नीचे रख दिया और गाड़ियों की
राह देखने लगे.
गाड़ियाँ मानो उन्हें चिढ़ाने के लिए स्टेशन से शहर
की ओर ही आ रही थीं. आख़िरकार दूसरी दिशा से एक ट्रक आता हुआ दिखाई दिया. वह ऊपर तक
बक्सों से लदा था, मगर ड्राईवर की बगल में कोई भी नहीं था. बच्चों ने हाथ ऊपर
उठाए. ड्राईवर ने देखा और आगे निकल गया. इसके बाद धूल के बवंडर में एक काली
‘गाज़िक’ दिखाई दी, क़रीब क़रीब ख़ाली थी – ड्राईवर के अलावा उसमें बस एक और आदमी था;
मगर वह भी आगे बढ़ गया, बिना रुके.
“शैतान!”
शूरिक ने गुस्से से कहा.
“और तुम
लोग क्यों हाथ उठा रहे हो!” वास्का ने कहा. “मैं तुम्हारी ख़बर लूँगा! वे सोचते हैं
कि पूरी टीम को ले जाना है! बस, अकेला झेन्का ही लिफ्ट मांगेगा! देखो, वो पुराना
खटारा आ रहा है.”
बच्चे मान गए, और जब वह खटारा उनके नज़दीक आया, तो
किसी ने भी हाथ ऊपर नहीं उठाय, सिवाय झेन्का और वास्का के: वास्का ने अपनी ही
आज्ञा भंग कर दी – बड़े बच्चे हमेशा वही करते हैं, जिसे करने से वे छोटों को रोकते
हैं...
पुराना खटारा थोड़ा आगे निकला और रुक गया. झेन्का
उसके पास सन्दूक लेकर भागा और वास्का कोट लेकर. दरवाज़ा खट् की आवाज़ से खुल गया,
झेन्का गाड़ी के भीतर ग़ायब हो गया, और झेन्का के पीछे पीछे वास्का भी गायब हो गया.
फिर गैस और धूल के बादल ने सब कुछ ढाँक दिया; जब वह बादल छटा तो हाई वे पर न तो
वास्का था, न ही झेन्का, और पुराना खटारा काफ़ी दूर पर जाते हुए दिखाई दे रहा था.
चालाक वास्का, उसने किसी को भनक तक नहीं लगने दी, ज़रा सा इशारा भी नहीं किया कि वह
झेन्का को स्टेशन पर छोड़ने जा रहा है.
बाकी के बच्चे घर लौटने लगे. पीठ में हवा मारे जा
रही थी, आगे धकेल रही थी और सिर्योझा के लम्बे बालों से उसके चेहरे पर वार कर रही
थी.
“उसने कभी
भी उसके लिए कोई कपड़ा नहीं सिया,” लीदा ने कहा. “वह पुराने, उधेड़े हुए कपड़े पह्ने
था.”
“उसका बॉस
बदमाश है,” शूरिक ने कहा, “वह उसे डाकिए की तनख़्वाह नहीं देना चाहता. और उसका तो
हक है वो.”
और सिर्योझा हवा से धकेले जाते हुए चल रहा था, और
सोच रहा था – कितना ख़ुशनसीब है झेन्का जो रेल में जाएगा, सिर्योझा आज तक कभी भी
रेल में नहीं बैठा था..
दिन गहराने लगा और अचानक पल भर को एक तैश भरी चमक
से जगमगा गया, सिरों के ऊपर ऐसी गड़गड़ाहट होने लगी जैसे तोप से गोले छूट रहे हों,
और फ़ौरन बारिश ने उन पर तैश से चाबुक बरसाना शुरू कर दिया...बच्चे भागने लगे. पल
भर में बन गए कीचड़ पर फिसलते हुए, बारिश उन्हें मारे जा रही थी और नीचे झुकाए जा
रही थी, पूरे आकाश में बिजलियाँ उछल रही थीं; तूफ़ान की गड़गड़ाहट और बिजली की
कड़कड़ाहट के बीच नन्हे विक्टर का रोना सुनाई दे रह था...
इस तरह झेन्का चला गया. कुछ समय के बाद उसके दो ख़त
आए: एक वास्का के नाम, दूसरा मौसी के नाम. वास्का ने किसी को कुछ भी नहीं बताया,
ऐसे दिखाया जैसे ख़त में कुछ ख़ास मर्दों की बातें लिखी हैं. मौसी ने कुछ भी नहीं
छिपाया और सबको बताया कि झेन्का को, भगवान की दया से ट्रेड स्कूल में ले लिया गया
है. वह होस्टल में रहता है. उसे सरकारी यूनिफॉर्म दिया गया है. “उसे लाईन पे लगा
दिया,” मौसी ने कहा, “अब अपनी ज़िन्दगी शुरू करेगा, और यह सब किसने किया, मैंने.”
झेन्का न तो उनका लीडर था, न ही उनका दिल बहलाता
था; बच्चों को जल्दी ही उसके न होने की आदत हो गई. उसके बारे में याद करके वे ख़ुश
होते थे, कि वह अच्छी तरह है, कि उसके पास एक अलमारी है और उसके पास कलाकार आते
हैं. और यदि वे युद्ध का खेल खेलते, तो अब शूरिक और सिर्योझा बारी बारी से जनरल
बनते थे.
अध्याय – 8
परदादी का दफ़न
परदादी बीमार हो गई, उसे अस्पताल ले गए. दो दिन तक
सब कहते रहे कि जाकर उसे देखना चाहिए, और तीसरे दिन जब घर में सिर्फ सिर्योझा और
पाशा बुआ थे, नास्त्या दादी आ गई. वह हमेशा से भी ज़्यादा तनी हुई और गंभीर लग रही
थी, और उसके हाथ में अपना ज़िप वाला काला पर्स था. नमस्ते करने के बाद नास्त्या
दादी बैठ गई और बोली:
“मेरी
माँ. गुज़र गई.”
पाशा बुआ ने सलीब का निशान बनाया और कहा:
“ख़ुदा
उन्हें जन्नत बख़्शे!”
नास्त्या दादी ने पर्स से एक आलूबुखारा निकाला और
सिर्योझा को दिया.
“उसके लिए
ले गई थी, मगर वे बोले – दो घंटे पहले मर गई. खा, सिर्योझा, ये धुले हुए हैं.
अच्छे आलूबुखारे हैं. माँ को अच्छे लगते थे : चाय में डालती थी, उबालती थी और खाया
करती थी. ये सारे तू ही ले ले.” और वह आलूबुखारे पर्स से निकाल निकाल कर मेज़ पर
रखने लगी.
“ये
किसलिए, अपने लिए रखिए,” पाशा बुआ ने कहा.
नास्त्या दादी रोने लगी.
“नहीं
चाहिए मुझे. माँ के लिए ख़रीदा करती थी.”
“कितनी
उम्र थी उनकी?” पाशा बुआ ने पूछा.
“तेरासीवाँ चल रहा था. लोग इससे भी ज़्यादा साल
जीते हैं. नब्बे साल तक, देखती तो हो, जीते हैं.”
“थोड़ा दूध
पी लीजिए,” पाशा बुआ ने कहा. “एकदम ठण्डा, तहख़ाने से लाई हूँ. खाना तो पड़ेगा ही,
क्या कर सकते हैं.”
“दीजिए,”
नास्त्या दादी ने नाक सुड़कते हुए कहा, और दूध पीने लगी. पीते पीते कहने लगी,
“बिल्कुल आँखों के सामने दिखाई दे रही है, जैसे मेरे सामने खड़ी हों. और कैसी
होशियार थीं और कितनी किताबें पढ़ती थीं, अचरज होता है...मेरा घर अब ख़ाली हो गय.
मैं किसी को किराए पर रख लूँगी.”
“आह – आह –
आह – आह!” पाशा बुआ ने गहरी साँस ली.
सिर्योझा
ने हाथों में आलू बुखारे भर लिए और वह आँगन में निकल गया, नर्म-गर्म धूप में बैठा
और सोचने लगा.
अगर अब नास्त्या दादी का घर ख़ाली हो गया है, तो –
इसका मतलब ये हुआ कि परदादी मर गई है: वे दोनों ही तो रहती थीं; मतलब, वह नास्त्या
दादी की माँ थी. और सिर्योझा सोचने लगा कि अगली बार जब वह नास्त्या दादी के घर
जाएगा, तो कोई उस पर नज़र नहीं रखेगा, न ही कोई उसे डाँटेगा.
उसने मौत देखी थी. चूहे को देखा था जिसे ज़ायका
बिल्ले ने मार डाला था, और इससे पहले चूहा फ़र्श पर दौड़ रहा था, और ज़ायका उसके साथ
खेल रहा था, और अचानक वह उछला और पीछे हट गया, और चूहे ने दौड़ना बन्द कर दिया, और
ज़ायका ने उसे खा लिया, अपने भरे हुए थोबड़े को आराम से हिलाते हुए...सिर्योझा ने
मरे हुए बिल्ली के बिलौटे को भी देखा था जो गन्दे फर के टुकड़े जैसा लग रहा था; मरी
हुई तितलियों को देखा था – फटे हुए, पारदर्शी, बिना पराग के पंखों वाली; मरी हुई
मछलियों को देखा था जो किनारे पर फेंकी गई थीं; मरी हुई मुर्गी को, जो किचन की
बेंच पर पड़ी थी: उसकी गर्दन बत्तख की गर्दन जैसी लम्बी थी, और गर्दन में काला छेद
था, और उस छेद से नीचे रखे बर्तन में बूंद बूंद करके खून गिर रहा था. न तो पाशा
बुआ, न ही मम्मा मुर्गी को काट सकीं, उन्होंने यह काम लुक्यानिच को सौंप दिया. वह
मुर्गी लेकर बाहर के गोदाम में छिप गया, मुर्गी चिल्ला रही थी, और सिर्योझा भाग
गया जिससे उसकी चीख़ें न सुन सके; और फिर किचन से आते हुए उसने नफ़रत से और अनचाही
उत्सुकता से कनखियों से देखा कि कैसे काले छेद से बर्तन में खून टपक रहा है. उसे
सिखाया गया कि अब मुर्गी का अफ़सोस करने की कोई ज़रूरत नहीं है, पाशा बुआ अपने फूले
फूले हाथों से उसके पंख उखाड़ती और सांत्वना देते हुए कहती, “अब वह कुछ भी महसूस
नहीं कर सकती है.”
एक मरी हुई चिड़िया को सिर्योझा ने हाथ से छुआ था.
चिड़िया इतनी ठंडी थी कि सिर्योझा ने डर के मारे हाथ झटक दिया. वह इतनी ठंडी थी
जैसे बर्फ़ का टुकड़ा, बेचारी चिड़िया, जो दोनों पैर ऊपर किए लाइलैक की झाड़ी के नीचे
पड़ी थी, जो धूप से गरम हो रही थी.
निश्चलता और ठंडापन – शायद इसी को मौत कहते हैं.
लीदा ने चिड़िया के बारे में कहा:
“चलो, उसे
दफ़नाते हैं!”
वह एक छोटा सा डिब्बा लाई, उसमें कपड़े का एक टुकड़ा
बिछाया, दूसरे टुकड़े से उसने तकिया बनाया और उसके चारों ओर लेस सजा दी: बहुत कुछ
आता है लीदा को, उसकी तारीफ़ करनी पड़ेगी. उसने सिर्योझा से एक छोटा सा गड्ढा खोदने
को कहा. वे चिड़िया वाले डिब्बे को गड्ढे तक लाए, उसे ढक्कन से बन्द किया और उस पर
मिट्टी छिड़क दी. लीदा ने अपने हाथों से उस छोटे से मिट्टी के ढेर को समतल किया और
उसमें एक टहनी घुसा दी.
“देखो,
हमने उसे कैसे दफ़ना दिया!” उसने अपने आप ही अपनी तारीफ़ की. “उसने तो सोचा भी नहीं
था!”
वास्का और झेन्का ने इस खेल में भाग लेने से इनकार
कर दिया, वे दूर बैठे रहे और सिगरेट पीते हुए उदासी से देखते रहे; मगर उन्होंने
ज़रा भी मज़ाक नहीं उड़ाया.
कभी कभी लोग भी मरते हैं. उन्हें लम्बे लम्बे
बक्सों – ताबूत – में रखते हैं – और रास्तों से ले जाते हैं. सिर्योझा ने दूर से
ये देखा था. मगर मरे हुए आदमी को उसने कभी नहीं देखा था.
...पाशा बुआ ने एक गहरी प्लेट में पके हुए सफ़ॆद और
नर्म चावल रखे और प्लेट के किनारों पर थोड़ी थोड़ी जगह छोड़ कर लाल जैली रखी. बीच
में, चावल के ऊपर, उसने फ्रूट जैली से कोई फूल, या शायद कोई सितारा बनाया.
“ये
सितारा है?” सिर्योझा ने पूछा.
“ये सलीब
है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया. “हम दोनों परदादी को दफ़नाने जाएँगे.”
उसने सिर्योझा का मुँह धोया, हाथ-पैर धोए, उसे
मोज़े पहनाए, जूते पहनाए, नाविकों का यूनिफॉर्म पहनाया और नाविकों की कैप भी पहनाई –
फ़ीतों वाली – बहुत सारी चीज़ें! उसने ख़ुद भी अच्छे कपड़े पहने – काला लेस वाला
स्कार्फ़. चावल वाली प्लेट को सफ़ेद रूमाल में बांधा. इसके अलावा उसने एक गुलदस्ता
भी लिया, और सिर्योझा के हाथों में भी फूल पकड़ाए, मोटी मोटी टहनियों पर दो डेलिया
के फूल.
वास्का की माँ डोलची लेकर पानी के लिए जा रही थी.
सिर्योझा ने उससे कहा, “नमस्ते! हम परदादी को दफ़नाने जा रहे हैं!”
लीदा अपने फ़ाटक के पास नन्हें विक्टर को हाथों में
उठाए खड़ी थी. सिर्योझा ने उससे भी चिल्लाकर कहा, “मैं परदादी को दफ़नाने जा रहा
हूँ!” - और उसने जलन भरी नज़रों से उसे बिदा किया. उसे मालूम था, कि उसका दिल भी
जाने को चाह रहा है; मगर वह तय नहीं कर पा रही है, क्योंकि वह इतने ठाठ से जा रहा
है, और वो गंदे कपड़ों में और बिना जूतों के है. उसे उस पर दया आई और उसने मुड़ कर
उसे पुकारा, “हमारे साथ चलोगी! कोई बात नहीं है!”
मगर वह बड़ी स्वाभिमानी है, वह न तो आई और न ही
उसने कुछ कहा, सिर्फ पीछे से उसे तब तक देखती रही जब तक वह नुक्कड़ से मुड़ न गया.
एक सड़क पार की, दूसरी भी पार की. बहुत गर्मी थी.
सिर्योझा दो भारी फूल पकड़ने के कारण थक गया और पाशा बुआ से बोला,
”तुम ही ले चलो इन्हें!”
उसने ले लिए. और अब वह लड़खड़ाने लगा: चलते चलते
सीधी सपाट जगह पर भी लड़खड़ाता है.
“तू ये
लड़खड़ा क्यों रहा है?” पाशा बुआ ने पूछा.
“क्योंकि
मुझे गर्मी लग रही है,” उसने जवाब दिया. “ये सब कपड़े उतार लो, मैं बस पैंट पर ही
चलूंगा.”
“बकवास मत
कर,” पाशा बुआ ने कहा. “वहाँ द्फ़न के लिए तुझे सिर्फ पैंट में कौन जाने देगा. बस,
अभी पहुँच जाते हैं बस स्टॉप तक और फिर बस में बैठेंगे.”
सिर्योझा ख़ुश हो गया और बहादुरी से उस अंतहीन
रास्ते पर चलने लगा, अनगिनत फैंसिग्स के पास से, जिनमें से पेड़ों की टहनियाँ उनके
सिरों पर लटक रही थीं.
सामने से धूल उड़ाती गाएँ आ रही थीं. पाशा बुआ ने
कहा, “मेरा हाथ पकड़.”
“मुझे
प्यास लगी है,” सिर्योझा ने कहा.
“कुछ भी
मत सोच,” पाशा बुआ ने कहा. “तुझे ज़रा भी प्यास नहीं लगी है.”
यहाँ उसने गलती कर दी थी: उसे सचमुच में प्यास लगी
थी. मगर जब उसने ऐसा कहा तो उसकी प्यास थोड़ी कम हो गई.
गाएँ गुज़र गईं, अपने गंभीर सिर धीरे धीरे हिलाते
हुए. हरेक का थन दूध से लबालब भरा था.
चौक पर सिर्योझा और पाशा बुआ बस में बैठे, बच्चों
वाली जगह पर. सिर्योझा कभी कभार ही बस में जाया करता था, यह मनोरंजन उसे अच्छा
लगता था. अपनी सीट पर घुटनों के बल खड़े होकर वह खिड़की से बाहर देख रहा था और अपने
पड़ोसी पर भी नज़र डाल रहा था. पड़ोसी एक मोटा बच्चा था, सिर्योझा से छोटा, वह बाँस
की सींक पर लगे लॉली पॉप के मुर्गे को चूस रहा था. पड़ोसी के गाल लॉली पॉप के कारण
चिपचिपे हो गए थे. वह भी सिर्योझा की ओर देख रहा था, उसकी नज़रें कह रही थीं, “और
तेरे पास तो लॉली पॉप का मुर्गा ही नहीं है, हा, हा!!” कंडक्टरनी आई.
“क्या
बच्चे का टिकट लेना पड़ेगा?” पाशा बुआ ने पूछा.
“अपनी नाप दो, बच्चे,” कंडक्टरनी बोली.
वहाँ एक काला निशान बना हुआ था, जिससे
बच्चों की नाप ली जाती है: जो उस निशान तक पहुँचता है उसकी टिकट लेनी पड़ती है.
सिर्योझा निशान के नीचे खड़ा हुआ और उसने अपनी एड़ियाँ कुछ ऊँची कर लीं. कंडक्टरनी
बोली, “टिकट लीजिए.”
सिर्योझा ने विजयी भाव से पड़ोसी बच्चे की
ओर देखा, ‘और मेरे लिए तो टिकट लेना पड़ता है,’ उसने ख़यालों में उस बच्चे से कहा,
‘मगर तेरे लिए तो नहीं लेते, हा हा हा!!’
मगर अंतिम विजय तो बच्चे की ही हुई,
क्योंकि सिर्योझा और पाशा बुआ के उतरने के बाद भी वह बस में सिर्योझा से आगे जा
रहा था.
वे सफ़ेद पत्थरों के गेट के सामने खड़े थे.
गेट के पीछे लम्बे सफ़ेद घर थे, जिनके चारों ओर छोटे छोटे पेड़ लगाए गए थे, पेडों के
तने भी चूने से सफ़ेद कर दिए गए थे. नीले नीले गाऊन पहने लोग या तो घूम रहे थे या
बेंचों पर बैठे थे.
“ये हम कहाँ हैं?” सिर्योझा ने पूछा.
“अस्पताल में,” पाशा बुआ ने जवाब दिया.
बिल्कुल आख़िरी घर के सामने आए, फिर कोने
से मुड़ गए और सिर्योझा ने करस्तिल्योव को,
मम्मा को, लुक्यानिच को और नास्त्या दादी को देखा. सब एक खुले हुए चौड़े दरवाज़े के
पास खड़े थे. और तीन अनजान बूढ़ी औरतें सिर पर रूमाल बांधे खड़ी थीं.
“हम बस में आए!” सिर्योझा ने कहा.
किसी ने भी जवाब नहीं दिया, मगर पाशा बुआ
ने धीरे से “शू s s s” किया, और वह समझ गया कि न जाने क्यों,
बात करना मना है. वे ख़ुद बात कर रहे थे, मगर बहुत धीमी आवाज़ में. मम्मा ने पाशा
बुआ से कहा, “आप इसे क्यों ले आईं, समझ में नहीं आता!”
करस्तिल्योव नीचे गिरे हाथ में कैप पकड़े खड़ा था, उसका चेहरा
बहुत भला और सोच में डूबा हुआ था. सिर्योझा ने अन्दर झाँका – वहाँ सीढ़ियाँ थीं,
नीचे तहख़ाने में जाने के लिए, तहख़ाने के धुंधलके से नम ठंडक महसूस हो रही थी...सब
धीरे धीरे आगे बढ़े और सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे, और सिर्योझा उनके पीछे था.
दिन की रोशनी के बाद तहख़ाने में पहले तो
अंधेरा ही दिखाई दिया. फिर सिर्योझा को दीवार से लगी हुई एक चौड़ी बेंच दिखाई दी,
सफ़ेद छत और चिप्पी उड़ा हुआ सिमेंट का फ़र्श था, और बीच में कुछ ऊँचाई पर जालीदार
सूती झालर लगा हुआ ताबूत. बहुत ठंडक थी, मिट्टी की और किसी और चीज़ की गंध आ रही
थी. नास्त्या दादी लम्बे लम्बे कदम रखते हुए ताबूत के पास पहुँची और उस पर थोड़ा सा
झुकी.
“ये क्या है!” हौले से पाशा बुआ ने कहा. “हाथ
कैसे रखे हैं! हे भगवान! ...लम्बे, खिंचे हुए!”
“वे भगवान में विश्वास नहीं करती थीं,” नास्त्या
दादी ने सीधे होते हुए कहा.
“इससे क्या हुआ,” पाशा बुआ ने कहा, “वे कोई
सैनिक थोड़ी हैं कि इस तरह से भगवान के सामने जाएँ.” और वह बूढ़ी औरतों की ओर मुड़ी,
“आपने कैसे ध्यान नहीं दिया!”
बूढ़ी औरतें आहें भरने लगीं...सिर्योझा को
नीचे से कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था. वह बेंच पर चढ़ गया और उसने गर्दन बाहर निकाल कर
ऊपर से ताबूत के अन्दर देखा...
वह सोच रहा था कि ताबूत में परदादी है.
मगर वहाँ तो समझ में न आने वाला कुछ पड़ा था. ‘वो’ परदादी की याद दिला रहा था: वैसा
ही पिचका हुआ मुँह और ऊपर को उठी हड़ीली ठोढ़ी; मगर ‘वो’ परदादी नहीं था. ‘वो’ न
जाने क्या था. आदमी की आँखें ऐसी बन्द नहीं होतीं. जब आदमी सोता है, उसकी
आँखें अलग तरह से बन्द होती हैं...
’वो’ लम्बा लम्बा था. मगर परदादी तो छोटी
सी थी. ‘वो’ घनी ठण्डक से, अंधेरे से और भयानक ख़ामोशी से पूरी तरह घिरा हुआ था,
जिसमें ताबूत के पास खड़े लोग भयभीत होकर फुसफुसाकर बातें कर रहे थे. सिर्योझा को
भयानक डर लगा. अगर ‘वो’ अचानक ज़िन्दा हो जाए तो और भी डरावनी बात होगी. अगर ‘वो’,
मान लो, ‘ख र्र र्र र्र ...’ करने लगे तो...इस ख़याल से सिर्योझा चीख़ पड़ा.
वह चीख़ा, और, जैसे यह चीख़ सुन कर, ऊपर से,
रोशनी से, नज़दीक ही प्रसन्नता भरी एक तेज़ जानदार आवाज़ सुनाई दी, गाड़ी के साइरन की
आवाज़ थी वो...मम्मा सिर्योझा को पकड़कर तहख़ाने से ऊपर ले आई. दरवाज़े के पास लॉरी
खड़ी थी, एक ओर से नीचे को झुकी हुई. वहीं कुछ अंकल लोग घूम रहे थे और सिगरेट पी
रहे थे. लॉरी के कैबिन में ड्राईवर तोस्या बुआ बैठी थी, वो ही, जो तब करस्तिल्योव का सामान लाई थी; वह ‘यास्नी बेरेग’ में काम
करती है और कभी कभी करस्तिल्योव को लेने
के लिए आती है. मम्मा ने सिर्योझा को उसके पास बिठाया और बोली : “यहीं बैठे रहो!” –
और उसने फ़ौरन कैबिन बन्द कर दिया. तोस्या बुआ ने पूछा, “परदादी को बिदा करने आए
हो? तुम क्या उससे प्यार करते थे?”
“नहीं,” सिर्योझा ने साफ़ साफ़ जवाब दिया. “प्यार
नहीं करता था.”
“तो फिर तुम क्यों आए?” तोस्या बुआ ने कहा, “अगर
प्यार नहीं करते थे, तो यह सब देखना नहीं चाहिए.”
रोशनी और आवाज़ों के कारण डर भाग गया था,
मगर सिर्योझा एकदम से उस अनुभव से अपने आप को दूर न कर सका, वह कसमसा रहा था, इधर
उधर देख रहा था, सोच रहा था...और उसने पूछा, “भगवान के सामने जाने का क्या मतलब होता है?”
तोस्या बुआ मुस्कुराई, “ये, बस, ऐसा ही
कहते हैं.”
“क्यों कहते हैं?”
“बूढ़े लोग कहते हैं. तुम उनकी बात मत सुनो. ये
सब बेवकूफ़ियाँ हैं.”
कुछ देर चुपचाप बैठे रहे. तोस्या बुआ ने
अपनी हरी आँखें सिकोड़ते हुए रहस्यमय अंदाज़ में कहा, “सब वहीं जाएँगे.”
‘कहाँ – वहाँ?’ सिर्योझा सोचने लगा. मगर इस बात
को समझने का उसका मन नहीं था; उसने पूछा नहीं. यह देखकर कि तहख़ाने से ताबूत बाहर
ला रहे हैं, उसने मुँह फेर लिया. इस बात से कुछ हल्का महसूस हो रहा था कि ताबूत पर
ढक्कन लगा था. मगर यह बात बड़ी बुरी लगी कि उसे लॉरी पर रखा गया.
कब्रस्तान में ताबूत को उतारा गया और उसे
ले गए. सिर्योझा और तोस्या बुआ कैबिन से बाहर नहीं निकले, वे दरवाज़ा बन्द किए भीतर
ही बैठे रहे. चारों ओर सलीब और लाल सितारों वाली लकड़ी की छोटी छोटी मीनारें थीं.
पास में ही सूखने के कारण दरारें पड़ी छोटी सी पहाड़ी पर लाल चींटियाँ रेंग रही थीं.
दूसरी पहाड़ियों पर ऊँची ऊँची घास लगी थी...’कहीं वह कब्र के बारे में तो नहीं कह
रही थी?’ सिर्योझा ने सोचा, ‘कि सब वहाँ जाएंगे?’ – वे, जो चले गए थे, बगैर ताबूत
के वापस लौटे. लॉरी चल पड़ी.
“उस पर मिट्टी डाल दी?” सिर्योझा ने पूछा.
“डाल दी, बच्चे, डाल दी,” तोस्या बुआ ने कहा.
जब घर वापस पहुँचे, तो पता चला कि पाशा
बुआ वहीं, कब्रस्तान में रुक गई है बूढ़ी औरतों के साथ.
“पाशेन्का को यह देखना ही होगा कि उसका
‘राईस-पुडिंग’ खा लिया गया है – बड़ी मेहनत से बेचारी ने बनाया था...”
नास्त्या दादी ने रूमाल खोलकर अपने बाल
ठीक करते हुए कहा, “उनसे क्या झगड़ा करना है? यदि उन्हें लोभान जलाना ही है तो
जलाने दो.”
वे फिर से बातें करने लगे – ज़ोर से, और वे
मुस्कुरा भी रहे थे.
“हमारी पाशा बुआ हज़ारों बातों में विश्वास करती
हैं,” मम्मा ने कहा.
वे खाने के लिए बैठे. सिर्योझा से यह न हो
सका. उसे खाने को देखकर नफ़रत हो रही थी. ख़ामोश बैठा वह बड़े लोगों के चेहरों को ग़ौर
से देख रहा था. वह याद न करने की कोशिश कर रहा था, मगर ‘वो’ याद आए जा रहा था –
लम्बा, ठंडक और मिट्टी की गंध में लिपटा डरावना...
“उसने ऐसा क्यों कहा,” उसने कहा, “कि सब वहीं
जाएँगे?”
बड़े लोग चुप हो गए और उसकी ओर मुड़े.
“तुमसे किसने कहा?” करस्तिल्योव ने पूछा.
“तोस्या बुआ ने.”
“तुम तोस्या बुआ की बात मत सुनो,” करस्तिल्योव ने कहा, “तुम्हें तो शौक ही है सबकी बातें सुनने
का.”
“हम सब, क्या, मर जाएँगे?”
वे सब इतने गड़बड़ा गए, जैसे उसने कोई भद्दी
बात पूछ ली हो. मगर वह उनकी ओर देख रहा था और जवाब का इंतज़ार कर रहा था.
करस्तिल्योव ने जवाब दिया, “नहीं. हम नहीं मरेंगे. तोस्या
बुआ जो चाहे कहे, मगर हम नहीं मरेंगे, और ख़ास कर तुम; मैं तुमसे वादा करता हूँ.”
“कभी भी नहीं मरूँगा?” सिर्योझा ने पूछा.
“कभी भी नहीं!” दृढ़ता से और विजयी मुद्रा से करस्तिल्योव
ने वादा किया.
और सिर्योझा को एकदम हल्का और ख़ुशनुमा
महसूस होने लगा. ख़ुशी से वह लाल पड़ गया – गहरा लाल – और हँसने लगा. उसे अचानक बड़ी
प्यास लगी : उसे तो कब से प्यास लगी थी, मगर वह भूल गया था. और उसने ख़ूब सारा पानी
पिया, पीता रहा और उसका आनन्द उठाते हुए वह कराहता भी रहा. उसे इस बात में ज़रा सा
भी शक नहीं था कि करस्तिल्योव ने सच कहा
है: ठीक ही तो है, अगर उसे मालूम होता कि वह मरने वाला है, तो वह जी कैसे सकता था?
और क्या उसकी बात पर अविश्वास दिखाया जा सकता था, जिसने कहा था : “तुम नहीं
मरोगे!”
अध्याय 9
करस्तिल्योव की हुकूमत
उन्होंने एक गढ़ा खोदा, उसमें खंभा लगाया, लंबा तार खींचा. तार सिर्योझा के आंगन में
मुड़ता है और घर की दीवार में चला जाता है. डाईनिंग रूम में छोटी सी मेज़ पर, सिग्नल
पोस्ट की बगल में काला टेलिफ़ोन रखा है. ‘दाल्न्याया’ रास्ते पर वह पहला और अकेला
टेलिफ़ोन है, और वह करस्तिल्योव का है. करस्तिल्योव
की ख़ातिर ज़मीन खोदी गई, खंभा लगाया गया,
तार खींचा गया. क्योंकि और लोग तो बगैर टेलिफ़ोन के काम चला सकते हैं, मगर करस्तिल्योव
का काम नहीं चल सकता.
चोंगा उठाते हो तो सुनाई देता है – एक
औरत, जो दिखाई नहीं दे रही है, कहती है: ‘स्टेशन’. करस्तिल्योव , कमांडर, हुकूमत भरी आवाज़ में आज्ञा देता है, “ ‘यास्नी बेरेग!’ या ‘पार्टी
प्रदेश कमिटी’ या ‘सोवियत फ़ार्म का ट्रस्ट दीजिए!” बैठता है, लंबा सिर हिलाते हुए,
और चोंगे में बात करता है. और इस समय किसी को भी, मम्मा को भी, उसका ध्यान वहाँ से
हटाने की इजाज़त नहीं होती.
कभी कभी टेलिफ़ोन खनखनाती आवाज़ में बजने
लगता है. सिर्योझा लपक कर चोंगा उठाता है और चिल्लाता है : “सुन रहा हूँ!”
चोंगे की आवाज़ करस्तिल्योव को बुलाने को कहती है. कितने लोगों को करस्तिल्योव
की ज़रूरत पड़ती है! लुक्यानिच को और मम्मा
को कभी कभार फ़ोन करते हैं. और सिर्योझा को और पाशा बुआ को तो कोई भी, कभी भी फ़ोन
नहीं करता.
सुबह सुबह करस्तिल्योव जल्दी ‘यास्नी बेरेग’ जाता है. दोपहर में कभी
कभी तोस्या बुआ उसे खाना खाने के लिए गाड़ी में लाती है, मगर अक्सर नहीं ही लाती
है, मम्मा ‘यास्नी बेरेग’ में फ़ोन करती है, मगर उससे कहते हैं कि करस्तिल्योव फ़ार्म पर गया है और जल्दी नहीं लौटेगा.
‘यास्नी बेरेग’ भयानक रूप से बड़ा है. सिर्योझा
ने तो सोचा तक नहीं था कि वह इतना बड़ा होगा, जब तक वह एक बार करस्तिल्योव और तोस्या बुआ के साथ, करस्तिल्योव के काम से, ‘गाज़िक’ कार में वहाँ नहीं गया. वे
बस कार में जाते रहे, जाते रहे! पेड़ों की कतारों के बीच से खूब बड़े बड़े दृश्य
‘गाज़िक’ के सामने आते और दोनों किनारों पर खुलते जाते – शरद ऋतु के बड़े बड़े घास के
मैदान; हल्के बैंगनी कोहरे को भेदकर ज़मीन के उस छोर तक जाने वाले घास के ऊँचे ऊँचे
ढेर; अनाज काट लेने के बाद बचे पीले पीले खूंटों वाले लंबे चौड़े खेत; कहीं कहीं मक्के
के हरे हरे पौधों की लाईनों से सजी काली मखमली धरती. रास्ते एक दूसरे से मिल रहे
थे, एक दूसरे को काट रहे थे, भूरी रिबन्स की तरह; उन पर लॉरियाँ दौड़ रही थीं,
ट्रैक्टर्स घास की चौकोर टोपियाँ पहनी गाड़ियों को खींच कर ले जा रहे थे. सिर्योझा
पूछता जा रहा था:
“और, अब ये क्या है?”
और उसे एक ही जवाब मिलता, “यास्नी बेरेग.”
लंबे चौड़े मैदानों में खो गए, एक दूसरे से
दूर हैं तीन फ़ार्म्स: भारी भरकम इमारतों के तीन समूह: एक फ़ार्म में है साईलो (अनाज
रखने की मीनार) ; दूसरे में हैं मोटर गाड़ियों के लिए शेड्स. कारखाने में ड्रिलिंग
मशीन की श्यूss श्यूss और ब्लो लैम्प्स की झूss झूss की आवाज़. धातु-काम की भट्टी के गहरे काले
अंधेरे में आग की चिनगारियाँ उड़ रही हैं, हथौड़ों की आवाज़ आ रही है...
और चारों ओर से लोग बाहर निकल निकल कर आ
रहे हैं, करस्तिल्योव को नमस्ते करते हैं,
और वह हर चीज़ ध्यान से देखता है, सवाल पूछता है, हुकुम देता है, फिर ‘गाज़िक’ में
बैठकर आगे जाता है. अब समझ में आया कि उसे क्यों हमेशा ‘यास्नी बेरेग’ में जाने की
जल्दी पड़ी रहती है. अगर वह आकर नहीं बताएगा तो उन्हें कैसे मालूम पड़ेगा कि क्या
करना है?
फ़ार्म्स पर बहुत सारे जानवर हैं : सुअर,
भेड़, मुर्गियाँ, बत्तख़ – मगर सबसे ज़्यादा गाएँ हैं. जब तक गर्म मौसम था, गाएँ आज़ाद
घूमती थीं, चरागाहों में. अब तक वहाँ शेड्स हैं जिनके नीचे वे बुरे मौसम में रातों
को रहती थीं. अब गाएँ जानवरों वाले आँगन में हैं. एक लाईन में शांति से खड़ी रहती
हैं, सींगों पर जंज़ीर डालकर उन्हें लकड़ी के एक डंडे से बांधा जाता है, और वे पूँछ
हिलाते हुए एक लंबी-लंबी ट्रे से घास खाती रहती हैं. वे शराफ़त से व्यवहार नहीं
करतीं: पूरे समय उनके पीछे पीछे गोबर इकट्ठा किया जाता है. सिर्योझा को यह देखकर
बड़ी शरम आ रही थी कि गाएँ कितनी बेशर्मी से रहती हैं; करस्तिल्योव का हाथ पकड़े-पकड़े वह जानवरों के आँगन के गीले
पुलों से चल रहा था, बिना आँख ऊपर उठाए. करस्तिल्योव उनकी बेशर्मी पर ध्यान नहीं दे रहा था, वह गायों
की पीठों को थपथपाते हुए हुक्म दे रहा था.
एक औरत उससे कुछ बहस कर रही थी, उसने यह
कहते हुए बहस बीच ही में काट दी:
“ठीक है, ठीक है. करिए, करिए.”
और औरत चुप हो गई और जो उसने कहा था वह
करने चली गई.
दूसरी औरत पर, जो मम्मा जैसी ही फुंदे
वाली नीली कैप पहने थी, वह चिल्लाया:
“इसका जवाब कौन देगा, क्या इन छोटी छोटी बातों
की ज़िम्मेदारी मुझ पर है?”
वह उसके सामने परेशान सी खड़ी रही और बार
बार कहती रही:
“ये मेरी नज़र से कैसे छूट गया, मैंने इस बारे
में सोचा क्यों नहीं, मुझे ख़ुद को ही समझ में नहीं आ रहा है!”
न जाने कहाँ से लुक्यानिच हाथों में एक
कागज़ पकड़े हुए आया; उसने करस्तिल्योव को
एक फाउन्टेन पेन दिया और बोला:
“साईन करो.” मगर करस्तिल्योव का चिल्लाना अभी पूरा नहीं हुआ था, वह बोला,
“ठीक है, बाद में.” लुक्यानिच ने कहा, “ ‘बाद में’ का क्या मतलब है, मुझे तुम्हारे
साईन के बिना तो नहीं देंगे, और लोगों को तनख़्वाह मिलनी चाहिए.”
तो ऐसा है, अगर करस्तिल्योव कागज़ पर साईन नहीं करेगा, तो उन्हें तनख़्वाह तक
नहीं मिलेगी!
और जब सिर्योझा और करस्तिल्योव गोबर के लोंदे के बीच से होकर, उनकी राह देख रही
‘गाज़िक’ की तरफ़ आ रहे थे, तो बढ़िया कपड़े पहने हुए एक नौजवान उनके सामने आया – उसने
रबड़ के कम ऊँचे जूते पहने थे और चमड़े का चमकीली बटन वाला जैकेट पहना था.
“दिमित्री कोर्नेएविच,” उसने कहा – “अब मैं क्या
करूँ? वे मुझे रहने के लिए जगह ही नहीं दे रहे हैं, दिमित्री कोर्नेएविच!”
“और तुमने सोचा,” करस्तिल्योव ने रूखेपन से पूछा, “कि तुम्हारे लिए कॉटेज
तैयार है?”
“मेरी ज़िन्दगी का सत्यानाश हो रहा है,” नौजवान
ने कहा, “ दिमित्री कोर्नेएविच, अपना आदेश वापस ले लीजिए!”
“पहले सोचना चाहिए था,” करस्तिल्योव ने और भी रुखाई से कहा. “कंधों पर सिर तो है ना?
अपना सिर खपाया होता.”
“ दिमित्री कोर्नेएविच, मैं आपसे विनती करता हूँ, एक इन्सान से दूसरे
इन्सान की तरह विनती करता हूँ, आप समझ रहे हैं ना? मुझे अनुभव नहीं है, दिमित्री
कोर्नेएविच, इन आपसी संबंधों की तह तक मैं गया नहीं हूँ. ”
“मगर तुम इस बात की तह तक तो गए हो कि
‘साइड-बिज़नेस’ कैसे करते हैं?” करस्तिल्योव ने स्याह चेहरे से पूछा, “दिया हुआ काम छोड़ देना
और साइड-बिज़नेस करना – इसका अनुभव है?”
वह जाने लगा.
“दिमित्री कोर्नेएविच,” नौजवान ने पीछा नहीं
छोड़ा, “ दिमित्री कोर्नेएविच! प्लीज़, मेहेरबानी कीजिए! मुझे अपनी भूल सुधारने का
मौका दीजिए! मैं अपनी गलती मानता हूँ! प्लीज़, काम पर रहने की इजाज़त दीजिए,
दिमित्री कोर्नेएविच!”
“मगर याद रखना!” करस्तिल्योव ने पीछे मुड़कर गरजते हुए कहा, “एक बार और ऐसा
हुआ तो!...”
“मगर अब मुझे उनकी ज़रूरत क्या है, दिमित्री
कोर्नेएविच! वे सिर्फ एक बिस्तर देने का वादा करते हैं, और वह भी कुछ समय
बाद...मैंने थूक दिया उन पर, दिमित्री कोर्नेएविच!”
“जंगली स्वार्थी,” करस्तिल्योव ने कहा, “व्यक्तिवादी, सुअर की औलाद! आख़िरी बार –
जा काम कर, शैतान ले जाए तुझे!”
“फ़ौरन काम पर जाता हूँ!” फट् से नौजवान ने कहा
और आगे बढ़ गया, रूमाल बांधी लड़की की ओर देखकर आँखें मिचकाते हुए, जो कुछ दूरी पर
खड़ी थी.
“तुम्हारे लिए आदेश वापस नहीं ले रहा हूँ,
तान्या की ख़ातिर ले रहा हूँ! उसे धन्यवाद दो कि वह तुमसे प्यार करती है!” करस्तिल्योव
चिल्लाया और उसने भी जाते जाते लड़की की ओर
देखकर आँखें मिचकाईं. और वह लड़की और नौजवान हाथों में हाथ लिए उसकी ओर देखते रहे,
अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए.
तो, ऐसा है करस्तिल्योव
: अगर वह चाहता तो नौजवान को और तान्या को
बहुत तकलीफ़ हुई होती.
मगर वह ऐसा नहीं
चाहता था, क्योंकि वह न केवल सर्वशक्तिमान है, बल्कि दयालु भी है. उसने ऐसा किया
जिससे वे ख़ुश हैं और मुस्कुरा रहे हैं.
सिर्योझा को गर्व
क्यों न हो कि उसके पास ऐसा करस्तिल्योव है?
यह बात साफ़ है कि करस्तिल्योव
सबसे अच्छा और सबसे बुद्धिमान है, इसीलिए
उसको सबके ऊपर रखा गया है.
अध्याय 10
आसमान
में और धरती पर हो रही घटनाएँ
गर्मियों में तारे
नहीं दिखाई देते. सिर्योझा चाहे कभी भी उठे, कभी भी सोए – आँगन में हमेशा उजाला ही
रहता है. अगर बादल और बारिश भी हो, तब भी उजाला ही रहता है, क्योंकि बादलों के
पीछे होता है सूरज. साफ़ आसमान में कभी कभी सूरज के अलावा, एक पारदर्शी, बेरंग
धब्बा देखा जा सकता है, जो काँच के टुकड़े जैसा लगता है. यह चाँद है, दिन का चांद,
बेज़रूरत, वह लटका रहता है और सूरज की चमक में पिघलता रहता है, पिघलता रहता है और
ग़ायब हो जाता है – पूरी तरह पिघल गया; नीले, विशाल आसमान में सिर्फ सूरज ही राज
करता है.
सर्दियों में दिन
छोटे होते हैं; अंधेरा जल्दी हो जाता है; रात के खाने से काफ़ी पहले दाल्न्याया
रास्ते पर, उसके बर्फ से ढँके बगीचों और सफ़ेद छतों पर तारे नज़र आने लगते हैं. वे
हज़ारों, या हो सकता है, लाखों भी हों. बड़े तारे होते हैं, छोटे भी होते हैं. और
बहुत बहुत छोटे तारों की रेत दूध जैसे चमकदार धब्बों में मिली हुई. बड़े तारों से
नीली, सफ़ेद, सुनहरी रोशनी निकलती है; सीरिउस तारे की किरणें तो बरौनियों जैसी होती
हैं; आसमान के बीच में तारे – छोटे और बड़े, और तारों की रेत – सब कुछ
बर्फीले-चमकते घने कोहरे में घुल जाता है, एक आश्चर्यजनक – टेढ़ामेढ़ा पट्टा बनाते
हुए, जो सड़क पर एक पुल की तरह फैला होता है – इस पुल को कहते हैं : आकाश गंगा!
पहले सिर्योझा
सितारों पर ध्यान नहीं देता था, उसे उनमें दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि वह नहीं
जानता था कि उनके भी नाम होते हैं. मगर मम्मा ने उसे आकाश गंगा दिखाई. और सीरिउस
भी. और बड़ा भालू. और लाल मंगल. हर तारे का एक नाम होता है, मम्मा ने कहा था, उनका
भी जो रेत के कण से बड़े नहीं होते. मगर वे सिर्फ दूर से ही रेत के कणों जैसे दिखाई
देते हैं, वे बहुत बड़े बड़े होते हैं, मम्मा ने कहा था. मंगल पर, हो सकता है कि लोग
रहते हों.
सिर्योझा सारे नाम
जानना चाहता था, मगर मम्मा को याद नहीं थे; वह जानती तो थी, मगर भूल गई थी. मगर
उसने उसे चांद के पहाड़ दिखाए थे.
क़रीब क़रीब हर रोज़
बर्फ़ गिरती है. लोग रास्ते साफ़ करते हैं, उस पर पैर रखते हैं और गंदे निशान छोड़
देते हैं – मगर वह फिर से गिरती है और सब कुछ ऊँचे ऊँचे परों के तकियों से ढँक
जाता है. फ़ेंसिंग के खंभों पर सफ़ेद टोपियाँ. टहनियों पर मोटी मोटी सफ़ेद बत्तख़ें.
टहनियों के बीच बीच की जगह पर गोल गोल बर्फ़ के गोले.
सिर्योझा बर्फ़ पर
खेलता है, वह घर बनाता है, लड़ाई लड़ाई खेलता है, स्लेज पर घूमता है. लकड़ियों के
गोदाम के पीछे लाल-गुलाबी दिन ढलता है. शाम हो जाती है. स्लेज को रस्सी से खींचते
हुए सिर्योझा घर लौटता है. कुछ देर ठहरता है, सिर पीछे को करता है और अचरज से
परिचित तारों की ओर देखता है. बड़ा भालू आसमान के क़रीब क़रीब बीच में उतरा है,
बेशर्मी से अपनी पूँछ फैलाए हुए. मंगल अपनी लाल आँख मिचका रहा है.
‘अगर ये मंगल इतना तंदुरुस्त है कि हो सकता है,
कि उस पर लोग रहते हों,’ सिर्योझा के दिल में ख़याल आता है, ‘तो यह भी काफ़ी हद तक
संभव है कि इस समय वहाँ भी ऐसा ही बच्चा खड़ा हो, ऐसी ही स्लेज लिए, ये भी काफ़ी
संभव है कि उसका नाम भी सिर्योझा हो...’ यह ख़याल उसे चौंका देता है, किसी से यह
ख़याल बांटने का जी करता है. मगर हरेक के साथ तो बांट नहीं सकते – नहीं समझेंगे; वे
अक्सर नहीं समझते हैं; मज़ाक उड़ाएँगे, और ऐसे मौकों पर सिर्योझा को ये मज़ाक भारी
पड़ते हैं और अपमानजनक लगते हैं. वह करस्तिल्योव से कहता है, यह देखकर कि आसपास कोई नहीं है – करस्तिल्योव
मज़ाक नहीं उड़ाता. इस बार भी वह नहीं हँसा,
मगर, कुछ देर सोचकर बोला : “हुँ, संभव तो है.”
और इसके बाद उसने न
जाने क्यों सिर्योझा के कंधे पकड़ कर उसकी आँखों में ध्यान से, और कुछ भय से भी
देखा.
.... शाम को जी भर कर खेलने के बाद, ठंड से
कुड़कुड़ाते हुए घर वापस लौटते हो, और वहाँ भट्टियाँ गरमाई हुई होती हैं, गर्मी से
धधकती हुई. नाक से सूँ, सूँ करते हुए गरमाते हो, तब तक पाशा बुआ पास पड़ी बेंच पर
तुम्हारी पतलून और फ़ेल्ट बूट सुखाने के लिए फ़ैला देती है. फिर सबके साथ किचन में
मेज़ पर बैठते हो, गरम गरम दूध पीते हो, उनकी बातचीत सुनते हो और इस बारे में सोचते
हो कि आज बनाए गए बर्फ़ के किले का घेरा डालने के लिए कल किस तरह अपने साथियों के
साथ जाना है...बड़ी अच्छी चीज़ है – सर्दियाँ.
बढ़िया चीज़ है –
सर्दियाँ, मगर वे बड़ी लंबी होती हैं: भारी भरकम कपड़ों से बेज़ार हो जाते हो और बहुत
ठंडी हवाएँ, घर से शॉर्ट्स और चप्पल पहन कर बाहर भागने को जी चाहता है, नदी में
डुबकियाँ लगाने को, घास पर लोटने को, मछलियाँ पकड़ने को – ये बात और है कि तुम्हारी
बन्सी में एक भी नहीं अटकती, कोई परवाह नहीं, मगर दोस्तों के साथ इकट्ठा होना
कितना अच्छा लगता है, ज़मीन खोद खोद कर केंचुओं को निकालना, बन्सी लेकर बैठना,
चिल्लाना, “शूरिक, मेरा ख़याल है कि तेरी बन्सी में लग रहा है!”
छिः छिः, फिर से
बर्फ़ीला तूफ़ान और कल तो बर्फ़ पिघलने लगी थी! किस क़दर बेज़ार कर दिया है इन घिनौनी
सर्दियों ने!
....खिड़कियों पर
टेढ़े मेढ़े आँसू बहते हैं, रास्ते पर बर्फ़ की जगह गाढ़ा काला कीचड़ पैरों के निशानों
समेत: बसंत! नदी पर जमी बर्फ़ अपनी जगह से चल पड़ी. सिर्योझा बच्चों के साथ यह देखने
के लिए गया कि हिमखण्ड कैसे चलता है. पहले तो बड़े बड़े गन्दे टुकड़े बहने लगे, फिर कोई
एक भूरी भूरी, बर्फ़ की गाढ़ी गाढ़ी, खीर जैसी, चीज़ बहने लगी. फिर नदी दोनों ओर से
फ़ैलने लगी. उस किनारे पर खड़े सरकण्डे के पेड़ कमर तक पानी में डूब गए. सब कुछ नीला
नीला था, पानी और आकाश; भूरे और सफ़ॆद बादल आसमान पर और पानी पर तैर रहे थे.
....और कब, आखिर
कब, सिर्योझा की नज़र ही नहीं पड़ी, ‘दाल्न्याया’ रास्ते के पीछे इतने ऊँचे, इतने
घने पौधे आ गए? कब रई की फ़सल में बालियाँ आईं, कब उनमें फूल आए, कब फूल मुरझा गये?
अपनी ज़िन्दगी में मगन सिर्योझा ने ध्यान ही नहीं दिया, और अब वह भर गई है, पक रही
है, जब रास्ते पर चलते हो, तो सिर के ऊपर शोर मचाते हुए डोल रही है. पंछियों ने
अंडों में से पिल्ले बाहर निकाले, घास काटने की मशीन चरागाहों पर घूम रही थी –
फूलों को रौंदते हुए, जिनके कारण उस किनारे पर इतना सुन्दर और रंगबिरंगा था.
बच्चों की छुट्टियाँ हैं, गर्मी पूरे ज़ोर पर है, बर्फ़ और तारों के बारे में सोचना
भूल गया सिर्योझा...
करस्तिल्योव उसे अपने पास बुलाता है और घुटनों के बीच पकड़ता
है.
“ चलो, एक सवाल पर बहस करें,” वह कहता है.
“तुम्हारा क्या ख़याल है, हमें अपने परिवार में और किसे लाना चाहिए – लड़के को या
लड़की को?”
“लड़के को!” सिर्योझा ने फ़ौरन जवाब दिया.
“यहाँ, बात ऐसी है : बेशक, एक लड़के के मुक़ाबले
में दो लड़के बेहतर ही हैं; मगर, दूसरी ओर से देखें तो, लड़का तो हमारे यहाँ है ही,
तो, इस बार लड़की लाएँ, हाँ?”
“ऊँ, जैसा तुम चाहो,” बगैर किसी उत्सुकता के
सिर्योझा ने सहमति दिखाई. “लड़की भी चलेगी. मगर, जानते हो, लड़कों के साथ खेलना मुझे
ज़्यादा अच्छा लगता है.”
“तुम उसका ध्यान रखोगे और हिफ़ाज़त करोगे, बड़े भाई
की तरह. इस बात का ध्यान रखोगे कि लड़के उसकी चोटियाँ न खींचे.”
“लड़कियाँ भी तो खींचती हैं,” सिर्योझा टिप्पणी
करता है. “और वो भी कैसे!” वह वर्णन करके बता सकता था कि कैसे ख़ुद उसको अभी हाल ही
में लीदा ने बाल पकड़कर खींचा था; मगर उसे चुगली करना अच्छा नहीं लगता. “और खींचती
भी ऐसे हैं कि लड़के कराहने लगते हैं.”
“मगर हमारी वाली तो छो s s टी सी होगी,” करस्तिल्योव कहता है. “वह नहीं खींचेगी.”
“नहीं, मगर, फिर
भी, लड़का ही लाएँगे,” सिर्योझा कुछ सोचने के बाद कहता है. “लड़का ज़्यादा अच्छा है.”
“तुम ऐसा सोचते
हो?”
“लड़के चिढ़ाते नहीं हैं. और वे तो बस, चिढ़ाना ही
जानती हैं.”
“हाँ?...हुँ. इस बारे में सोचना पड़ेगा. हम एक
बार फिर इस पर सोच विचार करेंगे, ठीक है?”
“ठीक है, करेंगे सोच विचार.”
मम्मा मुस्कुराते
हुए सुन रही है, वह वहीं पर अपनी सिलाई लिए बैठी है. उसने अपने लिए एक चौड़ा – बहुत
बहुत चौड़ा हाउस-कोट सिया – सिर्योझा को बहुत आश्चर्य हुआ, इतना चौड़ा किसलिए – मगर
वह खूब मोटी भी हो गई थी. इस समय उसके हाथों में कोई छोटी सी चीज़ थी, वह इस छोटी
सी चीज़ पर चारों ओर से लेस लगा रही थी.
“ये तुम क्या सी रही हो?” सिर्योझा पूछता है.
“छोटी सी टोपी,” मम्मा जवाब देती है. “लड़के के
लिए या लड़की के लिए, जिसे भी तुम लोग लाना चाहोगे.”
“उसका क्या ऐसा सिर होगा?” खिलौने जैसी चीज़ की
ओर देखते हुए सिर्योझा पूछता है. (‘ओह, ये लो, और सुनो! अगर ऐसे सिर के बाल पकड़ कर
ज़ोर से खींचे जाएँ, तो सिर ही उखड़ सकता है!’)
“पहले ऐसा होता है,” मम्मा जवाब देती है, “फिर
बड़ा होगा. तुम तो देख ही रहे हो कि विक्टर कैसे बड़ा हो रहा है. और तुम ख़ुद कैसे
बड़े हो रहे हो. वह भी इसी तरह से बड़ा होगा.”
वह अपने हाथ पर
टोपी रखकर उसकी ओर देखती है; उसके चेहरे पर समाधान है, शांति है. करस्तिल्योव सावधानी से उसका माथा चूमता है, उस जगह पर जहाँ
उसके नर्म, चमकीले बाल शुरू होते हैं...
वे इस बात को बड़ी
गंभीरता से ले रहे थे – लड़का या लड़की: उन्होंने छोटी सी कॉट और रज़ाई ख़रीदी. मगर
लड़का या लड़की नहाएगा तो सिर्योझा के ही टब में. वह टब अब सिर्योझा के लिए छोटा हो
गया है, वह कई दिनों से उसमें बैठकर अपने पैर नहीं फैला सकता; मगर ऐसे इन्सान के
लिए, जिसका सिर इतनी छोटी सी टोपी में समा जाए, ये टब बिल्कुल ठीक है.
बच्चे कहाँ से लाए
जाते हैं ये सब को मालूम है: उन्हें अस्पताल में ख़रीदते हैं. अस्पताल बच्चों का
व्यापार करता है, एक औरत ने तो एकदम दो ख़रीद लिए. न जाने क्यों उसने दोनों बिल्कुल
एक जैसे ख़रीदे – कहते हैं कि वह उन्हें जन्म के निशान से पहचानती है: एक की गर्दन
पर निशान है, और दूसरे की नहीं है. समझ में नहीं आता कि उसे एक जैसे बच्चों की
क्या ज़रूरत पड़ गई. इससे तो अच्छा होता कि अलग अलग तरह के ख़रीदती.
मगर न जाने क्यों करस्तिल्योव
और मम्मा बेकार ही में इस काम में देर कर
रहे हैं, जिसे इतनी गंभीरता से शुरू किया था: कॉट खड़ी है, मगर न तो लड़के का कहीं
पता है, न ही लड़की का.
“तुम किसी को ख़रीदती क्यों नहीं हो?” सिर्योझा
मम्मा से पूछता है.
मम्मा हँसती है –
ओय, कितनी मोटी हो गई है.
“अभी इस समय उनके पास नहीं है. वादा किया है कि
जल्दी ही आएँगे.”
ऐसा होता है : किसी
चीज़ की ज़रूरत होती है, मगर उनके पास वह चीज़ होती ही नहीं है. क्या करें, इंतज़ार
करना पड़ेगा; सिर्योझा को ऐसी कोई जल्दी नहीं है.
छोटे बच्चे धीरे
धीरे बड़े होते हैं, मम्मा चाहे कुछ भी कहे. विक्टर को देखकर तो ऐसा ही लगता है.
कितने दिनों से विक्टर इस दुनिया में रह रहा है, मगर अभी वह सिर्फ एक साल और छह
महीने का ही है. कब वह बड़ा होकर बच्चों के साथ खेलेगा! और नया लड़का, या लड़की,
सिर्योझा के साथ इतने दूर के भविष्य में खेलने के क़ाबिल होगा, जिसके बारे में, सच
कहें तो, सोचना भी बेकार है. तब तक उसकी हिफ़ाज़त करनी पड़ेगी, उसे संभालना पड़ेगा. यह
एक अच्छा काम है, सिर्योझा समझता है कि अच्छा काम है; मगर फिर भी दिल बहलाने वाला
तो नहीं है, जैसा कि करस्तिल्योव को लगता
है. लीदा को कितनी मुश्किल होती है विक्टर को बड़ा करने में : उसको उठाओ, उसका दिल
बहलाओ और डाँटो भी. कुछ ही दिन पहले माँ और पापा शादी में गए थे, मगर लीदा घर में
बैठकर रो रही थी. अगर विक्टर न होता, तो वे उसे भी शादी में ले जाते. मगर उसके
कारण ऐसे रहना पड़ता है, जैसे जेल में हो, उसने कहा था.
अच्छा – चलो, जाने
दो : सिर्योझा तैयार है करस्तिल्योव और
मम्मा की मदद करने के लिए. उन्हें आराम से काम पर जाने दो, पाशा बुआ को खाना पकाने
दो, सिर्योझा इस गुड़िया जैसे सिर वाले, असहाय जीव का ज़रूर ख़याल रखेगा, जो बिना
देखभाल के ख़त्म ही हो जाएगा. वह उसे पॉरिज खिलाएगा, सुलाएगा. वह और लीदा बच्चे
उठाए उठाए एक दूसरे के घर जाते आते रहेंगे: दोनों का मिलकर देखभाल करना आसान होगा –
जब तक वे सोएँगे, हम लोग खेल भी सकते हैं.
एक दिन सुबह वह उठा
– उसे बताया गया कि मम्मा बच्चा लाने अस्पताल गई है.
चाहे उसने अपने आप
को कितना ही तैयार क्यों न किया था, फिर भी दिल धड़क रहा था : चाहे जो भी हो, यह एक
बड़ी घटना है...
वह पल पल मम्मा के
लौटने की राह देख रहा था; गेट के पीछे खड़ा रहा, इस बात का इंतज़ार करते हुए कि वह
अभी नुक्कड़ पर लड़के या लड़की को लिए दिखेगी, और वह भागकर उनसे मिलने जाएगा...पाशा
बुआ ने उसे पुकारा :
“करस्तिल्योव तुझे टेलिफोन पर बुला रहा है.”
वह घर के भीतर
भागा, उसने काला चोंगा पकड़ा जो मेज़ पर पड़ा था.
“मैं सुन रहा हूँ!” वह चिल्लाया. करस्तिल्योव की हँसती हुई, उत्तेजित आवाज़ ने कहा:
“सिर्योझ्का! तेरा अब एक भाई है! सुन रहे हो!
भाई! नीली आँखों वाला! वज़न है चार किलो, बढ़िया है न, हाँ? तुम ख़ुश हो?”
“हाँ!...हाँ...” घबरा कर और रुक रुक कर सिर्योझा
चिल्लाया. चोंगा ख़ामोश हो गया.
पाशा बुआ ने एप्रन
से आँखें पोंछते हुए कहा, “नीली आँखों वाला! – मतलब, पापा जैसा! तेरी बड़ी कृपा है,
भगवान! गुड लक!!”
“वे जल्दी आ जाएँगे?” सिर्योझा ने पूछा, और उसे
यह जानकर दुख और अचरज हुआ कि जल्दी नहीं आएँगे, शायद सात दिन बाद, या उससे भी
ज़्यादा – और क्यों, तो इसलिए कि बच्चे को मम्मा की आदत होनी चाहिए, अस्पताल में
उसे मम्मा के पास जाना, उसके पास रहना सिखाएँगे.
करस्तिल्योव हर रोज़ अस्पताल जाता था. मम्मा के पास उसे जाने
नहीं देते थे, मगर वह उसे चिट्ठियाँ लिखती थी. हमारा लड़का बहुत ख़ूबसूरत है. और
असाधारण रूप से होशियार है. आख़िर में उसने उसके लिए नाम भी सोच लिया – अलेक्सेई,
और उसको पुकारा करेंगे ‘ल्योन्या’ के नाम से. उसे वहाँ बहुत उदास लगता है, उकताहट
होती है, घर जाने के लिए वह तड़प रही है. और सबको अपनी बाँहों में लेती है और चूमती
है, ख़ासकर सिर्योझा को.
...सात दिन, या
उससे भी ज़्यादा गुज़र गए. करस्तिल्योव ने
घर से निकलते हुए सिर्योझा से कहा, “मेरी राह देखना, आज मम्मा को और ल्योन्या को
लाने जाएँगे.”
वह ‘गाज़िक’ में
तोस्या बुआ और गुलदस्ते के साथ लौटा. वे उसी अस्पताल में गए, जहाँ परदादी मर गई
थी. गेट से पहली बिल्डिंग की ओर चले, और अचानक मम्मा ने उन्हें पुकारा:
“मीत्या! सिर्योझा!”
वह खुली खिड़की से
देख र्ही थी और हाथ हिला रही थी. सिर्योझा चिल्लाया, “मम्मा!” उसने एक बार फिर हाथ
हिलाया और खिड़की से हट गई. करस्तिल्योव ने
कहा कि वह अभी बाहर आएगी. मगर वह जल्दी नहीं आई – वे रास्ते पर घूम फिर रहे थे और
स्प्रिंग पर लटके, चरमराते दरवाज़े की ओर देख लेते, और एक छोटे से पारदर्शी, बेसाया
पेड़ के नीचे पड़ी बेंच पर बैठ जाते. करस्तिल्योव बेचैन होने लगा, उसने कहा कि उसके आने तक फूल
मुरझा जाएँगे. तोस्या बुआ गाड़ी को गेट के बाहर छोड़ कर उनके पास आ गई और करस्तिल्योव
को समझाने लगी कि हमेशा इतनी ही देर लगती
है.
आख़िरकार द्रवाज़ा
चरमराया और मम्मा हाथों में नीला पैकेट लिए दिखाई दी. वे उसकी ओर लपके, उसने कहा,
“संभल के, संभल के!”
करस्तिल्योव ने उसे गुलदस्ता दिया और उसने वह पैकेट ले लिया,
उसका लेस वाला कोना खोला और सिर्योझा को उसने छोटा सा चेहरा दिखाया: गहरा लाल और
अकडू, और बन्द आँखों वाला : ल्योन्या, भाई...एक आँख ज़रा सी खुली, कोई हल्की-नीली
चीज़ बाहर झाँकी – झिरी में, चेहरा टेढ़ा हो गया; करस्तिल्योव ने धीमी आवाज़ में कहा: “आह, तू – तू...” और उसे
चूम लिया.
“ये क्या है, मीत्या!” मम्मा ने कड़ाई से कहा.
“क्या, नहीं करना चाहिए?” करस्तिल्योव ने पूछा.
“उसे किसी भी तरह का इन्फेक्शन हो सकता है,”
मम्मा ने कहा. “वहाँ उसके पास जाली वाला मास्क पहन कर आते हैं. प्लीज़, मीत्या.”
“ठीक है, नहीं करूँगा, नहीं करूंगा!” करस्तिल्योव
ने कहा.
घर में ल्योन्या को
मम्मा के पलंग पर रखा गया, उसके कपड़े हटाए गए, और तब सिर्योझा ने उसे पूरा देखा.
मम्मा के दिमाग में ये कहाँ से आ गया कि वह सुन्दर है? उसका पेट फूला हुआ था, और
उसके हाथ और पैर इतने पतले, इतने छोटे कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये इन्सान के हाथ-पैर
हैं, और वे बेमतलब हिल रहे थे. गर्दन तो बिल्कुल थी ही नहीं. किसी भी बात से ये
अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि वह होशियार है. उसने अपना पोपला, नंगे मसूड़ों वाला
छोटा सा मुँह खोला और बड़ी अजीब, दयनीय आवाज़ में चीख़ने लगा. आवाज़ हालाँकि कमज़ोर थी,
मगर वह ज़िद्दीपन से, बिना थके, एक सुर में चिल्लाए जा रहा था.
“नन्हा-मुन्ना मेरा!” मम्मा ने उसे शांत किया.
“तुझे भूख लगी है! तेरा खाने का टाइम हो गया! भूख लगी है मेरे नन्हे को! अभी ले,
अभी, अभी, ले!”
वह ज़ोर से बोल रही
थी, जल्दी जल्दी हलचल कर रही थी, और बिल्कुल भी मोटी नहीं थी – अस्पताल में वह
दुबली हो गई थी. करस्तिल्योव और पाशा बुआ
उसकी मदद करने की कोशिश कर रहे थे, और फ़ौरन उसके सारे हुक्म मानने के लिए दौड़ रहे
थे. ल्योन्या के लंगोट गीले थे. मम्मा ने उसे सूखे लंगोट में लपेटा, उसके साथ
कुर्सी पर बैठी, अपने ड्रेस की बटन खोली, अपनी छाती बाहर निकाली और ल्योन्या के
मुँह के पास लाई. ल्योन्या आख़िरी बार चीख़ा, उसने होठों से छाती पकड़ ली और लालच के
साथ, घुटती हुई साँस से उसे चूसने लगा.
‘छिः, कैसा है!’ सिर्योझा ने सोचा.
करस्तिल्योव उसके ख़यालों को भाँप गया. उसने हौले से कहा :
“आज उसे नौंवा ही तो दिन है,समझ रहे हो? नौंवा दिन, बस इतना ही; उससे किस बात की
उम्मीद कर सकते हो, ठीक है ना?”
“हुँ, हुँ,” परेशानी से सिर्योझा सहमत हुआ.
“आगे चलकर वह ज़रूर अच्छा आदमी बनेगा. देखोगे
तुम.”
सिर्योझा सोचने लगा
: ये कब होगा! और उसका ध्यान रखो भी तो कैसे, जब वह पतली पतली जैली जैसा है –
मम्मा भी बड़ी सावधानी से उसे लेती है.
पेट भरने के बाद
ल्योन्या मम्मा के पलंग पर सो गया. बड़े लोग डाईनिंग हॉल में उसके बारे में बातें
कर रहे थे.
“एक आया रखनी होगी,” पाशा बुआ ने कहा, “मैं
संभाल नहीं पाऊँगी.”
“किसी की ज़रूरत नहीं है,” मम्मा ने कहा. “जब तक
मेरी छुट्टियाँ हैं, मैं उसके साथ रहूँगी, और उसके बाद शिशु-गृह में रखेंगे, वहाँ
सचमुच की आया होती है, ट्रेंड, और सही तरह से देखभाल की जाती है.”
’हाँ, ये ठीक है,
जाए शिशु-गृह में,’ सिर्योझा ने सोचा; उसे काफ़ी राहत महसूस हो रही थी. लीदा हमेशा
इस बात का सपना देखा करती थी कि विक्टर को शिशु-गृह में भेजा गया है...सिर्योझा
पलंग पर चढ़ गया और ल्योन्या के पास बैठ गया. जब तक वह चिल्लाता नहीं और मुँह टेढ़ा
नहीं करता, वह उसे अच्छी तरह देखना चाहता था. पता चला कि ल्योन्या की बरौनियाँ तो
हैं, मगर वे बहुत छोटी छोटी हैं. गहरे लाल चेहरे की त्वचा मुलायम, मखमली थी;
सिर्योझा ने छूकर महसूस करने के इरादे से उसकी ओर उँगली बढ़ाई...
“ये तुम क्या कर रहे हो!” मम्मा भीतर आते हुए
चहकी.
अचानक हुए इस हमले
से वह थरथराया और उसने अपना हाथ पीछे खींच लिया...
“फ़ौरन नीचे उतरो! कहीं गंदी उँगलियों से उसे कोई
छूता है!”
“मेरी साफ़ हैं,” सिर्योझा ने भयभीत होकर पलंग से
नीचे उतरते हुए कहा.
“और वैसे भी, सिर्योझेन्का,” मम्मा ने कहा, “जब
तक वह छोटा है, उससे दूर ही रहना अच्छा है. तुम अनजाने में उसे धक्का दे सकते
हो...कुछ भी हो सकता है. और, प्लीज़, बच्चों को यहाँ मत लाना, वर्ना और किसी बीमारी
का संसर्ग हो स्कता है...चलो, बेहतर है, हम ही उनके पास जाएँ!” प्यार से और आदेश
देने के सुर में मम्मा ने अपनी बात पूरी की.
सिर्योझा उसकी बात
मानकर बाहर निकल गया. वह सोच में पड़ गया था. ये सब वैसा नहीं है, जैसी उसने उम्मीद
की थी...मम्मा ने खिड़की पर शॉल लटकाई, जिससे ल्योन्या को रोशनी तंग न करे, वह
सिर्योझा के पीछे पीछे बाहर निकली और उसने दरवाज़ा उड़का लिया.
अध्याय 11
वास्का
और उसके मामा
वास्का के एक मामा
हैं. लीदा ज़रूर कहती कि यह सब झूठ है, कोई मामा-वामा नहीं है, मगर उसे अपना मुँह
बन्द रखना पड़ेगा : मामा हैं; ये है उनकी फोटो – शेल्फ पर, लाल बुरादे से भरे दो
गुलदस्तों के बीच में. मामा की फोटो ताड़ के पेड़ के नीचे ली गई है; उन्होंने पूरी
सफ़ेद ड्रेस पहनी है, और सूरज भी ऐसी चकाचौंध करती रोशनी फेंक रहा है, कि न तो उनका
चेहरा, और न ही उनकी ड्रेस समझ में आती है. फ़ोटो में सिर्फ़ ताड़ का पेड़ ही अच्छी
तरह आया है, और दो छोटी छोटी काली परछाईयाँ भी : एक मामा की दूसरी ताड़ के पेड़ की.
चेहरा तो – कोई बात
नहीं, मगर दुख इस बात का है कि मामा की ड्रेस समझ में नहीं आ रही है. वो सिर्फ़
मामा ही नहीं है, बल्कि वो एक समुद्री जहाज़ के कप्तान हैं. वास्का कहता है कि फ़ोटो
होनोलुलु शहर में ली गई है, ओआखू द्वीप पर. कभी कभी मामा के पास से पार्सल आते
हैं. वास्का की माँ शेख़ी मारती है:
“कोस्त्या ने फिर से दो कटपीस भेजे हैं.”
कपड़े के टुकड़ों को
वह कटपीस कहती है. मगर पार्सलों में कीमती चीज़ें भी होती हैं जैसे: स्प्रिट की
बोतल, और उसमें छोटा सा मगर का पिल्ला, छो s
s टा, जैसे मछली,
मगर सचमुच का; वह स्प्रिट में चाहो तो सौ साल तक रह सकता है और ख़राब नहीं होगा.
तभी वास्का इतनी शेखी मारता है: हर चीज़ जो और बच्चों के पास है – मगर के पिल्ले के
सामने कुछ भी नहीं.
या फिर पार्सल में
बड़ी सी सींप आती है : बाहर से भूरी, और अन्दर से गुलाबी – गुलाबी पल्ले ज़रा से
खुले हुए, होठों जैसे – और अगर उसे कान के पास रखो तो हल्की – जैसे बहुत दूर से आ
रही हो, एकसार घरघराहट सुनाई देती है. जब वास्का अच्छे मूड़ में होता है तो वह
सिर्योझा को सुनने के लिए देता है. और सिर्योझा सींपी से कान लगाए खड़ा रहता है,
निश्चल, खुली आँखों से, और, साँस थामकर, सुनता है धीमी, निरंतर घरघराहट जो सींपी
की गहराई से आ रही है. कैसी है ये घरघराहट? वह कहाँ से आती है? इसके कारण इतनी
बेचैनी क्यों महसूस होती है – और क्यों इसे सुनते रहने को जी चाहता है?...
और यह मामा,
असाधारण, सबसे अलग – ये मामा होनोलुलु और दूसरे सभी द्वीपों के बाद वास्का के यहाँ
आने की सोचते हैं! वास्का ने रास्ते पर आकर इस बारे में बताया; बड़ी बेफ़िक्री से
बताया, मुँह के कोने में सिगरेट दबाए और धुँए से आँख सिकोड़ते हुए; इस तरह से बताया
जैसे इसमें कोई ख़ास बात नहीं थी. और जब शूरिक ने कुछ देर की ख़ामोशी के बाद मोटी
आवाज़ में पूछा, “कौन से मामा? कप्तान?” – तो वास्का ने जवाब दिया:
“और कौन से? मेरे तो दूसरे कोई मामा ही
नहीं हैं.” उसने ‘मेरे तो’ बड़े नखरे से कहा, जिससे स्पष्ट हो जाए: “तुम्हारे कोई
और मामा हो सकते हैं, कप्तान नहीं; मगर मेरे वैसे कोई नहीं हो सकते. और सब ने मान
लिया कि वाक़ई में ऐसी ही बात है.
“वे क्या जल्दी ही आने वाले हैं?” सिर्योझा ने
पूछा.
“एक-दो हफ़्ते बाद,” वास्का ने जवाब दिया.
“अच्छा, मैं जाता हूँ चूना ख़रीदने.”
“तुझे चूना क्यों चाहिए?” सिर्योझा ने पूछा.
“माँ छत की सफ़ेदी करने वाली है.”
बेशक, ऐसे मामा की
ख़ातिर छतों की सफ़ेदी कैसे नहीं की जाए!
“झूठ बोलता है,” लीदा से रहा नहीं गया. “कोई भी
नहीं आ रहा है उनके घर.”
इतना कह कर वह फ़ौरन
पीछे हट गई, इस डर से कि कहीं कान पर झापड़ न पड़ जाए. मगर इस बार वास्का ने उसे कान
पर झापड़ नहीं दिया. “बेवकूफ़” भी नहीं कहा – सिर्फ बेंत की बास्केट हिलाते हुए दूर
निकल गया, जिसमें चूने के लिए एक थैली पड़ी थी. और लीदा अपमानित सी वहीं खड़ी रह गई.
...छतों पर सफ़ेदी
की गई और नए वॉल पेपर चिपकाए गए. वास्का वॉल पेपर के टुकड़ों पर गोंद लगा लगाकर माँ
को देता और वह उन्हें चिपकाती. बच्चे ड्योढ़ी से झाँक रहे थे – वास्का ने उन्हें
कमरों में आने से मना किया था.
“तुम लोग मुझे गड़बड़ा देते हो,” उसने कहा.
इसके बाद वास्का की
माँ ने फ़र्श धोया और वहाँ एक चटाई बिछा दी. वह और वास्का चटाई पर चल रहे थे, फ़र्श
पर पैर नहीं रख रहे थे.
“नाविक लोगों को सफ़ाई से बेहद प्यार होता है,”
वास्का की माँ ने कहा.
अलार्म घड़ी पिछले
कमरे में रख दी गई, जहाँ मामा सोया करेंगे.
“नाविक हर काम घड़ी के मुताबिक करते हैं,” वास्का
की माँ ने कहा.
बड़ी बेसब्री से
मामा का इंतज़ार हो रहा था. अगर दाल्न्याया रास्ते पर कोई गाड़ी मुड़ती तो सब की साँस
रुक जाती – कहीं ये मामा ही तो नहीं आ रहे हैं स्टेशन से. मगर गाड़ी गुज़र जाती और
मामा होते ही नहीं थे, और लीदा बड़ी ख़ुश होती. उसकी अपनी अलग तरह की ख़ुशियाँ थीं,
वैसी नहीं जैसी औरों की होती थीं.
शाम को, काम से
लौटकर और घर का काम निपटा कर, वास्का की माँ गेट से बाहर निकलती पड़ोसियों के सामने
अपने कैप्टेन भाई की तारीफ़ करने. और बच्चे, एक ओर को खड़े होकर सुनते.
“अभी वह हेल्थ- रिसॉर्ट में है,” वास्का की माँ
ने कहा. “अपनी सेहत सुधार रहा है. दिल कमज़ोर है. उसे ‘पास’ मिला है, बेशक, सबसे
अच्छे रिसॉर्ट का. और इलाज के बाद वह हमारे यहाँ आएगा.”
“एक समय था, कितना बढ़िया गाता था वो!” वह आगे
बोली, “ कैसे वह क्लब में गाया करता था, ‘कहाँ, कहाँ तुम चले गए हो’’ –
कोज़्लोव्स्की से भी बढ़िया! अब, बेशक, मोटा हो गया है, साँस फूलने लगती है, और
परिवार में भी भगवान जाने क्या हो रहा होगा, ऐसे में कोई कैसे गा सकता है!”
उसने आवाज़ नीची कर
ली और बच्चों से छिपाते हुए और कुछ कहने लगी.
“और सब लड़कियाँ ही हैं,” वह कह रही थी. “एक
सुनहरे बालों वाली, दूसरी साँवली, तीसरी लाल बालों वाली. सिर्फ बड़ी वाली कोस्त्या
जैसी है. और वह समन्दर में सफ़र करता रहता है और कुढ़ता रहता है. मगर बीबी भाग्यवान
है. लड़कियाँ चाहे दस भी हों, उन्हें पालना एक लड़के के मुकाबले ज़्यादा आसान है.”
पड़ोसियों ने वास्का
की ओर देखा.
“भाई होने के नाते
कोई सलाह दे दे,” वास्का की माँ बोलती रही, “अपना मर्दों वाला फ़ैसला सुना दे. मैं
तो एकदम बेज़ार हो गई हूँ.”
“लड़कों के साथ बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ती है,” झेन्का
की मौसी ने आह भरी, “जब तक उन्हें अपने पैरों पर न खड़ा करो.”
“निर्भर करता है कि लड़का कैसा है,” पाशा बुआ ने
विरोध किया. “हमारा, मिसाल के तौर पर, बेहद नाज़ुक मिजाज़ का है.”
“ये तो जब तक छोटा है, तभी तक,” वास्का की माँ
ने जवाब दिया. “बचपन में सभी नर्म मिजाज़ होते हैं. मगर जब बड़े हो जाते हैं – तो
अपने रंग दिखाने लगते हैं.”
कप्तान मामा रात
में आए – सुबह बच्चों ने वास्का के बगीचे में झाँका, और वहाँ पगडंडी पर मामा खड़े
थे, पूरे बर्फ़ जैसी सफ़ेद ड्रेस में, जैसे कि फ़ोटो में थे : सफ़ेद ट्यूनिक, सफ़ेद
जूते, सफ़ेद पतलून क्रीज़ वाली, ट्यूनिक पर सुनहरे बटन; पीठ के पीछे हाथ किए खड़े
हैं, और मुलायम, कुछ कुछ नाक से, कुछ कुछ हाँफ़ती आवाज़ में बोल रहे हैं:
“यहँ कितना सुं – दर है! कैसा स्वर्ग है! गर्म
प्रदेश से आने के बाद यहाँ दिल खोलकर आराम कर सकते हैं. तुम कितनी ख़ुशनसीब हो,
पोल्या, कि इतनी अद्भुत जगह पर रहती हो.”
वास्का की माँ कहती
है,
“हाँ, हमारे यहाँ ठीक ठाक है.”
“आह, स्टार्लिंग का घर!” कमज़ोर आवाज़ में मामा
चिल्लाए. “स्टार्लिंग का घर बर्च के पेड़ पर! पोल्या तुझे याद है हमारी स्कूल की
किताब, उसमें बिल्कुल ऐसी ही तस्वीर थी – बर्च ट्री पर लटका हुआ स्टार्लिंग का
घर!” (स्टार्लिंग – एक छोटा, शोर मचाने वाला, काले चमकदार पंखों वाला पक्षी.
उसके लिए एक लकड़ी का बक्सा अक्सर पेड़ पर या खंभे पर लगा देते हैं.)
“ये स्टार्लिंग का घर वास्या ने टांगा है वहाँ,”
वास्या की माँ ने कहा.
“म-स्त छोकरा है!” मामा ने कहा.
वास्का भी वहीं था,
नहाया धोया, नम्र, बिना कैप के, बाल कढ़े हुए, जैसा कि पहली मई को करता है.
“चलो, नाश्ता करने,” वास्का की माँ ने कहा.
“मुझे इस हवा में साँस लेनी है!” मामा ने विरोध
किया. मगर वास्का की माँ उन्हें ले गई. वह ड्योढ़ी पर चढ़े, भारी-भरकम, जैसे सोना
लगा हुआ सफ़ेद टॉवर, और घर के भीतर छुप गए. वह मोटे थे, और ख़ूबसूरत भी, भला चेहरा,
दोहरी ठोढ़ी. चेहरा धूप में तांबे जैसा हो गया था, और माथा सफ़ेद झक्; एक सीधी लकीर
धूप में साँवले पड़ गए चेहरे को सफ़ेदी से अलग कर रही थी...और वास्का फ़ेंसिंग के पास
आया, जिसके बाँसों के बीच से चिपक कर देख रहे थे सिर्योझा और शूरिक.
“क्या,” उसने प्यार से पूछा, “तुम्हें क्या
चाहिए, बच्चों?”
मगर वे सिर्फ नाक
से सूँ-सूँ करते खड़े रहे.
“वे मेरे लिए घड़ी लाए हैं,” वास्का ने कहा. हाँ,
उसके दाएँ हाथ पर घड़ी बंधी थी, सचमुच की घड़ी, पट्टे वाली! हाथ उठाकर उसने सुना कि
वह कैसे टिक-टिक करती है, और चाभी भी घुमाई.
“और क्या, हम तुम्हारे यहाँ आ सकते हैं?”
सिर्योझा ने पूछा.
“ठीक है, आओ,” वास्का ने इजाज़त दी. “मगर ख़ामोश
रहना! और जब वे आराम करने के लिए लेटेंगे, और जब रिश्तेदार आएँगे, तो एक भी लब्ज़
बोले बिना निकल जाना. हमारे यहाँ परिवार की मीटिंग होने वाली है.”
“कैसी परिवार की मीटिंग?” सिर्योझा ने पूछा.
“बैठकर सलाह-मशविरा करेंगे कि मेरा क्या किया
जाए,” वास्का ने समझाया.
वह घर में चला गया,
और बच्चे भी अन्दर चले गए, चुपचाप, और देहलीज़ के पास खड़े रहे.
कप्तान मामा ने
ब्रेड के टुकड़े पर मक्खन लगाया, काँच के प्याले में उबला हुआ अंडा रखा, उसे चम्मच
से तोड़ा, सावधानी से छिलका निकाला और उस पर नमक लगाया. नमक उन्होंने नमकदानी से
छुरी की नोक से लिया. किसी चीज़ की ज़रूरत थी उन्हें, उन्होंने इधर-उधर देखा, उनकी
सफ़ेद भौंहों पर परेशानी के भाव छा गए. आख़िर में उन्होंने अपनी मुलायम आवाज़ में
नज़ाकत से पूछा:
“पोल्या, माफ़ करना, क्या एक नैपकिन मिल सकता
है?”
वास्का की माँ
भागकर गई और उसके लिए साफ़ सुथरा रूमाल लाई. उन्होंने धन्यवाद दिया, रूमाल को
घुटनों पर रखा और खाने लगे. वह ब्रेड के छोटे छोटे टुकड़े खा रहे थे, और बिल्कुल भी
पता नहीं चल रहा था कि वह कैस उन्हें चबाते हैं और निगलते हैं. और वास्का त्योरी
चढ़ाए बैठा था, उसके चेहरे पर कई तरह के भाव प्रकट हो रहे थे: उसे बुरा लग रहा था
कि उनके घर में रूमाल भी नहीं मिला; और साथ ही उसे अपने सुसंस्कृत मामा पर गर्व भी
हो रहा था जो बिना रूमाल के नाश्ता नहीं कर सकता था.
वास्का की माँ ने
कई तरह की खाने की चीज़ें मेज़ पर सजाई थीं. मामा ने हर चीज़ थोड़ी थोड़ी ली, मगर एक
तरफ़ से ऐसा भी लग रहा था कि वे कुछ खा ही नहीं रहे हैं, और वास्का की माँ ने कहा:
“तुम कुछ खा ही नहीं रहे हो! तुम्हें अच्छा नहीं
लगा!”
“हर चीज़ इतनी स्वादिष्ट है,” मामा ने कहा, “मगर
मैं डाएट पर हूँ, बुरा न मानो, पोल्या.”
वोद्का पीने से
उन्होंने इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि, “नहीं. दिन में एक बार कोन्याक का एक
छोटा पैग,” उन्होंने नफ़ासत से दो उँगलियों से दिखाया कि पैग कितना छोटा होता है –
“दोपहर के खाने के पहले, इससे धमनियाँ चौड़ी हो जाती हैं, बस, इतना ही मैं ले सकता
हूँ.”
नाश्ते के बाद
उन्होंने वास्का से घूमने का प्रस्ताव किया और कैप पहनी, वह भी सफ़ेद, सोना जड़ी
हुई.
“तुम लोग – अपने अपने घर जाओ,” वास्का ने
सिर्योझा और शूरिक से कहा.
“आह, ले चलेंगे उन्हें भी!” मामा ने नाक से कहा.
“ब-ढ़िया हैं बच्चे! लुभावने भाई हैं!”
“हम भाई नहीं हैं,” शूरिक ने भारी आवाज़ में कहा.
“वे भाई नहीं हैं,” वास्का ने पुष्टि की.
“वाक़ई?” मामा को आश्चर्य हुआ. “और मैं सोच रहा
था – भाई हैं. कुछ समानता तो है: एक भूरे बालों वाला, दूसरा काले बालों
वाला...हुँ, भाई नहीं हैं – कोई बात नहीं, चलो घूमने!”
लीदा ने उन्हें
बाहर रास्ते पर निकलते देखा. वह तो उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ने ही लगती. मगर वास्का
ने कंधे के ऊपर से तिरछी नज़र से उसकी ओर देखा, वह मुड़कर, उछलते हुए, दूसरी ओर भाग
गई.
वे जंगल की झाड़ियों
में घूम रहे थे – मामा पेड़ों को देखकर विभोर हो रहे थे. खेतों में घूमे – वे
बालियों को देखकर मगन हो गए. सच्ची बात कहें, तो उनके जोश को देखकर सब उकता गए :
इससे अच्छा तो वे ये ही बताते कि वहाँ समुद्र और द्वीपों पर कैसा होता है. मगर,
फिर भी, वे अच्छे थे – उनकी पोशाक की सुनहरी पट्टियाँ धूप में जिस तरह चमक रहीं
थीं, उससे तकलीफ़ होती थी. वह वास्का के साथ चल रहे थे, और सिर्योझा और शूरिक कभी
पीछे रहते, कभी सामने से मामा का चेहरा देखने के लिए भागकर आगे जाते. वे नदी के
पास आए. मामा ने घड़ी देखी और बोले कि थोड़ी देर तैर सकते हैं. और वे गरम गरम, साफ़
रेत पर कपड़े उतारने लगे.
सिर्योझा और शूरिक
को यह देखकर निराशा हुई कि कोट के नीचे मामा ने नाविकों की धारियों वाली बनियान
नहीं, बल्कि साधारण सफ़ेद कमीज़ पहनी थी. मगर, हाथ ऊपर करके जैसे ही उन्होंने सिर से
कमीज़ खींची, वे बुत बन गए.
मामा का पूरा शरीर,
गर्दन से शॉर्ट्स तक, ये पूरा लंबा चौड़ा, धूप में एक-सा साँवला हुआ, चरबी की परतों
वाला शरीर घनी, गहरी नीली नक्काशी से ढँका हुआ था. मामा पूरी तरह से सीधे खड़े हो
गए तो बच्चों ने देखा कि ये कोई नक्काशी नहीं, बल्कि कुछ चित्र, कुछ लिखाई थी. सीने
पर एक जलपरी बनी हुई थी, उसकी मछलियों जैसी पूँछ और लंबे लंबे बाल थे; बाएँ कंधे
से उसकी ओर एक ऑक्टोपस रेंग कर आ रहा था अपने लहराते हुए तंतुओं और भयानक, इन्सान
जैसी आँखों के साथ; जलपरी उसकी ओर बाँहें फ़ैला रही थी, चेहरा मोड़ कर विनती कर रही
थी कि उसे न पकड़े – बड़ा डरावना और सजीव चित्र! दाएँ कंधे पर दूर तक फैली हुई लिखाई
थी, कई लाईनों में, और दाहिने हाथ पर भी – कह सकते हैं कि मामा का पूरा दाहिना
बाज़ू लिखाई से भर गया था. बाएँ हाथ पर, कोहनी के ऊपर दो कबूतर चोंच मिलाए एक दूसरे
को चूम रहे थे, उनके ऊपर एक हार और एक मुकुट था, कोहनी के नीचे – शलजम, तीर से
बिंधा हुआ, और उसके नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था, ‘मूस्या’.
“लाजवाब!” शूरिक ने सिर्योझा से कहा.
“लाजवाब!” सिर्योझा ने गहरी साँस ली.
मामा पानी में घुस
गए, एक डुबकी मारी, गीले बालों और प्रसन्न चेहरे से ऊपर आए, नाक से फुरफुराए और
बहाव के विरुद्ध तैरने लगे. बच्चे – उन्हें देखते रहे, मंत्रमुग्ध होकर.
क्या तैर रहे थे
मामा! बड़ी सहजता से वे पानी में हलचल कर रहे थे, बड़ी सहजता से पानी उनके भारी भरकम
शरीर को संभाले हुए था. पुल तक तैरने के बाद वे मुड़े, पीठ पर लेटकर नीचे की ओर
तैरने लगे, पैरों की उँगलियों से अपने शरीर का जिस तरह संचालन कर रहे थे, वह समझ
में भी नहीं आ रहा था. और पानी के भीतर, उनके सीने पर जलपरी इस तरह लहरा रही थी,
जैसे ज़िन्दा हो.
इसके बाद मामा
किनारे पर लेट गए, पेट रेत पर रखकर, आँखें बन्द करके, प्रसन्नता से मुस्कुराते
हुए, और बच्चे उनकी पीठ देख रहे थे, जहाँ बनी थी खोपड़ी और हड्डियाँ, जैसी कि
टेलिफ़ोन के बूथ पर होती हैं, और बना था चाँद, और सितारे, और लंबी ड्रेस में एक
औरत, जिसकी आँखों पर पट्टी बंधी थी; वह घुटने फ़ैलाए बैठी थी, बादलों पर. शूरिक ने
हिम्मत बटोरी और पूछा,
“मामा, ये आपकी पीठ पर क्या है?”
मामा हँस पड़े, वे
उठे और शरीर पर चिपकी रेत झटकने लगे.
“ये, मुझे यादगार के तौर पर मिले हैं,” उन्होंने
कहा, “अपनी जवानी और असभ्यता के बारे में. देख रहे हो, मेरे प्यारों, कभी मैं इस
हद तक असभ्य था कि अपने शरीर को बेवकूफ़ी भरे चित्रों से ढाँक लिया, और ये, अफ़सोस,
ज़िन्दगी भर के लिए है.”
“और ये आपके ऊपर लिखा क्या है?” शूरिक ने पूछा.
“क्या ये महत्वपूर्ण है, “ मामा ने कहा, “कि
आपके जिस्म पर क्या बकवास लिखी है. महत्वपूर्ण हैं इन्सान की भावनाएँ और उसका
बर्ताव. तुम क्या सोचते हो, वास्का?”
“सही है!” वास्का ने कहा.
“और समुद्र?” सिर्योझा ने पूछा, “कैसा होता है
वो?”
“समुद्र,” मामा ने दुहराया. “समुद्र? कैसे बताऊँ
तुम्हें. समुद्र तो समुद्र है. समुद्र से ज़्यादा ख़ूबसूरत और कोई चीज़ नहीं. इसे
अपनी आँखों से देखना चाहिए.”
“और जब तूफ़ान आता है,” शूरिक ने पूछा, “क्या
भयानक होता है?”
“तूफ़ान – ये भी ख़ूबसूरत होता है,” मामा ने जवाब
दिया. “समुद्र में हर चीज़ सुन्दर होती है.” ख़यालों में डूबकर सिर हिलाते हुए
उन्होंने कविता पढ़ी:
बात क्या एक ही नहीं, कहा उसने, कहाँ?
पानी में लेटने से ज़्यादा सुकून और कहाँ.”
और वे अपनी पतलून
पहनने लगे.
घूमने के बाद उन्होंने आराम किया, और बच्चे
वास्का की गली में खड़े होकर मामा के गोदने के बारे में बात करने लगे.
“ये बारूद से किया जाता है,” कालीनिन सड़क के एक
लड़के ने कहा. “पहले तस्वीर बनाते हैं, फिर
उस पर बारूद मलते हैं. मैंने पढ़ा था.”
“और तू बारूद कहाँ से लाएगा?” दूसरे ने पूछा.
“कहाँ : दुकान से.”
“दे दिए तुम को दुकान से. सिगरेट ही सोलह साल की
उम्र तक नहीं देते हैं, बारूद की तो बात ही छोड़ो.”
“शिकारियों के पास से ले सकते हैं.”
“दे चुके वे भी तुझे बारूद!”
“बिल्कुल देंगे.”
“देख लेना, नहीं देंगे.”
मगर तीसरे लड़के ने
कहा:
“बारूद से तो पिछले ज़माने में किया करते थे. अब
तो काली स्याही की टिकिया से या काली स्याही से करते हैं.”
“अगर स्याही से करें तो वहाँ पकेगा?” किसी ने
पूछा.
“बिल्कुल पकेगा.”
“बेहतर है स्याही की टिकिया से. स्याही की
टिकिया से बढ़िया पकेगा.”
“स्याही से भी अच्छा ही पकता है.”
सिर्योझा सुन रहा
था और अपनी कल्पना में ओआखू द्वीप पर होनोलूलू शहर को देख रहा था, जहाँ ताड़ के पेड़
होते हैं, और चकाचौंध करता सूरज चमकता है. और ताड़ के पेड़ों के नीचे खड़े होकर बर्फ़
जैसी सफ़ेद, सुनहरी धारियों की पोशाक पहनकर कप्तान फोटो खिंचवाते हैं. ‘मैं भी ऐसी
ही फोटो निकलवाऊँगा,’ सिर्योझा ने सोचा. इन सारे लड़कों की तरह, जो बारूद और स्याही
के बारे में बहस कर रहे थे, उसे भी इस बात में दृढ़ विश्वास था कि उसे दुनिया में
जो भी होता है, वह सब कुछ करना है – होनोलूलू और कप्तानी करना भी. वह इस बात में
उसी तरह विश्वास कर रहा था, जैसे उस बात में कि वह कभी नहीं मरेगा. हर चीज़ का
अनुभव होगा; ज़िन्दगी में, जिसका कभी अंत नहीं होता, वह हर चीज़ देखेगा.
शाम को उसे वास्का
के मामा की याद सताने लगी: और वो तो आराम पे आराम किए जा रहे थे – कल रात को सफ़र
में वे पूरी रात सो नहीं पाए थे. वास्का की माँ अपनी ऊँची एड़ी के जूतों में दौड़ते
हुए रास्ते के उस ओर गई और दौड़ते दौड़ते पाशा बुआ से यह कह गई कि कोन्याक लेने जा
रही है. कोस्त्या कोन्याक के आलावा कुछ और नहीं ना पीता है. सूरज ढलने लगा.
रिश्तेदार आए. घर में बिजली के बल्ब जलाए गए. और परदों तथा जिरेनियम के पौधों के
कारण रास्ते से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. मगर जब शूरिक ने उसे अपने लीपा के
पेड़ पर बुलाया तो सिर्योझा बड़ा ख़ुश हुआ. वहाँ से भीतर का सब कुछ दिखाई दे रहा था.
“जब वे जागे तो उन्होंने कसरत की,” शूरिक ने
बताया, जो बड़ी व्यस्तता के भाव से सिर्योझा के साथ चल रहा था. “और जब उन्होंने
दाढ़ी बनाई तो अपने आप पर यू डी कोलोन का स्प्रे छिड़का. वे लोग खाना खा चुके
हैं...चलो, पिछली गली से चलते हैं, वर्ना लीद्का भी पीछे पड़ जाएगी..”
लीपा का पुराना पेड़
तिमोखिन के बाग में पीछे की ओर था, उस जाली के पास, जो इस बाग को वास्का के बाग से
अलग करती थी. जाली के एकदम पीछे – वास्का के घर की दीवार थी, मगर जाली पर चढ़ नहीं
सकते, वह सड़ चुकी है, चरमराती है और टूट कर बिखर जाती है...
लीपा के पेड़ में
सामने ही एक खोह थी, गर्मियों में वहाँ हुदहुद पक्षी रहते थे, अब शूरिक ने उसमें
अपनी चीज़ें रखी हैं, जिन्हें बड़ों से छुपाकर रखना ही बेहतर होता है – कारतूसों के
खोल और मैग्निफ़ाइंग ग्लास, जिसकी सहायता से गर्मी से जला जला कर फ़ेंसिंग पर और
बेंचों पर कई शब्द बनाए जा सकते हैं.
खुरदुरे, दरारें
पड़े तने पर पैरों को घसीटते हुए बच्चे लीपा के पेड़ पर चढ़ गए और ख़ूब सारी टहनियों
वाली, गड्ढों वाली डाल पर बैठ गए – शूरिक ने तने को कस कर पकड़ रखा था, और सिर्योझा
था उसके पीछे.
अब वे थे रेशमी –
सरसराते हुए, प्यार से गुदगुदी करते, ताज़ी-कड़वी ख़ुशबू वाले लीपा के पत्तों के
तम्बू में. ऊपर, उनके सिरों के ऊपर डूबते हुए सूरज की रोशनी में तम्बू सुनहरा
प्रतीत हो रहा था, और जैसे जैसे नीचे आ रहा था, अँधेरा गहराता जा रहा था. काले
पत्तों वाली डाली सिर्योझा के सामने झूल रही थी, वह वास्का के घर के भीतर के दृश्य
को ढाँक नहीं रही थी. वहाँ बिजली की रोशनी हो रही थी और रिश्तेदरों के बीच कप्तान
मामा बैठे थे. और अन्दर की बातचीत भी सुनाई दे रही थे.
या
वास्का की माँ हाथ
नचाते हुए कह रही थी, “और लिख कर देते हैं रसीद कि नागरिक चुमाचेन्को पे.पे. से
रास्ते पर गुंडागर्दी करने के आरोप में 25 रूबल्स का दंड प्राप्त हुआ.”
एक रिश्तेदार औरत
हँसने लगी.
“मेरी राय में इसमें हँसने वाली कोई बात ही नहीं
है,” वास्का की माँ ने कहा, “वापस दो महीने बाद मुझे पुलिस थाने में बुलाया जाता
है और आरोप पत्र दिखाया जाता है, और फिर से कागज़ में लिख कर देते हैं कि मैंने
पचास रूबल्स भरे हैं सिनेमा हॉल की शो केस की काँच तोड़ने के जुर्म में.”
“तू ये बता कि कैसे उसे बड़े लड़कों ने मारा. तू
बता कि कैसे उसने सिगरेट से रज़ाई जला दी, घर ही जल जाता!”
“और उसके पास सिगरेट के लिए पैसे कहाँ से आए?”
कप्तान मामा ने पूछा.
वास्का घुटनों पर
कुहनियाँ टिकाए, हथेली पर गाल रखे बैठा था – नम्र, बाल करीने से कढ़े हुए.
“बदमाश,” मामा अपनी नर्म आवाज़ में बोले, “मैं
तुझसे पूछ रहा हूँ – पैसे कहाँ से लेता है?”
“मम्मा देती है,” वास्का ने गुस्से से कहा.
“माफ़ करना, पोल्या,” मामा ने कहा, “मैं समझ नहीं
पा रहा हूँ.”
वास्का की माँ
हिचकियाँ ले लेकर रोने लगी.
“अपनी प्रगति-पुस्तिका दिखाओ,” मामा ने वास्का
को हुक्म दिया.
वास्का उठकर अपनी
प्रगति-पुस्तिका लाया. मामा ने आँखें सिकोड़ कर उसके पन्ने पलटे और नर्मी से कहा,
“लुच्चा, सूअर.”
प्रगति-पुस्तिका
मेज़ पर फेंक दी, रूमाल निकाला और उसे हिला हिला कर हवा करने लगे.
“हाँ,” उन्होंने कहा, “बड़े दुख की बात है. अगर
उसका भला चाहती हो, तो उस पर सख़्ती करनी ही पड़ेगी. मेरी नीना को ही देखो...कितनी
अच्छी तरह से लड़कियों को पाला है! बड़ी अनुशासित हैं, पियानो बजाना सीखती
हैं...क्यों? क्योंकि वह सख़्ती से पेश आती है.”
“लड़कियों को संभालना ज़्यादा आसान होता है!” सारे
रिश्तेदर एक सुर में बोले. “लड़कियाँ उस तरह की नहीं होती हैं, जैसे लड़के होते
हैं!”
“ज़रा ग़ौर करो, कोस्त्या,” उस रिश्तेदार महिला ने
कहा, जिसने कम्बल के बारे में शिकायत की थी, “जब वह उसे पैसे नहीं देती, तो ये
बिना पूछे उसके पर्स में से निकाल लेता है.”
वास्का की माँ और
भी ज़ोर से हिचकियाँ लेने लगी.
“तो फिर मैं किससे लूँ,” वास्का ने पूछा, “क्या
दूसरों से लूँ, हाँ?”
“निकल जा यहाँ से!” नाक में चिल्लाए मामा और उठ
कर खड़े हो गए.
“मारेंगे उसे,” शूरिक ने फुसफुसाकर सिर्योझा से
कहा...
टूटने की आवाज़ हुई;
डाली, जिस पर वे बैठे थे, बड़ी तेज़ी से चरमराते हुए नीचे आ गई; उसके साथ सिर्योझ भी
गिरा, शूरिक को अपने साथ लिए.
“रोया तो देखना!” ज़मीन पर पड़े हुए शूरिक ने
धमकाया.
वे उठे, खुरच गई जगहों को मलते हुए. वास्का ने
जाली से देखा, सब समझ गया और बोला,
“”मज़ा चखाता हूँ तुम्हें जासूसी करने का!”
वास्का के पीछे
खिड़की में एक सफ़ेद आकृति उभरी, सुनहरेपन से चमकती हुई, और बोली,
“इधर दे सिगरेटें, ईडियट!”
सिर्योझा और शूरिक
लंगड़ाते हुए, बाग़ से होते हुए दूर जाने लगे और चारों ओर नज़र डालते हुए उन्होंने
देखा कि कैसे वास्का ने मामा को सिगरेट का पैकेट दिया, और मामा ने फ़ौरन उसके टुकड़े
टुकड़े कर दिए, उसे मरोड़ा, चूर चूर कर दिया, इसके बाद वे वास्का का कॉलर पकड़ कर उसे
घर के भीतर ले गए...
सुबह घर पर ताला
लटक रहा था. लीदा ने कहा कि उजाला होते ही सब लोग च्कालोव सामूहिक फ़ार्म पर
रिश्तेदारों के यहाँ चले गए. पूरे दिन वे नहीं आए. और दूसरी सुबह वास्का की माँ
सिसकते हुए, फिर से दरवाज़े को ताला लगाकर काम पर निकल गई: वास्का उसी रात मामा के
साथ चला गया था – हमेशा के लिए; मामा उसे अपने साथ ले गए थे, जिससे कि उसे सुधार
सकें और नाख़िमोव नेवी स्कूल में भर्ती करा दें. तो ऐसे खुली वास्का की किस्मत, इस
वजह से कि उसने माँ के पर्स में से पैसे निकाले थे और सिनेमा हॉल की शो केस का
काँच फ़ोड़ा था.
“ये सब मेरे रिश्तेदारों ने किया,” वास्का की
माँ ने पाशा बुआ से कहा. “उन्होंने कोस्त्या के सामने उसे इस तरह पेश किया कि वह
एक ख़तरनाक गुनहगार लगने लगा. मगर, क्या वह बुरा बच्चा है – वह – याद रखिए – पूरी
एक मीटर लम्बी लकड़ी काट कर जमा देता था. और मेरे साथ वॉल-पेपर चिपकाता था. और अब
मेरे बिना वो कैसे...”
वह बिसूरने लगी..
“उन्हें कोई फ़रक नहीं पड़ता, क्योंकि वह उनका
बेटा नहीं है,” वह हिचकियाँ ले रही थी, “और उसके तो, शरद ऋतु के शुरू होते ही
गर्दन पर फोड़े होने लगते हैं, मगर वहाँ इस ओर कौन ध्यान देगा...”
वह किसी भी बच्चे
को कैप का कोना पीछे किए नहीं देख सकती थी – फ़ौरन रोने लगती. और सिर्योझा और शूरिक
को उसने अपने यहाँ बुलाया, उन्हें वास्का के बारे में बताती रही; वह बचपन में कैसा
था, फ़ोटो दिखाए, जो उसे उसके कप्तान भाई ने दिए थे. इनमें समुद्र किनारे के शहरों
के दृश्य थे: केलों के बाग, पुरानी इमारतें, डेक पर खड़े नाविक, हाथी पर बैठे आदमी,
बोट, लहरों को काटती हुई छोटी नौका, काली नर्तकी – पैरों में कडे पहनी हुई, काले,
मोटे मोटे होठों वाले बच्चे – घुंघराले बालों वाले – हर चीज़ अपरिचित थी, हर चीज़ के
बारे में पूछना पड़ता था कि यह क्या है – और क़रीब क़रीब सभी तस्वीरों में समुद्र था:
असीमित, आसमान से मिलता हुआ, सजीव, सनसनाता पानी, फ़ेन का चमकता कोहरा – और यह
अपरिचित दुनिया गुनगुना रही थी, गहरे-गहरे, ललचाते हुए, जैसे गुलाबी सींप जब उसके
पास अपना कान रखते हो.
और अब वास्का की
बाग ख़ाली और ख़ामोश हो गई. वह एक तरह से सार्वजनिक हो गई : कोई भी आए और जब तक जी
चाहे खेले, कोई चिल्लाएगा नहीं, कोई भगाएगा नहीं...बाग़ का मालिक चला गया था गाती
हुई गुलाबी दुनिया में, जहाँ कभी सिर्योझा भी जाएगा.
अध्याय 12
वास्का
के मामा से पहचान होने के परिणाम
कालीनिन और
दाल्न्याया रास्तों के बीच ख़ुफ़िया संबंध बन रहे हैं. चर्चाएँ
हो रही हैं. शूरिक यहाँ-वहाँ जाता है, भागदौड़ करता है और सिर्योझा को ख़बर देता है.
ख़यालों में डूबा, अपने साँवले, माँसल पैरों से वह उतावलेपन से झपाझप चलता है, और
उसकी काली आँखें गोल गोल घूमती रहती हैं. उनका यह गुण है : जब भी शूरिक के दिमाग़
में कोई नया ख़याल आता है, वे दाएँ-बाएँ तेज़ी से घूमने लगती हैं और हर कोई समझ जाता
है कि शूरिक के दिमाग़ में नया ख़याल आया है. माँ परेशान हो जाती है, और पापा,
ड्राईवर तिमोखिन, पहले से ही शूरिक को बेल्ट का डर दिखाने लगते हैं. क्योंकि शूरिक
के नए ख़याल हमेशा ख़तरनाक होते हैं. इसीलिए माता-पिता चिंता में डूब जाते हैं, उनकी
तो यही इच्छा होती है कि उनका बेटा सही-सलामत रहे.
बेल्ट पर तो शूरिक
ने थूक दिया. बेल्ट क्या चीज़ है, जब कालीनिन रास्ते के लड़के गोदना करवाने के लिए
तैयार हैं. वे इसकी तैयारी बड़े संगठित होकर, सामूहिक रूप से कर रहे हैं. ख़ास बातें
: उन्होंने शूरिक और सिर्योझा से गोदने की सारी जानकारी ले ली है : वास्का के मामा
के शरीर पर कहाँ कौन सा गोदना है; शूरिक और सिर्योझा की सूचनाओं के आधार पर
उन्होंने चित्र बनाए, और अब वे शूरिक और सिर्योझा को अपने गुट में लेने से इनकार
कर रहे हैं, कहते हैं. “तुम जैसे लोगों को कौन लेगा.” शैतान. इस दुनिया में सच्चाई
कहाँ है?
और, किसी से शिकायत
भी नहीं कर सकते – क़सम खाई थी कि इस दुनिया में – मतलब दाल्न्याया रास्ते पर –
किसी को भी नहीं बताएँगे. दाल्न्याया रास्ते पर रहती है मशहूर चुगलख़ोर – लीदा; वह
बड़ों को नमक मिर्च लगाकर सब कुछ बता देगी – सिर्फ़ जलन के मारे, फ़ायदा तो उसका कुछ
भी नहीं है – वे हो-हल्ला मचाएँगे, स्कूल भी इसमें दख़ल देगा, शिक्षकों की कौंसिल
में और पालकों की मीटिंगों में इस पर बहस होगी, और काम की किसी चीज़ के बदले एक
लंबी चौड़ी उकताहट भरी कार्रवाई होगी.
इसी कारण से
कालीनिन रास्ता दाल्न्याया से अपने सारे प्लान्स छुपाता है. मगर शूरिक से छुपाना
कैसे मुमकिन है. फिर उसने वे चित्र भी देख लिए हैं. शानदार चित्र ड्राइंग पेपर पर
और ऑईल पेपर पर.
“उन्होंने अपने दिमाग से भी चित्र बनाए हैं,”
शूरिक ने सिर्योझा को सूचित किया. “हवाई जहाज़ का चित्र बनाया है, फ़व्वारे वाली
व्हेल मछली, नारे...तुम्हारे ऊपर कागज़ रखा जाता है, और चित्र के मुताबिक ऊपर से
पिन चुभाई जाती है. बढ़िया चित्र आना चाहिए.”
सिर्योझा का जी
घबराने लगा. पिन से!...
मगर जो शूरिक के
लिए संभव है, वह सिर्योझा भी कर सकता है.
“हाँ!” उसने बनावटी ठंडेपन से कहा – “बढ़िया ही
आएगा चित्र.”
कालीनिन वाले बच्चे
शूरिक और सिर्योझा के ऊपर न केवल व्हेल मछली, बल्कि छोटा सा नारा भी गोदने के लिए
तैयार नहीं थे. बेकार ही में शूरिक सबके दरवाज़े खटखटाता रहा, सबको यक़ीन दिलाता
रहा, उन्हें तंग करता रहा. वे जवाब देते, “बस, भाग यहाँ से. तू मज़ाक कर रहा है?
दफ़ा हो जा.”
उसे भगाने लगे.
हालात बहुत ही बिगड़ गए, जब तक कि शूरिक ने अपनी ओर आर्सेन्ती को न मिला लिया.
आर्सेन्ती को सारे
माता-पिता बहुत चाहते हैं. वह हमेशा पहला नंबर लाता है, पढ़ाकू है, साफ़-सुथरा है और
उसकी चलती भी ख़ूब है. सबसे मुख्य बात, उसके पास अच्छा बुरा सोचने की बुद्धि है.
काफ़ी मज़ाक हो जाने के बाद उसने कहा, “उन्होंने हमारी जो मदद की है, उसे भूलना नहीं
चाहिए, ऐसा मेरा ख़याल है. उन दोनों पर एक एक अक्षर गोद देते हैं. उनके नाम का पहला
अक्षर. तैयार है तू?” उसने शूरिक से पूछा.
“नहीं,” शूरिक ने जवाब दिया. “एक अक्षर हमें
मंज़ूर नहीं.”
“तो फिर दफ़ा हो जा,” पाँचवी क्लास के दादा
वालेरी ने कहा. “तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा.”
शूरिक चला गया, मगर
दूसरा कोई उपाय था ही नहीं – वह फिर से वापस आया और बोला कि ठीक है, एक अक्षर ही
कर दो : उसे ‘श’ (रूसी में इसे ш लिखते हैं) और सिर्योझा को ‘स’ (रूसी में - С ). बस एक ही शर्त पर कि वह बढ़िया निकलना
चाहिए, काम चलाऊ तरीक़े से नहीं. सब कुछ कल ही हो जाना चाहिए, वालेरी के यहाँ, उसकी
माँ दौरे पर गई थी.
नियत समय पर शूरिक
और सिर्योझा वालेरी के यहाँ आए. बाहर ड्योढ़ी में वालेरी की बहन लारीस्का बैठी थी,
और वह कैनवास पर कढ़ाई कर रही थी. उसे वहाँ इसलिए बिठाया गया था कि अगर कोई बाहर का
आदमी आए तो उससे यह कह दे कि घर में कोई नहीं है. बच्चे आँगन में स्नान-गृह के पास
इकट्ठा हो गए : सारे बच्चे, पाँचवी क्लास
के और छठी क्लास के भी, और एक लड़की, मोटे, फ़ीके चेहरे वाली, उसके चेहरे पर गंभीरता
थी, और उसका निचला होंठ मोटा और फ़ीका था; ऐसा लग रहा था कि इसी लटकते हुए होंठ के
कारण चेहरे पर गंभीर और प्रभावशाली भाव थे, और यदि लड़की उस होंठ को दबा दे तो वह
बिल्कुल गंभीर और प्रभावशाली नहीं रहेगी...लड़की – उसका नाम था कापा – कैंची से
बैंडेज के टुकड़े काट काट कर तिपाई पर रख रही थी. कापा अपने स्कूल में
स्वास्थ्य-कमिशन की मेम्बर थी. तिपाई पर उसने साफ़ कपड़ा बिछाया था.
धुएँ से काले पड़ गए
सँकरे स्नान गृह में, जिसमें छत के नीचे एक धुँधली, छोटी सी खिड़की थी, ठीक देहलीज़
के पीछे एक नीचा लकड़ी का ब्लॉक था, और बेंच पर गोल लिपटे हुए चित्र पड़े थे. अन्दर
आकर लड़के वे चित्र देखते, उनके बारे में बहस करते, मज़े से, जी भर के एक दूसरे को
गालियाँ देते, और हर लड़का अपनी पसन्द का चित्र चुनता. झगड़ा हो नहीं रहा था,
क्योंकि एक ही तस्वीर को जितने चाहें उतने बच्चे चुन सकते थे. शूरिक और सिर्योझा
दूर से ही चित्र देखकर ख़ुश हो रहे थे, वे यह तय नहीं कर पा रहे थे कि बेंच के पास
जाएँ या नहीं : लड़के इज़्ज़तदार थे, आत्मनिर्भर थे और होशियार थे.
आर्सेन्ती सीधा
स्कूल से आया था, छठे पीरियड के बाद, अपनी बैग लिए. उसने विनती की कि उसका सबसे
पहले कर दिया जाए : बहुत होम वर्क है, उसने कहा, एक निबंध लिखना है और जॉग्रफ़ी का
भी बड़ा प्रश्न है. उसकी लगन के प्रति सम्मान दिखाते हुए उसे सबसे पहले बुलाया गया.
उसने बड़े सलीक़े से अपनी बैग बेंच पर रखी, मुस्कुराते हुए कमीज़ उतारी और, कमर तक
नंगे बदन से, दरवाज़े की ओर पीठ करके ब्लॉक पर बैठ गया.
उसे बड़े बच्चों ने
घेर लिया. सिर्योझा और शूरिक को स्नान-गृह से बाहर आँगन में धकेल दिया गया;
उन्होंने कितना ही उछल उछल कर देखना चाहा, उन्हें कुछ भी नज़र नहीं आया. बातचीत
बन्द हो गई, धड़ाम् की आवाज़ और कागज़ की सरसराहट और कुछ देर के बाद वालेरी की आवाज़ :
“काप्का! लारिस्का के पास भाग, एक तौलिया देने
को बोल.”
गंभीर काप्का भागी.
उसका निचला होंठ थरथरा रहा था. वह भाग कर तौलिया लाई और सिरों के ऊपर से वालेरी की
ओर फेंक दिया.
“तौलिया किसलिए?” सिर्योझा ने पूछा, उछल कर
देखने की कोशिश करते हुए. “शूरिक! तौलिया किसलिए?”
“शायद खून बह रहा हो!” शूरिक ने बेफ़िक्री से कहा
- लड़कों के बीच में सिर घुसाने की कोशिश करते हुए , जिससे देख सके कि क्या हो रहा
है. एक लंबा लड़का अपना गंभीर चेहरा उनकी ओर करके हौले से, मगर धमकाते हुए बोला,
“ऐ, यहाँ गड़बड़ नहीं करने का!”
ख़ामोशी का जैसे अंत
ही नहीं था. अनिश्चितता अंतहीनता तक थकाती रही. सिर्योझा थक गया, बेचैन हो गया;
उसका पतंग-कीड़े पकड़ना हो चुका, और वालेरी का आँगन और लारिस्का को भी अच्छी तरह
देखना भी हो चुका...आख़िर में बातचीत शुरू हो गई, हलचल शुरू हो गई, बाज़ू में हट गए,
और आर्सेन्ती बाहर निकला – ओह! वह पहचाना नहीं जा रहा था: भयानक, गर्दन से कमर तक
पूरा बैंगनी-बैंगनी – उसका सीना कहाँ है, उसकी सफ़ेद पीठ कहाँ है – और कमर के चारों
ओर बंधे तौलिए पर खून के और स्याही के धब्बे थे! और चेहरा फक् – सफ़ेद फक्, मगर वह
मुस्कुरा रहा था, हीरो है आर्सेन्ती! दृढ़ता से कापा के पास आया, तौलिया हटाया और
बोला,
“कस के बांध बैंडेज.”
“पहले बच्चों को निपटा दें,” किसी ने कहा,
“जिससे वे हंगामा न ख़ड़ा कर दें. बच्चों को निपटा दें.”
“तुम कहाँ हो, बच्चों?” बैंगनी हाथों से
स्नान-गृह से निकलते हुए वालेरी ने पूछा. “इरादा तो नहीं बदल दिया? चलो, आ जाओ,
शाबाश!”
कैसे कहें कि – “इरादा बदल दिया”. हिम्मत कैसे होगी कहने की,
जब वह, आर्सेन्ती, खड़ा है तुम्हारे सामने, स्याही और खून में लथपथ, और मुस्कुराते
हुए तुम्हारी ओर देख रहा है?...
‘एक ही तो अक्षर है – ज़्यादा देर नहीं लगेगी!’
सिर्योझा ने सोचा.
शूरिक के पीछे पीछे
वह अब खाली हो चुके स्नान-गृह में आया. बड़े बच्चे देख रहे थे कि कैसे कापा
आर्सेन्ती को बैण्डेज बांधती है. वालेरी ब्लॉक पर बैठा और उसने पूछा,
“किसको कौन सा
अक्षर?”
“मुझे ‘श’, (ш)”,” शूरिक ने कहा, “और क्या तौलिए की ज़रूरत
है?”
“तुम्हारा बदन वैसे भी गन्दा होने वाला नहीं
है,” वालेरी ने कहा, “हाथ पर गोदूँगा.”
उसने शूरिक का हाथ
अपने हाथ में लिया और कोहनी से नीचे पिन चुभाई. शूरिक उछला और चिल्लाया...”ओय!’
“ओय, करना है तो घर भाग जा,” वालेरी ने कहा और
एक बार फिर पिन चुभाई. “तू कल्पना कर,” उसने सलाह दी, “कि मैं तेरे हाथ में चुभा
हुआ काँटा निकाल रहा हूँ. तब दर्द नहीं होगा.”
शूरिक ने अपने आप
को संभाला और एक भी बार नहीं चीखा, सिर्फ एक पैर से दूसरे पैर पर उछलता रहा और हाथ पर फूँक मारता रहा,
जिस पर लाल लाल बिंदुओं जैसी एक के बाद एक खून की बूँदें निकल रही थीं. वालेरी ने
इन बिंदुओं के बीच की चमड़ी को पिन से खरोंचा – शूरिक कूदा, एड़ियाँ ज़मीन पर मारीं,
पूरी ताक़त से हाथ पर फूँक मारी, अब खून की धार बह निकली.
’अक्षर ‘श’ (ш) लंबा है’, भय से फक् पड़ गए , बड़ी बड़ी आँखें फाड़े
एकटक खून की ओर देखते हुए बेचारे सिर्योझा ने सोचा – ‘पूरी तीन खड़ी डंडियाँ और
चौथी डंडी नीचे...बेचारा शूरिक. ‘स’ (С) उसके मुक़ाबले में छोटा है. बहादुर है शूरिक,
चिल्लाता नहीं है. मैं भी नहीं चिल्लाऊँगा.
ओय – ओय – ओय, भागना संभव नहीं है; हँसेंगे तुम पर, शूरिक कहेगा कि मैं डरपोक हूँ...’
वालेरी ने बेंच से
स्याही की बोतल उठाई और ब्रश से शूरिक पर पोत दी, ठीक जहाँ खून था वहीं.
“हो गया!” उसने कहा, “अगला बच्चा!”
सिर्योझा ने क़दम
आगे बढ़ाए और हाथ बढ़ा दिया....
...यह हुआ था
गर्मियों के अंत में, स्कूल में पढ़ाई अभी शुरू ही हुई थी, दिन गर्म थे, सुनहरे-
सपनों भरे – मगर अब है शरद ऋतु; नकचढ़ा आसमान खिड़कियों में; पाशा बुआ ने खिड़कियों
की चौखटों पर सफ़ेद कागज़ की पट्टियाँ चिपका दीं, दोनों चौखटों के बीच रूई रखी और
नमक से भरे छोटे छोटे ग्लास रख दिए...
सिर्योझा बिस्तर पर
लेटा है. बिस्तर के पास दो कुर्सियाँ खिसका दी गई हैं : एक पर खिलौनों का ढेर पड़ा
है, और दूसरी पर सिर्योझा खेलता है. कुर्सी पर खेलना बुरा लगता है. टैंक भी नहीं
घुमाया जा सकता, और अगर, मान लो, दुश्मन को खदेड़ना हो, तो उसके लिए जगह ही नहीं है;
कुर्सी की पीठ तक जाते हो, और बस, ये कोई लड़ाई है?
बीमारी तब शुरू हुई
जब सिर्योझा वालेरी के स्नान-गृह से बाहर निकला, अपने दाहिने हाथ में बायाँ हाथ
उठाए, जो सूज गया था, जल रहा था, स्याही से लथपथ था. वह स्नान-गृह से निकला –
रोशनी के कारण आँखों के सामने काले काले धब्बे घूमने लगे, किसी की सिगरेट की बू
भीतर गई – उसको उल्टी हो गई...वह घास पर लेट गया, बैण्डेज में बंधा हाथ बिल्कुल जल
गया था, उसमें खुजली हो रही थी. शूरिक और एक और लड़का उसे घर ले गए. पाशा बुआ को
कुछ भी पता नहीं चला, क्योंकि उसने लंबी आस्तीनों वाली कमीज़ पहनी थी. वह चुपचाप घर
के अन्दर आया और पलंग पर लेट गया.
मगर जल्दी ही
उल्टियाँ शुरू हो गईं, बुख़ार आ गया, पाशा बुआ सतर्क हो गई और उसने मम्मा को स्कूल
में फोन कर दिया, मम्मा भागकर आई, डॉक्टर आया, सिर्योझा के कपड़े उतारे गए, बैण्डेज
खोला गया, और सब लोग सकते में आ गए; वे पूछने लगे, मगर वह जवाब नहीं दे रहा था –
उसे सपने आने लगे, घिनौने, मितली लाने वाले: कोई एक हट्टाकट्टा आदमी, लाल जैकेट
में, नंगे बैंगनी हाथों वाला – उससे स्याही की बू आ रही थी – लकड़ी का ब्लॉक, उस पर
बैठा एक कसाई माँस काट रहा है – खून से लथपथ, गालियाँ देते लड़के...वह सपने में
दिखाई दे रहे दृश्य का वर्णन कर रहा था, मगर उसे इस बात का गुमान ही नहीं था कि वह
क्या कह रहा है. इस तरह से बड़ों को सारी बात पता चल गई. बड़ी देर तक वे ये समझ नहीं
पाए कि वह बुख़ार में छल्ले जैसे ब्रेड़-रोल के बारे में क्या बड़बड़ा रहा है, आधे
छल्ले जैसा ब्रेड़-रोल; जब हाथ की ज़ख़्म ठीक हो गई और उसे धोया गया, तो उन्हें समझ
में आया कि हाथ पर हमेशा के लिए भूरा-नीला आधा छल्ला छप गया है, अक्षर ‘स’ (С).
वे सिर्योझा के साथ नर्मी से और प्यार से पेश आते थे – और वे उसे वालेरी जितनी
क्रूरता से ही सताते थे. ख़ास तौर से डॉक्टर : बड़े अमानवीय तरीके से वे सिर्योझा को
पेन्सिलिन पिलाते थे, और सिर्योझा, जो दर्द के कारण नहीं रोता था, अपमान से
हिचकियाँ लेकर रोने लगता, अपमान के सामने असहायता के कारण, इस कारण से कि उसकी शालीनता
का अपमान हुआ था...डॉक्टर के पास समय कम था, वह सफ़ेद गाऊन में एक ख़तरनाक मौसी,
नर्स, को भेज देते थे, जो एक ख़ास मशीन से सिर्योझा की उँगलियाँ काटती और उन्हें
दबाकर उनमें से खून निकालती. इन यातनाओं के बाद डॉक्टर मज़ाक करते और सिर्योझा के
सिर को सहलाते - ये तो सीधा सीधा अपमान ही था.
...कुर्सी पर खेलते खेलते थक कर, सिर्योझा लेट जाता है और अपनी कठिन परिस्थिति
के बारे में सोचता है. अपने इस दुर्भाग्य का मूल कारण ढूँढ़ने की कोशिश करता है.
‘मैं बीमार नहीं पड़ता,’ वह सोचता है,
‘अगर मैंने ये गोदना न करवाया होता. और मैंने गोदना न करवाया होता, अगर मैं वास्का
के मामा से न मिला होता, अगर वो वास्का के यहाँ न आते. हाँ, अगर वे यहाँ आने का
इरादा न करते तो कुछ भी नहीं होता, मैं तन्दुरुस्त होता.’
मगर वास्का के मामा के लिए उसके मन में गुस्सा नहीं है. बस, ज़ाहिर है कि
दुनिया में एक चीज़ दूसरी चीज़ से जुड़ी होती है; कल्पना भी नहीं कर सकते कि कब और
कहाँ से ख़तरा आने वाला है. वे उसका दिल बहलाने की कोशिश करते हैं. मम्मा ने उसे
लाल मछलियों वाला एक्वेरियम भेंट में दिया. एक्वेरियम में पानी के पौधे लगते हैं.
मछलियों को एक डिब्बे से पाउडर निकाल कर खिलाया जाता है.
“उसे प्राणियों से इतना प्यार है,” मम्मा ने कहा, “इससे उसका दिल बहलेगा.”
सही है, उसे प्राणी पसन्द हैं. वह ज़ायका बिल्ली से प्यार करता था, अपने पालतू
छोटे कौए गाल्या-गाल्या से प्यार करता था. मगर मछलियाँ – वे तो प्राणी नहीं
हैं.
ज़ायका रोएँदार और
गर्माहट भरी है, उसके साथ खेल सकते थे, जब तक कि वह इतनी बूढ़ी और उदास नहीं हुई
थी. गाल्या-गाल्या मज़ेदार और ख़ुशगवार था, वह कमरों में उड़ता, चम्मच चुराता और
सिर्योझा के पुकारने पर जवाब देता था. मगर मछलियों से कैसी ख़ुशी – डिब्बे में
तैरती रहती हैं और कुछ भी नहीं कर सकतीं, सिर्फ़ पूँछ हिलाती हैं...मम्मा समझती ही
नहीं है.
सिर्योझा को चाहिए
बच्चे, अच्छा खेल, अच्छी बातचीत. सबसे ज़्यादा उसे शूरिक चाहिए. जब खिड़कियों की
चौखट पर कागज़ नहीं चिपकाया गया था, और खिड़कियाँ खुली थीं, शूरिक उसकी खिड़की के
नीचे आ जाता था और उसे बुलाता था.
“सेर्गेइ! कैसा है तू?”
“यहाँ आओ!” उछल कर घुटनों पर बैठते हुए सिर्योझा
चिल्लाया.
“मुझे तुम्हारे पास नहीं आने देते,” शूरिक ने
कहा (खिड़की की देहलीज़ के नीचे उसका सिर दिखाई दे रहा था). “अच्छा हो जा, और ख़ुद ही
बाहर आ.”
“तू क्या कर रहा है?” सिर्योझा ने परेशानी से
पूछा.
“पापा ने मेरे लिए स्कूल बैग ख़रीदी है,” शूरिक
ने कहा. “स्कूल जाया करूँगा. बर्थ-सर्टिफिकेट भी दे दिया. और आर्सेन्ती भी बीमार
है. और बाकी कोई भी बीमार नहीं पड़ा. और मैं भी बीमार नहीं हूँ. और वालेरी को दूसरे
स्कूल में भेज दिया गया है, अब उसे बहुत दूर चलना पड़ता है.”
अचानक कितनी ख़बरें!
“टाटा! जल्दी से बाहर आ!” अब शूरिक की आवाज़ दूर
से आ रही थी. शायद पाशा बुआ आँगन में गई है...
आह, काश, सिर्योझा
भी वहाँ जा सकता! शूरिक के पीछे! रास्ते पर! बीमार पड़ने तक सब कुछ कितना बढ़िया था!
उसके पास क्या था और उसने क्या खो दिया था!
अध्याय 13
समझ
से परे
आख़िर सिर्योझा को
बिस्तर से उठने की इजाज़त मिल गई, और फिर घूमने फिरने की भी. मगर घर से दूर जाने की
और पड़ोसियों के घर जाने की इजाज़त नहीं थी : डरते हैं कि कहीं फिर उसके साथ कुछ और
न हो जाए.
और सिर्योझा को
सिर्फ़ दोपहर के खाने तक ही बाहर छोड़ते हैं, जब उसके दोस्त स्कूल में होते हैं.
शूरिक भी स्कूल में होता है, हाँलाकि अभी वह सात साल का नहीं हुआ है : मात-पिता ने
उसे स्कूल में डाल दिया गोदने की घटना के बाद, जिससे कि वह ज़्यादा देर तक निगरानी
में रहे और अच्छे कामों में समय बिताए...और छोटे बच्चों के साथ सिर्योझा को अच्छा
नहीं लगता.
एक बार वह बाहर
आँगन में आया और उसने देखा कि रोड के पास पड़े लकड़ी के ढेर पर कोई अनजान आदमी बैठा
है लंबे कानों वाली, अजीब सी टोपी में. उस चाचा का चेहरा ब्रश जैसा था, कपड़े
फटे-पुराने थे. वह बैठे हुए बहुत ही छोटी बीड़ी पी रहा था, इतनी छोटी कि वह पूरी की
पूरी बस उसकी दो काली-पीली उँगलियों में समा गई थी; धुआँ सीधे उँगलियों से निकल
रहा था, ताज्जुब की बात यह थी कि चाचा की उँगलियाँ जल नहीं रही थीं...दूसरा हाथ
गन्दे चीथड़े में बंधा था. जूतों पर लेस के बदले रस्सियाँ थीं. सिर्योझा ने सब कुछ
देखा और पूछा:
“आप क्या करस्तिल्योव के पास आए हैं?”
“कौन करस्तिल्योव ?” चाचा ने पूछा. “मैं करस्तिल्योव
को नहीं जानता.”
“मतलब, आप लुक्यानिच के पास आए हैं?”
“मैं लुक्यनिच को भी नहीं जानता.”
“और उनमें से कोई भी घर में नहीं है,” सिर्योझा
ने कहा. “सिर्फ पाशा बुआ और मैं ही घर पर हैं. और, आपको दर्द नहीं होता?”
“दर्द क्यों होने लगा?”
“आप अपनी उँगलियाँ जला रहे हो.”
“आ!”
चाचा ने बीड़ी का
आख़िरी कश लिया, छोटे से टुकड़े को ज़मीन पर फेंका और पैर से कुचल दिया.
“और क्या दूसरा हाथ पहले ही जला लिया है?”
सिर्योझा ने पूछा.
उसके सवाल का जवाब
दिए बिना चाचा ने उसकी ओर गंभीर, परेशान नज़र से देखा. ‘क्या देख रहा है ऐसे?’
सिर्योझा ने सोचा. चाचा ने पूछा, “और, तुम लोग रहते कैसे हो? बढ़िया?”
“धन्यवाद,” सिर्योझा ने कहा, “बढ़िया.”
“बहुत दौलत है?”
“कैसी दौलत?”
“अच्छा, क्या क्या है तुम्हारे पास?”
“मेरे पास सैकल है,” सिर्योझा ने कहा. “और
खिलौने हैं. हर तरह के : चाभी वाले हैं, और बिना चाभी वाले भी. और ल्योन्या के पास
थोड़े से ही हैं, सिर्फ झुनझुने.”
“और कटपीस हैं?” चाचा ने पूछा. और यह सोचकर कि
शायद सिर्योझा को यह शब्द समझ में नहीं आया होगा, उसने समझाया, “कपड़ा – समझ रहे
हो? सूट के लिए, ड्रेस के लिए.”
“हमारे पास नहीं हैं कटपीस,” सिर्योझा ने कह,
“वास्का की माँ के पास हैं.”
“और वो कहाँ रहती है? वास्का की माँ?”
मालूम नहीं यह
बातचीत कहाँ पहुँचती, मगर तभी फ़ाटक की कुंडी बजी और लुक्यानिच आँगन में आया. उसने
पूछा, “कौन हो तुम? क्या चाहिए?”
चाचा लकड़ियों के
ढेर से उठा और बहुत विनम्र और दयनीय हो गया.
“काम ढूँढ़ रहा हूँ, मालिक,” उसने जवाब दिया.
“तो ऐसे घर घर क्यों घूम रहे हो?” लुक्यानिच ने
पूछा. “काम कहाँ करते हो?”
“इस समय मेरे पास कोई काम नहीं है,” चाचा ने
कहा.
“मगर, करते कहाँ थे?”
“था – और अब नहीं है. बहुत पहले था.”
“क्या जेल से आए हो?”
“एक महीना पहले छूटा हूँ.”
“किसलिए गए थे?”
चाचा ने एक पैर से दूसरे पैर पर शरीर का भार
रखते हुए जवाब दिया, “व्यक्तिगत संपत्ति का दुरुपयोग करने के जुर्म में. बिना किसी
कारण के ही सज़ा सुना दी. कानून का खून ही था वो.”
“मगर तुम घर क्यों नहीं गए, इधर उधर क्यों भटक
रहे हो?”
“मैं गया था,” चाचा ने कहा, “मगर बीबी ने मुझे
घुसने नहीं दिया. उसने दूसरा कोई ढूँढ़ लिया : दुकान का असिस्टेंट! और फिर वहाँ
मेरा नाम भी नहीं दर्ज कर रहे हैं...अब मैं अपनी माँ के पास जा रहा हूँ. चीता में
मेरी माँ रहती है.”
सिर्योझा, मुँह
थोड़ा सा खोले, सुन रहा था. चाचा जेल में था!...लोहे के सींकचों वाली जेल में,
दाढ़ीवाले पहरेदारों के साथ, जो ऊपर से नीचे तक हथियार लिए रहते हैं, लंबे लंबे
डंडे और तलवारें, जैसा कि किताबों में लिखा होता है – और कहीं किसी चीता में उसकी
माँ उसका इंतज़ार कर रही है, और, शायद, रोती है, बेचारी...उसे बड़ी ख़ुशी होगी, जब ये
उसके पास पहुँचेगा. वह इसके लिए कोट और सूट सिएगी. और जूतों के लिए लेस भी
ख़रीदेगी...
“चीता में...बिल्कुल उस छोर पर...” लुक्यानिच ने
कहा. “तो फिर क्या? कुछ कमाएगा –वमाएगा कि फिर से वही, व्यक्तिगत संपत्ति का
दुरुपयोग?...”
चाचा ने भौंहें
चढ़ाईं और बोला,
“क्या आपके लिए लकड़ियाँ काट दूँ?”
“ठीक है, काट दे,” लुक्यानिच ने कहा और वह शेड
से आरी लाया.
आवाज़ें सुनकर पाशा
बुआ बाहर आई और उसने ड्योढ़ी से बातचीत सुनी. न जाने क्यों उसने मुर्गियों को शेड
में खदेड़ दिया, हालाँकि उनके सोने में अभी बहुत वक़्त था, और ताला लगाकर उन्हें
बन्द कर दिया. और चाभी अपनी जेब में रख ली. और हौले से सिर्योझा से बोली,
“सिर्योझा, जब तक तू यहाँ घूम रहा है, ध्यान
रखना कि चाचा आरी लेकर न चला जाए.”
सिर्योझा चाचा के
चारों ओर घूमता रहा और बड़ी दिलचस्पी से, शक से, सहानुभूति से और कुछ डर से उसे
देखता रहा. उसके असाधारण और रहस्यमय भाग्य के प्रति आदर के कारण उससे बातें करने
का निश्चय वह नहीं कर पाया, और चाचा भी चुप रहा. वह दिल लगाकर लकड़ियाँ काट रहा था
और केवल कभी कभी कुछ देर के लिए बैठ जाता था, बीडी बनाकर पीने के लिए.
सिर्योझा को खाना
खाने के लिए बुलाया गया. मम्मा और करस्तिल्योव घर में नहीं थे, तीनों ने ही खाना खाया.
सब्ज़ियों का सूप खाने के बाद लुक्यानिच ने पाशा बुआ से कहा, “उस चोर के बच्चे को
मेरे पुराने फ़ेल्ट-बूट दे देना.”
“अभी तो तुम ही उन्हें पहन सकते हो,” पाशा बुआ
ने कहा. “उसके लेस वाले जूते अच्छे ही हैं.”
“चीता तक उन लेस वाले जूतों में कैसे जाएगा,”
लुक्यानिच ने कहा.
“मैं उसे खाना खिला दूँगी,” पाशा बुआ ने कहा,
“मेरे पास कल का काफ़ी सूप बचा है.”
खाना खाने के बाद
लुक्यानिच आराम करने के लिए लेटा, और पाशा बुआ ने मेज़पोश निकाल कर तह करके शेल्फ़
में रख दिया.
“तुमने मेज़पोश क्यों निकाला?” सिर्योझा ने पूछा.
“बिना मेज़पोश के भी ठीक ठाक ही है,” पाशा बुआ ने
कहा, “ वह कितना गन्दा है!”
उसने सूप गरम किया,
ब्रेड के स्लाईस काटे और दुखी आवाज़ में उसने चाचा को बुलाया.
“अन्दर आईये, खा लीजिए.”
चाचा अन्दर आया और
बड़ी देर तक कपड़े से पैर साफ़ करता रहा. फिर उसने हाथ धोए, और पाशा बुआ ने डोलची से
उसके हाथ पर पानी डाला. रैक में साबुन के दो टुकड़े थे : एक गुलाबी, दूसरा सीधा
सादा भूरा; चाचा ने भूरा वाला लिया – या, शायद उसे मालूम नहीं था कि नहाते तो
गुलाबी साबुन से हैं, या, फिर गुलाबी साबुन को इस्तेमाल करने का उसे हक ही नहीं
था, जैसे कि मेज़पोश का और आज के बने सूप का. और वैसे भी वह सकुचा रहा था और बड़ी
सावधानी से, अविश्वास से किचन में आया जैसे उसे डर हो कि कहीं फ़र्श न टूट जाए.
पाशा बुआ बड़ी मुस्तैदी से उस पर नज़र रखे हुए थी. मेज़ पर बैठते हुए चाचा ने सलीब का
निशान बनाया. सिर्योझा ने देखा कि पाशा बुआ को यह अच्छा लगा. उसने प्लेट पूरी भर
दी और प्यार से बोली, “ “खाईये. भरपेट खाईये.”
चाचा ने सूप खाया
और ब्रेड के तीन टुकड़े चुपचाप और एकदम खा गया, अपने जबड़े जल्दी जल्दी चलाते हुए और
नाक से ज़ोर ज़ोर से साँस लेते हुए. पाशा बुआ ने उसे और सूप दिया और वोद्का का छोटा
सा गिलास भी दिया.
“अब ये पी सकते हो,” उसने कहा, “मगर खाली पेट के
लिए ये अच्छा नहीं है.”
चाचा ने गिलास
उठाया और कहा, “आपकी सेहत के लिए, बुआ. भगवान आपका भला करे.”
उसने सिर पीछे
किया, मुँह खोला और ग्लास में रखी पूरी की पूरी वोद्का एक पल में अन्दर डाल दी.
सिर्योझा ने देखा – खाली ग्लास मेज़ पर रखा है.
‘शाबाश!’ सिर्योझा ने सोचा.
अब चाचा पहले जैसा
गपागप नहीं खा रहा था और बातें कर रहा था. उसने बताया कि कैसे वह अपनी पत्नी के
पास गया जिसने उसे घर में घुसने नहीं दिया.
“और कुछ दिया भी नहीं,” उसने कहा. “हमारे पास
काफ़ी सामान था : सिलाई-मशीन, ग्रामोफ़ोन, बर्तन..., कुछ भी नहीं दिया. “निकल जाओ,”
कहा, “चोर कहीं के, जहाँ से आए हो, वहीं वापस जाओ, तुमने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर
दी.” मैंने कहा, “कम से कम ग्रामोफ़ोन तो दो, हम दोनों ने मिलकर ख़रीदा था.” मगर वह
उसे देना नहीं चाह रही थी. मेरे सूट से अपने लिए ड्रेस बना ली. और मेरा ओवरकोट
पुरानी चीज़ों की दुकान में बेच दिया.”
“और पहले कैसे रहते थे?” पाशा बुआ ने पूछा.
“रहते थे – अच्छी तरह रहते थे, उससे बढ़िया हो ही
नहीं सकता था,” चाचा ने जवाब दिया. “पागल की तरह प्यार करती थी मुझसे. मगर अब उसके
पास दुकान का असिस्टेंट है. मैंने देखा उसे: कुछ भी ख़ास नहीं है उसमें. कोई
चेहरा-मोहरा है ही नहीं. क्या देख कर वह रीझ गई! सिर्फ़ इस बात पर कि वह दुकान का
असिस्टेंट है. ज़ाहिर है, यही बात है.”
उसने अपनी माँ के
बारे में भी बताया, कितनी पेन्शन मिलती है उसे और कैसे उसने उसे एक पार्सल भेजा
था. पाशा बुआ बिल्कुल दयालु हो गई : उसने चाचा को उबला हुआ माँस दिया, और चाय दी
और बीड़ी पीने की इजाज़त भी दी.
“बेशक,” चाचा ने कहा, “अगर मैं माँ के पास कम से
कम ग्रामोफ़ोन लेकर जाता तो बेहतर होता.”
‘ बेशक, बेहतर होता,’ सिर्योझा ने सोचा. ‘वे
दोनों रेकॉर्ड्स लगाया करते.’
“हो सकता है, कोई काम भी मिल जाए, तो फिर ठीक
रहेगा.” पाशा बुआ ने कहा.
“हम जैसों को काम पर रखना लोगों को पसन्द नहीं
आता,” चाचा ने कहा और पाशा बुआ ने गहरी साँस लेकर सिर हिलाया, जैसे उसे चाचा से
सहानुभूति हो, और उन लोगों से भी जो उसे काम पर रखना नहीं चाहते.
“हाँ,” चाचा ने कहा, कुछ देर चुप रहने के बाद,
“मैं शायद वैसा, दुकान का असिस्टेंट नहीं बनता – मगर और कुछ भी बन सकता था; मगर
मैंने यूँ ही अपना समय बेकार गँवाया.”
“ और आपने क्यों
उसे बेकार गँवाया?” पाशा बुआ ने सादगी से कहा, “आप उसे बेकार न गँवाते तो बेहतर
होता.”
“अब कहने से क्या फ़ायदा,” चाचा ने कहा, “सब कुछ
हो जाने के बाद. अब किसी से कुछ कहने में कोई मतलब ही नहीं है. अच्छा, धन्यवाद
आपको, बुआ. जाऊँ, लकड़ियाँ काट दूँ.”
वह आँगन में गया.
सिर्योझा को पाशा बुआ ने अब बाहर नहीं जाने दिया, क्योंकि हल्की हल्की बारिश होने
लगी थी.
“वो ऐसा क्यों है?” सिर्योझा ने पूछा, “ये
चाचा.”
“जेल में था,” पाशा बुआ ने कहा, “तूने तो सुना
ही था.”
“मगर वह जेल गया ही क्यों?”
“बुरे काम करता था, इसीलिए गया. अगर अच्छे काम
करता – तो उसे बन्द नहीं करते.”
लुक्यानिच ने खाना
खाने के बाद आराम किया और वापस अपने ऑफ़िस जाने लगा. सिर्योझा ने उससे पूछा, “अगर
बुरे काम करते हैं, तो क्या जेल भेज देते हैं?”
“देखो, ऐसा है,” लुक्यानिच ने कहा, “उसने औरों
की चीज़ें चुराईं. मैंने, मिसाल के तौर पर, काम किया, पैसे कमाए, और उसने आकर चुरा
लिए : क्या ये अच्छी बात है?”
“नहीं.”
“ज़ाहिर है – ये बुरा काम है.”
“वो बुरा है?”
“ज़ाहिर है – बुरा है.”
“तो फिर तुमने उसे अपने बूट देने को क्यों कहा?”
“मुझे उस पर दया आ गई.”
“जो बुरे होते हैं – उन पर तुम्हें दया आती है?”
“देखो, बात ये है कि,” लुक्यानिच ने कहा, “मुझे
उस पर दया इसलिए नहीं आई, कि वह बुरा है, बल्कि इसलिए आई, कि वह क़रीब-क़रीब नंगे
पैर था. और बस ....अच्छा नहीं लगता, जब कोई बुरी हालत में होता है...हाँ, मगर आम
तौर से...मैं उसे बड़ी ख़ुशी से, ज़रूर अपने जूते दे देता, अगर वह अच्छा इन्सान
होता...मैं चला ऑफ़िस!” लुक्यानिच ने कहा और भाग गया, जल्दी जल्दी .
‘अजीब है,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘जो वह कह रहा है
उसमें से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है.’
उसने खिड़की से
हल्की भूरी बारिश की ओर देखा और लुक्यानिच के पहेली बुझाने वाले शब्दों को सुलझाने
की कोशिश करने लगा...लंबे कानों वाली टोपी पहने चाचा सड़क से गुज़रा, बगल में जूते
दबाए, एक दूसरे पर रखे हुए, इस तरह कि उनकी एड़ियाँ दोनों ओर से बाहर आ रही थीं.
मम्मा आई और लाल कंबल में लिपटे ल्योन्या को शिशु-गृह से लाई...
“मम्मा!” सिर्योझा ने कहा. “तुमने बताया था, याद
है, कि एक लड़के ने कॉपी चुराई थी. क्या उसे जेल भेज दिया गया था?”
“क्या, तू भी!” मम्मा ने कहा, “बेशक, नहीं
भेजा.”
“क्यों?”
“वह छोटा था. उसकी उम्र आठ साल थी.”
“छोटे बच्चों को माफ़ है?”
“क्या माफ़ है?”
“चोरी करना.”
“नहीं, छोटों को भी चोरी नहीं करना चाहिए,”
मम्मा ने कहा, “मगर मैंने उसे समझाया, और अब वह कभी कुछ नहीं चुराता. मगर तुम यह
किसलिए पूछ रहे हो?”
सिर्योझा ने जेल
वाले चाचा के बारे में बताया.
“अफ़सोस की बात है,” मम्मा ने कहा, “कि कभी कभी
ऐसे लोग होते हैं. हम इस बारे में बात करेंगे, जब तुम बड़े हो जाओगे. प्लीज़, पाशा
बुआ से रफ़ू करने की पट्टी लाकर मुझे दो.”
सिर्योझ ने पट्टी
लाकर दी और पूछा,
“मगर उसने चोरी क्यों की?”
“काम नहीं करना चाहता था, इसीलिए चोरी की.”
“और उसे मालूम था कि उसे जेल भेज देंगे?”
“बेशक, मालूम था.”
“उसे, क्या, ज़रा भी डर नहीं लगा? मम्मा! क्या वह
डरावनी नहीं होती – जेल?”
“ओह, बस हो गय!” मम्मा को गुस्सा आ गया. “मैंने कह दिया कि यह सब सोचने के लिए तुम अभी
बहुत छोटे हो! किसी और चीज़ के बारे में सोचो! मैं ऐसी बातें सुनना भी नहीं चाहती!”
सिर्योझा ने उसकी
चढ़ी हुई भौंहों की तरफ़ देखा और पूछना बन्द कर दिया. वह किचन में गया, डोलची से
बाल्टी में से पानी निकाला, उसे ग्लास में डाला और एकदम, एक घूँट में पीने की
कोशिश की; मगर उसने सिर को चाहे कितना ही पीछे करने की कोशिश की और कितना ही चौड़ा
मुँह क्यों न खोला – यह हुआ ही नहीं, बस वह पानी से पूरी तरह भीग ज़रूर गया. पीछे,
कॉलर के पीछे भी पानी गिरकर पीठ से बहने लगा. सिर्योझा ने यह बात छुपा ली कि उसकी
कमीज़ गीली हि, वर्ना तो वे हो-हल्ला मचाने लगते और उसके कपड़े बदलने और डाँटने
लगते. और जब तक सिर्योझा के सोने का वक़्त हुआ, कमीज़ सूख गई थी.
...बड़े लोगों ने सोचा कि वह सो रहा है और वे
डाईनिंग रूम में ज़ोर से बातचीत करने लगे.
“असल में उसे क्या चाहिए,” करस्तिल्योव ने कहा, “उसे सिर्फ़ ‘हाँ’ में या ‘ना’ में जवाब
चहिए. और अगर इसके बीच में कुछ कहा जाए तो उसे समझ में नहीं आता.”
“मैं तो भाग ही गया,” लुक्यानिच ने कहा, “जवाब
नहीं दे सका.”
“हर उम्र की अपनी अपनी कठिनाईयाँ होती हैं,”
मम्मा ने कहा, “और बच्चे के हर सवाल का जवाब देना ज़रूरी भी नहीं है. उसके साथ उस
चीज़ के बारे में बहस क्यों की जाए, जो उसकी समझ से परे है? इससे क्या हासिल होगा?
सिर्फ़ उसकी चेतना धुंधला जाएगी और ऐसे विचारों को जन्म देगी जिनके लिए अभी वह
बिल्कुल तैयार नहीं है. उसके लिए सिर्फ़ इतना जानना काफ़ी है कि इस आदमी ने अपराध
किय था और उसे सज़ा मिली. मैं आपसे विनती करती हूँ – प्लीज़, ऐसे विषय पर उसके साथ
बातें न करें!”
“क्या हम बात करते हैं?” लुक्यानिच ने अपना पक्ष
रखते हुए कहा, “वो ही बातचीत करता है!”
“करस्तिल्योव !” अंधेरे कमरे से सिर्योझा ने
पुकारा.
वे सब एकदम चुप हो
गए.
“हाँ?” करस्तिल्योव ने अन्दर आते हुए कहा.
“दुकान का असिस्टेंट कौन होता है?”
“तू S S S! - ” करस्तिल्योव ने कहा. “तू सो क्यों नहीं रहा है? फ़ौरन सो जा!”
मगर उस आधे अंधेरे में सिर्योझा की पूरी खुली, चमकती आँखें उम्मीद से उसकी ओर देख
रही थीं; और जल्दी जल्दी फुसफुसाते हुए (जिससे कि मम्मा सुन न ले और गुस्सा न करने
लगे) करस्तिल्योव ने उसके सवाल का जवाब
दिया...
अध्याय 14
बेचैनी
फिर से बीमारी! इस बार तो बिना किसी कारण के टॉन्सिल्स हो गए. फिर डॉक्टर ने कहा, “छोटी
छोटी गिल्टियाँ,” और उसे सताने के नए तरीके ढूँढ़ निकाले – कॉडलिवर ऑईल और
कम्प्रेस. और बुखार नापने के लिए भी कहा.
कम्प्रेस में क्या
करते हैं : बदबूदार काला मरहम एक कपड़े के टुकड़े पर लगाते हैं और तुम्हारी गर्दन पर
रखते हैं. ऊपर से एक कड़ा, चुभने वाला कागज़ रखते हैं. ऊपर से रूई. उसके ऊपर से
बैण्डेज बाँधते हैं, बिल्कुल कानों तक. जिससे सिर ऐसा हो जाता है जैसे लकड़ी के
बोर्ड पर ठुकी हुई कील : घुमा ही नहीं सकते. बस उसी तरह रहो.
ये तो भला हो उनका
कि लेटे रहने की ज़बर्दस्ती नहीं करते. और जब सिर्योझा को बुखार नहीं होता, और बाहर
बारिश नहीं हो रही होती, तो वह बाहर घूमने भी जा सकता है. मगर ऐसे संयोग कभी कभार
ही होते हैं. क़रीब क़रीब हर रोज़ या तो बारिश होती है, या फिर बुखार रहता है.
रेडियो चलता रहता
है; मगर उस पर जो कुछ भी बोला जा रहा है या बजाया जा रहा है, वह सब सिर्योझा के
लिए दिलचस्प नहीं है.
और बड़े लोग तो बहुत
आलसी हैं : जैसे ही कहानी पढ़ने के लिए या सुनाने के लिए कहो, वे माफ़ी मांग लेते
हैं ये कहकर कि वे काम कर रहे हैं.
पाशा बुआ खाना
पकाती रहती है; उसके हाथ, सचमुच में काम में लगे होते हैं, मगर मुँह तो खाली रहता
है : एकाध कहानी ही सुना देती. या फिर मम्मा : जब वह स्कूल में होती है, या
ल्योन्या के लंगोट बदल रही होती है, या कॉपियाँ जाँच रही होती है, तो बात और है;
मगर जब वह आईने के सामने खड़ी रहती है और अपनी चोटियाँ कभी ऐसे तो कभी वैसे बनाती
है, और मुस्कुराती भी रहती है – उस समय वह क्या काम कर रही होती है?
“मुझे पढ़ कर सुनाओ,” सिर्योझा विनती करता है.
“रुको, सिर्योझेन्का,” वह जवाब देती है. “मैं
काम में हूँ.”
“और तुमने उन्हें क्यों खोल दिया?” चोटियों के
बारे में सिर्योझा पूछता है.
“दूसरी तरह से बाल बनाना चाहती हूँ.”
“क्यों?”
“मुझे करना है.”
“तुम्हें क्यों करना है?”
“यूँ ही...”
“और हँस क्यों रही हो तुम?”
“यूँ ही...”
“यूँ ही क्यों?”
“ओह, सिर्योझेन्का, तू मेरा दिमाग चाट रहा है.”
सिर्योझा सोचने लगा
: मैं उसका दिमाग कैसे चाट रहा हूँ? और कुछ देर सोचने के बाद कहता है:
“फिर भी तुम मुझे थोड़ा सा पढ़ कर सुनाओ.”
“शाम को आऊँगी,” मम्मा कहती है, “तब पढूँगी.”
मगर शाम को, लौटने
के बाद, वह ल्योन्या को खिलाएगी, उसके हाथ-मुँह धुलाएगी, करस्तिल्योव से बातें करेगी और अपनी कॉपियाँ जाँचेगी. और
पढ़ने में फिर से टाल मटोल करेगी,
मगर देखो, पाशा बुआ
ने अपना काम पूरा कर लिया है, और वह आराम करने बैठी है, अपने कमरे में दीवान पर.
हाथ घुटनों पर रखे हैं, ख़ामोश बैठी है, घर में कोई भी नहीं है, तभी सिर्योझा उसे
पकड़ लेता है.
“अब तुम मुझे कहानी सुनाओगी,” रेडियो बन्द करके
उसके पास बैठते हुए वह कहता है.
“हे भगवान!” वह थकी हुई आवाज़ में कहती है,
“कहानी सुनाऊँ तुझे. तुझे तो सारी की सारी मालूम हैं.”
“तो क्या हुआ. मगर, फिर भी तुम सुनाओ.”
कितनी आलसी है!
“तो, एक बार एक राजा और रानी रहते थे,” वह शुरू
करती है, गहरी साँस लेकर. और उनकी एक बेटी थी. और तब एक ख़ूबसूरत दिन...”
“वह सुन्दर थी?” सिर्योझा मांग करते हुए उसे बीच
ही में टोकता है.
उसे मालूम था कि
बेटी सुन्दर थी; और सभी को यह मालूम है; मगर पाशा बुआ छोड़ क्यों देती है? कहानियों
में कुछ भी नहीं छोड़ना चाहिए.
“सुन्दर थी, सुन्दर थी. इतनी सुन्दर, इतनी
सुन्दर...एक, मतलब, ख़ूबसूरत दिन उसने सोचा कि शादी कर लूँ. कितने सारे लड़के शादी
का प्रस्ताव लेकर आए...
कहानी अपने ढर्रे
पर चलती रहती है. सिर्योझा ध्यान से सुनता है, अपनी बड़ी बड़ी, कठोर आँखों से शाम के
धुँधलके में देखते हुए. उसे पहले से ही मालूम होता है कि अब कौन सा शब्द आएगा, मगर
इससे कहानी बिगड़ तो नहीं ना जाती. उल्टे ज़्यादा अच्छी लगने लगती है.
शादी के लिए आए हुए
लड़के, प्रस्ताव लेकर आना – इन शब्दों में उसे क्या समझ में आता है – वह कुछ बता
नहीं सकता था; मगर वह सब कुछ समझता था – अपने हिसाब से. मिसाल के तौर पर ‘घोड़ा,
जैसे ज़मीन में गड़ गया’ और फिर दौड़ने लगा – तो, इसका मतलब ये हुआ कि उसे बाहर
निकाला गया.
धुँधलका गहराने
लगता है. खिड़कियाँ नीली हो जाती हैं, और उनकी चौखट काली. दुनिया में कुछ भी सुनाई
नहीं देता है, सिवाय पाशा बुआ की आवाज़ के, जो राजकुमारी से शादी के लिए आए हुए
लड़कों के दुःसाहसी कारनामों के बारे में कह रही है. दाल्न्याया रास्ते के छोटे से
घर में निपट ख़ामोशी छाई हुई है.
ख़ामोशी में
सिर्योझा ‘बोर’ हो जाता है. कहानी जल्दी ख़तम हो जाती है : दूसरी कहानी सुनाने के
लिए पाशा बुआ किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं होती, उसके गुस्से और उसकी विनती के
बावजूद कराहते हुए और उबासियाँ लेते हुए वह किचन में चली जाती है; और वह अकेला रह
जाता है. क्या किया जाए?
बीमारी के दौरान
खिलौनों से बेज़ार हो गया था. ड्राईंग बनाने से भी उकता गया था. साईकिल तो कमरों
में चला नहीं सकते – बहुत कम जगह है.
‘बोरियत’ ने सिर्योझा को बीमारी से भी ज़्यादा
जकड़ रखा है, उसकी हलचल को सुस्त बना दिया है, ख़यालों से भटका दिया है. सब कुछ
‘बोरिंग’ है.
लुक्यानिच कुछ
सामान ख़रीद कर लाया : भूरे रंग का डिब्बा, डोरी से बंधा हुआ. सिर्योझा बहुत उतावला
हो गया और बेचैनी से इंतज़ार करने लगा कि लुक्यानिच उस डोरी को खोले. उसे काट देता,
और बस! मगर लुक्यानिच बड़ी देर तक हाँफ़ते हुए उसकी कस कर बंधी हुई गाँठें खोलता है –
डोरी की ज़रूरत पड़ सकती है, वह उसे साबुत की साबुत संभाल कर रखना चाहता है.
सिर्योझ आँखें फाड़
कर देख रहा है, पंजों के बल खड़े होकर...मगर भूरे डिब्बे से, जहाँ कोई बढ़िया चीज़ हो
सकती थी, निकलते हैं एक जोडी काले कपड़े के जूते, रबर की पतली किनारी वाले.
सिर्योझा के पास भी
जूते हैं, उसी तरह की लेस वाले, मगर वे कपड़े के नहीं, बल्कि सिर्फ रबर के हैं. वह
उनसे नफ़रत करता है, अब इन जूतों की ओर देखने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं है.
“ये क्या है?” मायूस होकर, सुस्त-लापरवाही से वह
पूछता है.
“जूते,” लुक्यानिच जवाब देता है. “इन्हें कहते
हैं ‘अलबिदा जवानी’” .
“मगर क्यों?”
“क्योंकि नौजवान ऐसे जूते नहीं पहनते.”
“और क्या तुम बूढ़े हो?”
“जब मैंने ऐसे जूते पहने हैं, तो इसका मतलब ये
हुआ कि मैं बूढ़ा हूँ.”
लुक्यानिच पैर पटक
कर देखता है और कहता है, “बढ़िया!”
और पाशा बुआ को
दिखाने के लिए जाता है.
सिर्योझा किचन में
कुर्सी पर चढ़ जाता है और बिजली की बत्ती जला देता है. एक्वेरियम में मछलियाँ तैर
रही हैं, अपनी बेवकूफ़ों जैसी आँखें फ़ाड़े. सिर्योझा की परछाईं उन पर पड़ती है – वे
तैर कर ऊपर की ओर आती हैं और खाने की उम्मीद में अपने मुँह खोलती हैं.
‘ हाँ, ये मज़ेदार बात है,’ सिर्योझा सोचता है,
‘क्या वे अपना ही तेल पियेंगी या नहीं?’
वह बोतल का ढक्कन
निकालता है और एक्वेरियम में थोड़ा सा कॉडलिवर ऑइल डालता है. मछलियाँ पूँछ नीचे
करके, मुँह खोले टँगी रहती हैं, मगर वे तेल नहीं पीतीं. सिर्योझा कुछ और तेल डालता
है. मछलियाँ इधर-उधर भाग जाती हैं...
‘नहीं पीतीं,’ उदासीनता से सिर्योझा सोचता है.
‘बोरियत’, ‘बोरियत’ ! ये बोरियत उसे जंगलीपन और
बेमतलब के कामों की ओर धकेलती है. वह चाकू लेता है और दरवाज़ों से उन जगहों का पेंट
खुरच डालता है, जहाँ उसके पोपड़े पड़ गए थे. इसलिए नहीं कि उसे इससे ख़ुशी हो रही थी –
मगर फिर भी कुछ काम तो था. ऊन का गोला लेता है, जिससे पाशा बुआ अपने लिए स्वेटर
बुन रही है, और उसे पूरा खोल देता है – इसलिए कि उसे फिर से लपेट दे (जो उससे हो
नहीं पाता). ऐसा करते हुए उसे हर बार ये महसूस होता है कि वह कोई अपराध कर रहा है,
कि पाशा बुआ उसे डाँटेगी, और वह रोएगा – और वह डाँटती है, और वह भी रोता है, मगर
कहीं दिल की गहराई में वह संतुष्ट है : थोड़ी डाँट-डपट हो गई, रोना-धोना हो गया –
देखो, और समय भी बिना कुछ हुए नहीं बीता.
बहुत ख़ुशी होती है
जब मम्मा आती है और ल्योन्या को लाती है. घर में जान आ जाती है : ल्योन्या
चिल्लाता है, मम्मा उसे खिलाती है, उसके लंगोट बदलती है, ल्योन्या के हाथ-मुँह
धुलाए जाते हैं. अब वह काफ़ी कुछ इन्सान जैसा लगता है, उसके मुक़ाबले, जब वह पैदा
हुआ था. तब वह सिर्फ माँस का गोला ही था. अब वह मुट्ठी में झुनझुना पकड़ सकता है,
मगर इससे ज़्यादा की उससे उम्मीद नहीं की जा सकती. वह पूरे दिन अपने शिशु-गृह में
रहता है, अपनी कोई ज़िन्दगी जीता है, सिर्योझा से अलग.
करस्तिल्योव देर से लौटता है. वह सिर्योझा से बात शुरू कर ही
रहा होता है, या उसे किताब पढ़ कर सुनाने के लिए राज़ी हो ही रहा होता है, तो
टेलिफ़ोन बजने लगता है, और मम्मा हर मिनट उनकी बातों में ख़लल डालती है. हमेशा उसे
कुछ न कुछ कहना ही होता है; वह इंतज़ार नहीं कर सकती, लोगों के काम ख़त्म होने तक.
रात को सोने से पहले ल्योन्या बड़ी देर तक चिल्लाता है. मम्मा करस्तिल्योव को बुलाती है, उसे बस करस्तिल्योव ही चाहिए होता है – वह ल्योन्या को उठाए-उठाए
कमरे में घूमता है और शू—शू—करता है. मगर सिर्योझा का भी अब सोने का मन होता है और
करस्तिल्योव के साथ बातचीत अनिश्चित काल
तक टल जाती है.
मगर कभी कभी
ख़ूबसूरत शामें भी होती हैं – कम ही होती हैं – जब ल्योन्या जल्दी शांत हो जाता है,
और मम्मा कॉपियाँ जाँचने बैठती है, तब करस्तिल्योव सिर्योझा को बिस्तर पर लिटाता है और कहानी
सुनाता है. पहले वह अच्छी तरह से नहीं सुनाता था, बल्कि उसे आता ही नहीं था; मगर
सिर्योझा ने उसकी मदद की और उसे सिखाया, और अब करस्तिल्योव काफ़ी अच्छी तरह से कहानी सुनाता है:
“एक समय की बात है. एक राजा और रानी रहते थे.
उनकी एक सुन्दर बेटी थी, राजकुमारी...”
और सिर्योझा सुनता
है और ठीक करता है, जब तक कि वह सो नहीं जाता.
इन लंबे, उकताहट
भरे दिनों में, जब वह कमज़ोर और चिड़चिड़ा हो गया था, करस्तिल्योव का ताज़ा-तरीन, स्वस्थ्य चेहरा उसे और भी प्यारा
लगने लगा, करस्तिल्योव के मज़बूत हाथ, उसकी
साहसभरी आवाज़...सिर्योझा सो जाता है, इस बात से प्रसन्न होते हुए कि हर चीज़ सिर्फ
ल्योन्का और मम्मा के ही लिए नहीं है – करस्तिल्योव का कुछ भाग तो उसके हिस्से में भी आता है...
अध्याय 15
खल्मागोरी
खल्मागोरी. मम्मा
से करस्तिल्योव की बातचीत में यह शब्द
सिर्योझा अक्सर सुनता है.
“ तुमने खल्मागोरी में ख़त लिखा?”
“शायद खल्मागोरी में इतना व्यस्त नहीं रहूँगा,
तब मैं राजनीतिक-अर्थशास्त्र की परीक्षा पास कर लूँगा.”
“मुझे खल्मागोरी से जवाब आया है. लड़कियों के
स्कूल में नौकरी दे रहे हैं.”
“कर्मचारी विभाग से फोन आया था. खल्मागोरी के
बारे में अंतिम निर्णय ले लिया गया है.”
“इसे कहाँ खल्मागोरी घसीट कर ले जाएँगे. इसे तो
दीमक खा गई है.” (अलमारी के बारे में.)
बस, सिर्फ
खल्मागोरी, खल्मागोरी.
खल्मागोरी. ये कोई
ऊँची चीज़ है. टीले और पहाड़, जैसा तस्वीरों में होता है. लोग एक पहाड़ से दूसरे पहाड़
पर चढ़ रहे हैं. लड़कियों का स्कूल पहाड़ पर है. बच्चे स्लेज में पहाड़ों से फिसल रहे
हैं.
सिर्योझा लाल
पेन्सिल से यह सब कागज़ पर बनाता है और इस मौके पर दिमाग में आई एक धुन पर
हौले-हौले गाता है:
“खल्मागोरी, खल्मागोरी”
जब अलमारी के बारे
में बात हो रही है, तो ज़ाहिर है कि हम वहाँ जा रहे हैं.
बहुत बढ़िया. इससे
अच्छी तो और किसी बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती. झेन्का चला गया. वास्का चला
गया, और हम भी जा रहे हैं. इससे हमारा महत्व ख़ूब बढ़ जाता है, कि हम भी कहीं जा रहे
हैं, बस एक ही जगह पर नहीं बैठे हैं.
“क्या खल्मागोरी दूर है?” सिर्योझा ने पाशा बुआ
से पूछा.
“दूर है,” पाशा बुआ ने जवाब दिया और आह भर कर
बोली, “बहुत दूर है.”
“क्या हम वहाँ जाएँगे?”
“ओह, मुझे मालूम नहीं हैं, सिर्योझेन्का,
तुम्हारी बातें.”
“वहाँ क्या रेल से जाते हैं?”
“रेल से.”
“क्या हम खल्मागोरी जा रहे हैं?” सिर्योझा मम्मा
और करस्तिल्योव से पूछता है. उन्हें ख़ुद
ही उसे इस बारे में बताना चाहिए था, मगर बताना भूल गए.
वे एक दूसरे की ओर
देखते हैं, और फिर दूसरी ओर नज़र फेर लेते हैं, सिर्योझा निरर्थक कोशिश करता है
उनकी आँखों में देखने की.
“हम जा रहे हैं? हम सचमुच वहाँ जा रहे हैं?” वह
घबरा जाता है: वे जवाब क्यों नहीं देते?
मम्मा सावधानी से
कहती है:
“पापा का वहाँ तबादला कर दिया गया है.”
“और हम भी उनके साथ जाएँगे?”
वह सीधे सीधे पूछता
है और उसे सीधा सीधा जवाब चाहिए. मगर मम्मा, हमेशा की तरह, पहले ढेर सारी इधर उधर
की बातें कहती है:
“उसे कैसे अकेले छोड़ सकते हैं. उसे अकेले तो
अच्छा नहीं लगेगा: काम से घर लौटेगा, और घर में कोई नहीं...घर साफ़ सुथरा नहीं
है...खाना खिलाने वाला कोई नहीं...बातें करने के लिए कोई नहीं...बेचारे
पापा का मन दुखी –
ख़ूब दुखी हो जाएगा...”
और इसके बाद वह
कहती है:
“मैं उसके साथ जाऊँगी.”
“और मैं?”
करस्तिल्योव छत की ओर क्यों देख रहा है? मम्मा फिर से क्यों
चुप हो गई और सिर्योझा को क्यों सहला रही है?
“और मैं!!” सिर्योझा भय से पैर पटकते हुए
दुहराता है.
“पहले तो, पैर मत पटको,” मम्मा कहती है और उसे
सहलाना बन्द करती है. “ये और कहाँ से सीख लिया है – पैर पटकना?! मैं दुबारा ये न
देखूँ! और दूसरी बात – आओ इस बारे में सोचते हैं: तुम अभी कैसे जा सकते हो? अभी
अभी तुम बीमारी से उठे हो. तुम पूरी तरह ठीक नहीं हुए हो. ज़रा सा कुछ होता है –
बुख़ार आ जाता है. हमें भी अभी पता नहीं है कि वहाँ कैसे इंतज़ाम करेंगे. और वहाँ की
आबोहवा भी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है. तुम वहाँ बीमार ही पड़ते रहोगे, और कभी भी
अच्छे नहीं हो पाओगे. और मैं तुम्हें, बीमार बच्चे को किसके सहारे छोडूँगी? डॉक्टर
ने कहा है कि अभी तुम्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहिए.”
इससे काफ़ी पहले कि
वह अपनी बात पूरी करे, वह आँसू बहाते हुए सिसकियाँ लेकर रोने लगा. उसे नहीं ले जा
रहे हैं! ख़ुद चले जा रहे हैं, उसके बगैर! सिसकियाँ लेते हुए उसने मुश्किल से सुना
कि वह आगे क्या कह रही थी:
“पाशा बुआ और लुक्यानिच तुम्हारे साथ रहेंगे.
तुम उनके साथ रहोगे, जैसे हमेशा रहते आए हो.”
मगर वह हमेशा की
तरह नहीं रहना चाहता! उसे मम्मा और करस्तिल्योव के साथ रहना है!
“मुझे खल्मागोरी जाना है!” वह चीख़ा.
“ओह, मेरे बच्चे, ओह, चुप हो जा!” मम्मा ने कहा.
“तुझे इतना क्या है उस खल्मागोरी का? वहाँ कोई ख़ास बात नहीं है...”
“झूठ!”
“तुम मम्मा से इस तरह क्यों बात कर रहे हो?
मम्मा हमेशा सच बोलती है...और फिर तुम कोई हमेशा के लिए तो नहीं ना रहोगे यहाँ,
बुद्धू है मेरा बच्चा, ओह, बस भी करो...सर्दियों में यहाँ रहोगे, अच्छे हो जाओगे
और फिर बसंत में या, हो सकता है, गर्मियों में पापा तुझे लेने के लिए आएँगे, या
मैं आऊँगी, और तुझे ले जाएँगे – जैसे ही ठीक हो जाओगे, फ़ौरन ले जाएँगे – और फिर से
हम सब एक साथ रहेंगे. सोचो, क्या हम ख़ूब दिनों तक तुम्हें छोड़ सकते हैं?”
हाँ, और अगर वह
गर्मियों तक अच्छा नहीं हुआ तो? हाँ, क्या ये आसान बात है – सर्दियाँ यहाँ बिताना?
सर्दियाँ – इतनी लंबी, इतनी अंतहीन...और इस बात को कैसे बर्दाश्त करे कि वे जा रहे
हैं, और वह – नहीं? उसके बगैर रहेंगे, दूर, और उन्हें कोई फ़रक नहीं पड़ता, नहीं
पड़ता! और रेल में जाएँगे, और वह एक भी बार रेल से नहीं गया है – और उसे नहीं ले जा
रहे हैं! सब कुछ एक ही साथ महसूस हो रहा था – भयानक अपमान और दुख. मगर वह अपना दुख
सिर्फ सीधे साधे शब्दों में ही व्यक्त कर सकता था:
“मुझे खल्मागोरी जाना है! मुझे खल्मागोरी जाना
है!”
“मीत्या, थोड़ा पानी दो, प्लीज़,” मम्मा ने कहा.
“थोड़ा पानी पी, सिर्योझेन्का. ऐसी ज़िद कोई करता है, भला. तुम चाहे कितना ही
चिल्लाओ, इससे कुछ होने वाला नहीं है. एक बार जब डॉक्टर ने बोल दिया कि नहीं,
मतलब – नहीं. ओह, शांत हो जा, तू तो समझदार बच्चा है, शांत हो जा...सिर्योझेन्का,
मैं तो पहले भी कितनी ही बार तुम्हें छोड़ कर गई
हूँ, जब मैं पढ़ती थी, तुम भूल गए? जाती थी और वापस आ जाती थी, है ना? और
तुम मेरे बगैर मज़े से रहते थे. और, जब मैं तुम्हें छोड़कर जाती थी, तो कभी रोते भी
नहीं थे, क्योंकि मेरे बिना भी तुम्हें अच्छा ही लगता था. याद करो. अभी तुम यह सब
हंगामा क्यों कर रहे हो? क्या तुम, अपनी ही भलाई के लिए, कुछ दिनों तक हमारे बगैर
नहीं रह सकते?”
कैसे समझाऊँ उसे?
तब बात और थी. वह छोटा था और बेवकूफ़ था. वह जाया करती थी – उसकी आदत छूट जाती थी,
और जब वह वापस लौट कर आती, फिर से उसकी आदत पड़ जाती. और तब वह अकेली जाती थी; मगर
अब वह करस्तिल्योव को उससे दूर ले जा रही
है...एक नया ख़याल, नई पीड़ा: ‘ल्योन्या को, शायद, वह ले जाएगी.’ यक़ीन करने के लिए,
अपने सूजे हुए होठों को दबाते हुए उसने पूछा,
“और ल्योन्या?...”
“अरे, वह तो बिल्कुल छोटा है!” उलाहने से मम्मा
ने कहा और वह लाल हो गई. “वह मेरे बिना नहीं रह सकता, समझते हो? वह मेरे बिना मर
जाएगा! और वह तन्दुरुस्त है, उसे बुख़ार नहीं आता और उसके गले की गाँठें सूजती नहीं
हैं.”
सिर्योझा ने सिर
झुका लिया और फिर से रोने लगा. मगर अब, ख़ामोशी से, बिना किसी आशा के.
वह किसी तरह समझौता
कर लेता, अगर ल्योन्या भी रुक जाता. मगर वे तो सिर्फ़ उस अकेले को फेंक कर
जा रहे हैं. सिर्फ वह अकेला ही उन्हें नहीं चाहिए!
‘किस्मत के भरोसे,’ उसने कहानी के लकड़ी वाले
लड़के के बारे में कटुता से सोचा.
और मम्मा ने उसे जो
चोट पहुँचाई थी – ऐसी चोट जो ज़िन्द्गी भर उसके दिल पर अपना निशान छोड़ेगी – उसमें
अपने दोषी होने की भावना भी मिल गई : वह दोषी है, दोषी! बेशक, वह ल्योन्या से बुरा
है, उसकी गाँठें जो फूल जाती हैं, इसीलिए ल्योन्या को ले जा रहे हैं और उसे नहीं
ले जाएँगे!
“आ S S ह !” करस्तिल्योव ने आह भरी और
कमरे से निकल गया...मगर फ़ौरन लौट आया और बोला, “सिर्योझ्का, चलो घूमने चलते हैं.
बगिया में.”
“ऐसी नम हवा में! वह फिर पड़ जाएगा!” मम्मा ने
कहा.
करस्तिल्योव ने हाथ झटके.
“वह वैसे भी लेटा रहता है. चलो, सेर्गेई.”
सिर्योझा सिसकियाँ
लेते हुए उसके पीछे चल पड़ा. करस्तिल्योव ने ख़ुद उसे गरम कपड़े पहनाए. सिर्फ स्कार्फ़
बांधने के लिए मम्मा से कहा. और उसका हाथ पकड़ कर वे बगिया में पहुँचे.
“एक शब्द होता है : ‘ज़रूरी’, करस्तिल्योव कह रहा था.
“तुम क्या सोचते हो, मैं खल्मागोरी जाना चाहता हूँ? या मम्मा जाना चाहती
है? इसका एकदम उल्टा है. हमारी कितनी सारी योजनाएँ थीं, सब गड्ड मड्ड हो गईं. मगर
ज़रूरी है – इसलिए जा रहे हैं. और मेरी ज़िन्दगी में तो ऐसा कितनी बार हुआ है.”
“क्यों?” सिर्योझा ने पूछा.
“ऐसी ही है, दोस्त, ज़िन्दगी.”
करस्तिल्योव बड़ी गंभीरता से और दुख से बोल रहा था, और इस बात
से थोड़ी सी राहत मिली कि उसे भी दुख हो रहा है.
“वहाँ जाएँगे मम्मा के साथ. जैसे ही पहुँचेंगे,
नया काम शुरू करना पड़ेगा. और फिर ये ल्योन्या है. उसे फ़ौरन शिशु-गृह में भेजना
होगा. और अगर, अचानक, शिशु-गृह दूर हुआ तो? एक नर्स ढूँढ़नी पड़ेगी. ये भी बड़ा झंझट
भरा काम है. और मुझे परीक्षा देनी होगी, पास होना होगा, चाहे तुम्हारी जान ही
क्यों न निकल जाए. चाहे कहीं भी जाओ, हर जगह ‘ज़रूरी है’ . और तुझे तो सिर्फ एक ही
बात ‘ज़रूरी है’ : कुछ दिनों के लिए यहाँ इंतज़ार कर लो. तुम्हें हमारे साथ मुसीबतें
उठाने को मजबूर क्यों किया जाए? बेकार ही में और ज़्यादा बीमार पड़ जाओगे....”
मजबूर करने की
ज़रूरत नहीं है. वह राज़ी है, तैयार है, वह तड़प रहा है उनके साथ मुसीबतें उठाने के
लिए. जो उनके साथ हो रहा है, वही उसके साथ भी हो जाए. इस आवाज़ की तमाम
आश्वासात्मकता के बावजूद सिर्योझा इस ख़याल को अपने दिल से न निकाल सका कि वे उसे
इसलिए नहीं छोड़कर जा रहे हैं कि वह वहाँ बीमार पड़ जाएगा, बल्कि इसलिए कि वह,
बीमार, उन पर बोझ बन जाएगा. मगर उसका दिल अब यह भी समझने लगा था कि कोई भी प्यारी
चीज़ कभी बोझ नहीं होती. और उनके प्यार के प्रति शक इस दिल को पैनेपन से चीरता जा
रहा था, जो अब काफ़ी कुछ समझने लगा था.
वे बगिया में आए.
वहाँ सूना सूना और उदास था. पत्ते पूरे गिर चुके थे, नंगे पेड़ों पर घोंसले काले हो
रहे थे, नीचे से देखने पर वे काले ऊन के उलझे हुए गोले जैसे नज़र आ रहे थे. भूरी पड़
गई पत्तियों की गीली सतह पर बूटों से मच् मच् करते सिर्योझा पेड़ों के नीचे से करस्तिल्योव
का हाथ पकड़े चल रहा था और सोच रहा था.
अचानक उसने बगैर किसी भावना के कहा, “सब एक ही है.”
“क्या सब एक ही है?” करस्तिल्योव ने उसकी ओर झुकते हुए पूछा.
सिर्योझा ने जवाब
नहीं दिया.
“ सही में, दोस्त, सिर्फ़ गर्मियों तक!” कुछ देर
की ख़ामोशी के बाद परेशानी से करस्तिल्योव ने कहा.
सिर्योझा यह कहना
चाहता था: सोचो या न सोचो, रोओ या न रोओ – इसका कोई मतलब नहीं है : तुम, बड़े लोग,
सब कुछ कर सकते हो; तुम मना कर सकते हो, तुम इजाज़त दे सकते हो, गिफ्ट दे सकते हो
और सज़ा दे सकते हो; और अगर तुमने कह दिया कि मुझे यहाँ रहना पड़ेगा, तो तुम मुझे
कैसे भी छोड़ ही दोगे, चाहे मैं कुछ भी क्यों न करूँ. ऐसा जवाब वह देता, अगर दे
सकता तो. बड़े लोगों की महान, असीमित सत्ता के सामने असहायता का एहसास उसके दिल को
घेरने लगा....
... इस दिन से वह
एकदम ख़ामोश हो गया. क़रीब क़रीब पूछता ही नहीं था: “ऐसा क्यों?” अक्सर अकेला रहता,
पाशा बुआ के दीवान पर पैर ऊपर करके बैठ जाता और कुछ कुछ फुसफुसाता रहता. पहले ही
की तरह उसे कभी कभार ही घूमने के लिए बाहर छोड़ते : शरद ऋतु लंबी खिंच रही थी – नम,
चिपचिपी – और शरद ऋतु के साथ बीमारी भी खिंचती गई.
करस्तिल्योव अक्सर उनके पास नहीं होता था. सुबह से वह अपना
काम दूसरों को देने के लिए निकल जाता (जैसे कि अभी उसने कहा: ‘मैं चला अवेर्कियेव
को काम सौंपने’) मगर वह सिर्योझा को भूला नहीं था: एक बार, उठने के बाद, सिर्योझा
को अपने पलंग के पास नए क्यूब्स मिले, दूसरी बार – कत्थई रंग की बंदरिया. सिर्योझा
को बंदरिया बहुत अच्छी लगी. वह उसकी बेटी बन गई. वह बड़ी ख़ूबसूरत थी, उस राजकुमारी
की तरह. वह उससे कहता, ‘तू, दोस्त’. वह खल्मागोरी जाता और उसे अपने साथ ले जाता.
उससे फुसफुसाकर बातें करते हुए, उसके ठंडे प्लास्टिक के मुँह को चूमते हुए, वह उसे
सुलाता.
अध्याय 16
प्रस्थान
से पूर्व की रात
कुछ अनजान आदमी आए, डाईनिंग हॉल और मम्मा के कमरे का फ़र्नीचर हटाया और
उसे टाट में बांध दिया. मम्मा ने परदे और लैम्प के कवर हटाए, और दीवारों से
तस्वीरें निकालीं. और कमरे में सब कुछ बड़ा बिखरा बिखरा, बेतरतीब सा लग रहा था :
फ़र्श पर रस्सियों के टुकड़े बिखरे पड़े थे, रंग उड़े हुए वॉल पेपर पर काली चौखटें –
वहाँ, जहाँ तस्वीरें लटक रही थीं. इस बेतरतीबी के बीच पाशा बुआ का कमरा और किचन ही
द्वीपों जैसे लग रहे थे. नंगे बिजली के बल्ब नंगी दीवारों, नंगी खिड़कियों और भूरे
टाट पर चमक रहे थे. एक दूसरे पर रखी कुर्सियों का ढेर बन गया था, जो छत की ओर अपने
खुरचे हुए पैर किए थीं.
कोई और समय होता तो
वहाँ लुका-छिपी का खेल खेला जा सकता था. मगर अब, इस समय...
वे आदमी रात को देर
से गए. सब लोग, थके हुए सोने लगे. और ल्योन्या भी सो गया, शाम को चीख़ा करता था
उतना चीख कर. लुक्यानिच और पाशा बुआ बिस्तर में देर तक फुसफुसाते रहे और उनकी नाक
सूँ-सूँ करती रही, आख़िर में वे भी ख़ामोश हो गए, और लुक्यानिच के खर्राटों की आवाज़
और पाशा बुआ की नाक से निकलती पतली सीटी सुनाई देने लगी.
करस्तिल्योव अकेला ही टाट से बंधी कुर्सी पर मेज़ के पास नंगे
लैम्प के नीचे बैठा था और लिख रहा था. अचानक उसे अपनी पीठ के नीचे गहरी साँस की
आवाज़ आई. उसने मुड़ कर देखा – उसके पीछे सिर्योझा खड़ा था लंबी कमीज़ पहने, नंगे पैर
और बंधे हुए गले से.
“तू क्या कर रहा है यहाँ?” फुसफुसाहट से करस्तिल्योव
ने पूछा और उठ कर खड़ा हो गया.
“करस्तिल्योव ,” सिर्योझा ने कहा, “मेरे प्यारे,
मेरे दुलारे, मैं तुमसे विनती करता हूँ, ओह, प्लीज़, मुझे भी ले चलो!”
और वह दुख से
सिसकियाँ लेने लगा, अपने आप को रोकने की कोशिश करते हुए, जिससे सोए हुए लोग उठ न
जाएँ.
“तू, मेरे दोस्त, क्या कर रहा है!” करस्तिल्योव ने उसे हाथों में उठाते हुए कहा. “तुमसे कहा है
न – नंगे पैर घूमना मना है, फ़र्श ठंडा है...तुम्हें तो मालूम है, है ना?...हम तो
हर चीज़ के बारे में तय कर चुके हैं...”
“मुझे खल्मागोरी जाना है,” सिर्योझा बिसूरने
लगा.
“देखो ज़रा, पैर तो पूरे जम गए हैं,” करस्तिल्योव
ने कहा. सिर्योझा की कमीज़ के किनारे से
उसने उसके पैर ढाँक दिए; उसके दुबले-पतले शरीर को, जो सिसकियों के कारण थरथरा रहा
था, अपने सीने से चिपटा लिया. “क्या कर सकते हो, समझ रहे हो, अगर ये ऐसे ही चलता
रहा तो. अगर तुम हमेशा बीमार पड़ते रहे...”
“मैं अब और बीमार नहीं पडूँगा!”
“और जैसे ही तुम
अच्छे हो जाओगे – मैं फ़ौरन तुम्हें लेने के लिए आ जाऊँगा.”
“तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो?” दुखी होकर
सिर्योझा ने पूछा और उसकी गर्दन में बाँहें डाल दीं.
“मैंने, दोस्त, आज तक तुमसे कभी झूठ नहीं बोला.”
‘सच है, झूठ नहीं बोला,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘मगर
कभी कभी वह भी झूठ बोलता है, वे सभी कभी कभी झूठ बोलते हैं...और, अगर, अचानक, वह
मुझसे झूठ बोल रहा हो तो?’
वह इस मज़बूत
मर्दाना गर्दन को पकड़े रहा, जो ठोढ़ी के नीचे चुभ रही थी, जैसे किसी आख़िरी सहारे को
छोड़ना नहीं चाह रहा हो. इस आदमी पर उसकी सारी आशाएँ टिकी थीं, और वही उसका रक्षक
था, उसका प्यार था. करस्तिल्योव उसे
लिए-लिए डाईनिंग रूम में घूम रहा था और फुसफुसा रहा था – रात की ये पूरी बातचीत
फुसफुसाहट में ही हो रही थी:
“...आऊँगा, फिर हम तुम रेल में जाएँगे...रेलगाड़ी
तेज़ चलती है. डिब्बे लोगों से खचाखच भरे होते हैं...पता भी नहीं चलेगा कि कब मम्मा
के पास पहुँच गए हैं...इंजिन सीटी बजाता है...
‘बस, सिर्फ़ उसके पास कभी समय ही नहीं होगा मेरे
लिए आने का,’ सिर्योझा दुख से सोच रहा था. ‘और मम्मा के पास भी समय नहीं होगा. हर
रोज़ उनके पास अलग अलग तरह के लोग आते रहेंगे और टेलिफ़ोन करते रहेंगे, और हमेशा वे
या तो काम पर जाते रहेंगे, य परीक्षा देते रहेंगे, या ल्योन्या को संभालते रहेंगे,
और मैं यहाँ इंतज़ार करता रहूँगा, इंतज़ार करता रहूँगा, और ये इंतज़ार कभी ख़त्म ही
नहीं होगा...’
“...वहाँ, जहाँ हम रहेंगे, सचमुच का जंगल है,
अपने यहाँ की बगिया जैसा नहीं...कुकुरमुत्ते, बैरीज़, ...”
“भेड़िए भी हैं?”
“वो मैं अभी नहीं बता पाऊँगा. भेड़ियों के बारे
में मैं ख़ास तौर से पता करूंगा और तुम्हें ख़त में लिखूँगा...और नदी है, हम तुम
तैरने के लिए जाएँगे...मैं तुम्हें पेट के बल खिसकते हुए तैरना सिखाऊँगा...”
‘और कौन कह सकता है,’ आशा की एक नई उमंग से
सिर्योझा ने सोचा, शक करते करते वह थक गया था. ‘हो सकता है, यह सब सचमुच में
होगा.’
“हम बन्सियाँ बनाएँगे, मछलियाँ पकडेंगे...देखो!
बर्फ़ पड़ने लगी!”
वह सिर्योझा को
खिड़की के पास ले गया. खिड़की के पार बड़े बड़े सफ़ेद फ़ाहे उड़ रहे थे, एक पल में चपटे
होकर खिड़की की काँच से चिपक रहे थे. सिर्योझा उनकी ओर देखने लगा. वह पूरी तरह थक
गया था, अपना गरम गीला गाल करस्तिल्योव के
चेहरे से चिपकाए वह शांत हो गया था.
“आ गईं सर्दियाँ! फिर से ख़ूब घूमोगे, स्लेज पर
फिसलोगे, समय तो बिना कुछ महसूस किए उड़ जाएगा...”
“मालूम है,” सिर्योझा ने ग़मगीन परेशानी से कहा.
“मेरी स्लेज की डोरी बहुत बुरी है, तुम नई डोरी बांध दो.”
“ठीक है. ज़रूर बांध दूँगा. मगर तुम, दोस्त,
मुझसे वादा करो : अब कभी नहीं रोओगे, ठीक है? तुम्हें भी नुक्सान होता है, और
मम्मा भी परेशान हो जाती है, और वैसे भी ये मर्दों का काम नहीं है. मुझे ये अच्छा
नहीं लगता...वादा करो कि कभी नहीं रोओगे.”
“हूँ,” सिर्योझा ने कहा.
“वादा करते हो? पक्का वादा?”
“हूँ, हूँ...”
“तो, ठीक है फिर. देखो, मुझे तुम्हारे, मर्द के,
वादे पर पूरा भरोसा है.”
वह थके हुए, बोझिल
हो चुके सिर्योझा को पाशा बुआ के कमरे में ले गया, उसे पलंग पर लिटाया और कंबल से
ढाँक दिया. सिर्योझा ने एक लंबी, हाँफ़ती हुई साँस छोड़ी और फ़ौरन सो गया. करस्तिल्योव
कुछ देर खड़ा रहा, उसकी ओर देखता रहा.
डाईनिंग रूम से आती हुई रोशनी में सिर्योझा का चेहरा छोटा सा, पीला नज़र आ रहा था –
करस्तिल्योव मुड़ा और पंजों के बल बाहर
निकल गया.
अध्याय 17
प्रस्थान
का दिन
जाने
का दिन आ गया.
एक
उदास दिन. बगैर सूरज का, बगैर बर्फ़ का. बर्फ़ तो ज़मीन पर रात भर में पिघल गई, सिर्फ़
उसकी पतली सतह छतों पर पड़ी थी. भूरा आसमान. पानी के डबरे. कहाँ की स्लेज : आंगन
में निकलना भी जान पर आ रहा है.
और
ऐसे मौसम में किसी भी चीज़ की उम्मीद नहीं कर सकते. मुश्किल से ही कोई अच्छी चीज़ हो
सकती है...
मगर
फिर भी करस्तिल्योव ने स्लेज को नई डोरी
बांध दी थी – सिर्योझा ने ड्योढ़ी में झाँक कर देखा – डोरी बांध दी गई थी.
मगर
ख़ुद करस्तिल्योव जल्दी जल्दी कहीं भागा.
मम्मा
बैठी थी और ल्योन्या को खिला रही थी. वह बस उसे खिलाती ही रहती है, खिलाती ही रहती
है...मुस्कुराते हुए उसने सिर्योझा से कहा:
“देख, कैसी मज़ेदार नाक है इसकी!”
सिर्योझा
ने देखा : नाक जैसी तो नाक है. ‘उसे इसकी नाक इसलिए अच्छी लगती है,’ सिर्योझा ने
सोचा, ‘क्योंकि वह इससे प्यार करती है. पहले वह मुझे प्यार करती थी, मगर अब इसे
प्यार करती है.’
और
वह पाशा बुआ के पास चला गया. चाहे वह कितनी ही अंधविश्वासी हो, मगर वह उसके साथ
रहेगी और उसे प्यार करती रहेगी.
“तुम क्या कर रही हो?” उसने उकताई हुई आवाज़ में
पूछा.
“क्या देख नहीं रहे हो,” पाशा बुआ ने तर्कपूर्ण
उत्तर दिया, “कि मैं कटलेट्स बना रही हूँ?”
“इतने सारे क्यों?”
किचन की पूरी मेज़ पर कच्चे गीले कटलेट्स बिखरे
पड़े थे, ब्रेड के चूरे में लिपटे हुए.
“क्योंकि हम सब को खाने के लिए चाहिए और जाने
वालों को रास्ते के लिए.”
“वे जल्दी चले जाएँगे?” सिर्योझा ने पूछा.
“इतनी जल्दी नहीं. शाम को.”
“कितने घंटे बाद?”
“अभी बहुत सारे घंटों के बाद. अंधेरा हो जाएगा,
तब ही जाएँगे. और जब तक उजाला है – नहीं जाएँगे.”
वह
कटलेट्स बनाती रही, और वह खड़ा था, माथा मेज़ की किनार पर टिकाए, सोच रहा था.
’लुक्यानिच
भी मुझे प्यार करता है, और वह और भी प्यार करने लगेगा, खूब खूब प्यार करेगा....मैं
लुक्यानिच के साथ नाव में जाऊँगा और डूब जाऊँगा. मुझे धरती में गाड़ देंगे, जैसे
परदादी को किया था. करस्तिल्योव को और
मम्मा को पता चलेगा और वे रोएँगे, और कहेंगे: हम उसे अपने साथ क्यों नहीं लाए, वह
कितना समझदार, कितना आज्ञाकारी लड़का था; रोता नहीं था, दिमाग़ नहीं चाटता था,
ल्योन्या तो उसके सामने – छिः नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए कि मुझे धरती में गाड़
दें, ये बड़ा डरावना होगा : अकेले पड़े रहो वहाँ...हम तो यहीं अच्छे से रहेंगे,
लुक्यानिच मेरे लिए सेब और चॉकलेट लाया करेगा; मैं बड़ा हो जाऊँगा और दूर के जहाज़
का कप्तान बनूँगा, और करस्तिल्योव और
मम्मा बड़ी बुरी तरह रहेंगे, और फिर एक ख़ूबसूरत दिन वे आएँगे और कहेंगे : प्लीज़,
लकड़ी काटने की इजाज़त दीजिए. और मैं कहूँगा पाशा बुआ से : इन्हें कल का सूप दे
दो...’
यहाँ
सिर्योझा को इतना दुख हुआ, करस्तिल्योव और
मम्मा पर इतनी दया आई कि वह आँसुओं से नहा गया. मगर जैसे ही पाशा बुआ चहकी, ‘हे
मेरे भगवान!’ उसे अपना वादा याद आ गया जो उसके करस्तिल्योव से किया था:
“मैं फिर नहीं रोऊँगा!”
नास्त्या
दादी आई अपने काले थैले के साथ और उसने पूछा, “मीत्या घर पर है?”
“गाड़ी का इंतज़ाम करने गया है,” पाशा बुआ ने जवाब
दिया. “अवेर्किएव दे ही नहीं रहा है, ऐसा बदमाश है.”
“वो क्यों बदमाश होने लगा,” नास्त्या दादी ने
कहा. “उसे ख़ुद को अपने काम के लिए कार की ज़रूरत है, ये हुई पहली बात. और दूसरी बात
यह कि वह लॉरी तो दे रहा है न. सामान के साथ – इससे अच्छी बात और क्या हो सकती
है.”
“सामान – बेशक,” पाशा बुआ ने कहा, “मगर मार्याशा
को बच्चे के साथ कार में ज़्यादा अच्छा रहता.”
“सिर पर चढ़ गए हैं, बहुत ज़्यादा,” नास्त्या दादी
ने कहा. “हम तो बच्चों को कभी किसी गाड़ी-वाड़ी में नहीं ले गए, न तो कारों में, न
लॉरियों में, और ऐसे ही उन्हें बड़ा कर दिया. बच्चे को लेकर कैबिन में बैठ जाएगी,
और बस.”
सिर्योझा
धीरे धीरे आँखें मिचकाते हुए सुन रहा था. वह जुदाई के ख़ौफ़ में डूबा हुआ था, जो अटल
थी. उसके भीतर की हर चीज़ इकट्ठा हो रही थी, तन गई थी, जिससे कि इस आने वाले दुख का
सामना कर सके. चाहे कैसे भी जाएँ, मगर वे जल्दी ही चले जाएँगे, उसे छोड़कर, मगर वह
उन्हें प्यार करता है.
“ये मीत्या क्या कर रहा है,” नास्त्या दादी ने
कहा, “ मैं बिदा लेना चाहती थी.”
“आप उन्हें छोड़ने नहीं जाएँगी?” पाशा बुआ ने
पूछा.
“मुझे एक कॉन्फ्रेंस में जाना है,” नास्त्या
दादी ने जवाब दिया और वह मम्मा के पास गई. और ख़ामोशी छा गई. और आँगन में सब कुछ
धूसर हो गया, और हवा चलने लगी. हवा से खिड़की की काँच थरथराते हुए झंकार कर रही थी.
पानी के डबरे बर्फ़ की पतली सफ़ॆद चादर में बदल रहे थे.. और फिर से बर्फ़ गिरने लगी,
हवा में तेज़ी से गोल-गोल घूमते हुए.
“और अब कितने बचे हैं घंटे?” सिर्योझा ने पूछा.
“अब कुछ कम हैं,” पाशा बुआ ने जवाब दिया, “मगर
फिर भी अभी काफ़ी हैं.”
...नास्त्या
दादी और मम्मा डाईनिंग रूम में, फ़र्नीचर के ढेर के बीच खड़े होकर बातें कर रही थीं.
“ओह, कहाँ है वो,” नास्त्या दादी ने कहा, “ कहीं
बिना मिले ही तो नहीं चला जाएगा, क्योंकि मालूम नहीं है कि उसे फिर से देख सकूँगी
या नहीं.”
‘वह भी डरती है,’ सिर्योझा ने सोचा, ‘कि वे
हमेशा के लिए चले जाएँगे और कभी वापस नहीं लौटेंगे.’
और
उसने ग़ौर किया कि बिल्कुल अंधेरा हो चुका है, जल्दी ही लैम्प जलाना पड़ेगा.
ल्योन्या
रोने लगा. मम्मा उसके पास भागी, सिर्योझा से क़रीब क़रीब टकराते टकराते बची और प्यार
से उससे बोली, “तुम किसी चीज़ से अपना दिल बहलाओ, सिर्योझेन्का.”
वह
तो ख़ुद ही अपना दिल बहलाना चाहरहा था और ईमानदारी से उसने कोशिश की पहले बंदरिया
से, फिर क्यूब्स से खेलने की, मगर कुछ नहीं हुआ : बिल्कुल दिल नहीं लग रहा था और
सब कुछ बड़ा नीरस लग रहा था. किचन का दरवाज़ा धड़ाम् से खुला, पैरों की दन् दन्
आवाज़ें सुनाई दीं और करस्तिल्योव की
ज़ोरदार आवाज़ सुनाई दी:
“चलो, खाना खा लें. एक घंटे बाद गाड़ी आएगी.”
“क्या ‘मस्क्विच’ कार मिली?” नास्त्या दादी ने
पूछा.
करस्तिल्योव
ने जवाब दिया, “ओह, नहीं. नहीं दे रहे
हैं. भाड़ में जाएँ. लॉरी में ही जाना पड़ेगा.”
सिर्योझा
आदत के मुताबिक इस आवाज़ को सुनकर ख़ुश होने ही वाला था और उछलने वाला था, मगर तभी
उसने सोचा : ‘जल्दी ही यह नहीं रहेगी’ और फिर से वह फ़र्श पर बेमतलब क्यूब्स घुमाता
रहा. करस्तिल्योव भीतर आया, बर्फ़ के कारण
वह लाल हो गया था, ऊपर से उसने सिर्योझा की ओर देखा और अपराध की भावना से पूछा,
“क्या हाल है, सिर्गेई?”
...जल्दी
जल्दी खाना खाया. नास्त्या दादी चली गई. बिल्कुल अंधेरा हो गया. करस्तिल्योव ने टेलिफोन किया और किसी से बिदा ली.
सिर्योझा
उसके घुटनों से चिपक कर खड़ा था और बिल्कुल हिल डुल नहीं रहा था – और करस्तिल्योव ,
बातें करते हुए अपनी लंबी लंबी उँगलियाँ उसके बालों में फेर रहा था...
ड्राईवर
तिमोखिन आया और उसने पूछा,
“तो, सब तैयार है? फ़ावड़ा दीजिए, बर्फ़ साफ़ करना
होगा, वर्ना फाटक नहीं खुलेगा.”
लुक्यानिच
उसके साथ फाटक खोलने गया. मम्मा ने ल्योन्या को पकड़ा और उसे कंबल में लपेटने लगी.
करस्तिल्योव
ने कहा,
“जल्दी मत करो. उसे पसीना आ जाएगा. आराम से कर
लेना.”
तिमोखिन
और लुक्यानिच के साथ मिलकर वह बंधी हुई चीज़ें बाहर ले जाने लगा. दरवाज़े बार-बार
खुल रहे थे, कमरों में ठंडक हो गई. सबके जूतों पर बर्फ़ थी, कोई भी पैर नहीं पोंछ
रहा था, और पाशा बुआ भी कुछ कह नहीं रही थी – वह समझ रही थी कि अब पैर पोंछने से
भी कोई फ़ायदा नहीं है! फ़र्श पर पानी के डबरे बन गए थे, वह गंदा और गीला हो गया था.
बर्फ़ की, टाट की, तंबाकू की और तिमोखिन के भेड़ की खाल के कोट से कुत्ते की गंध आ
रही थी. पाशा बुआ भाग भाग कर हिदायतें दे रही थी. मम्मा ल्योन्या को हाथों में लिए
सिर्योझा के पास आई, एक हाथ में उसने सिर्योझा का सिर लिया और उसे अपने पास चिमटा
लिया; वह दूर हो गया : वह उसे अपनी बाँहों में क्यों ले रही है, जबकि वह उससे दूर
जाना चाहती है.
सारा
सामान बाहर ले जाया गया : फ़र्नीचर, सूटकेस, खाने की थैलियाँ, और ल्योन्या के
लंगोटों की बैग. कितना खाली खाली लग रहा है कमरों में! सिर्फ़ थोड़े बहुत कागज़ पड़े
हैं. और दिखाई दे रहा है कि घर पुराना है, कि फ़र्श का रंग उड़ गया है और वह सिर्फ़
उसी जगह बचा है जहाँ अलमारी और छोटी मेज़ रखी थी.
“पहन लो, बाहर आँगन में ठंड है,” लुक्यानिच ने
पाशा बुआ को कोट देते हुए कहा. सिर्योझा एकदम चौंक गया और चीख़ते हुए उनकी ओर भागा,
“मैं भी आँगन में जाऊँगा! मैं भी आँगन में जाऊँगा!”
“अरे, ऐसे कैसे, ऐसे कैसे! तू भी चलेगा, तू भी!”
पाशा बुआ ने उसे शांत करते हुए कहा और उसे गरम कपड़े पहनाए. तब तक मम्मा ने और करस्तिल्योव
ने भी कोट पहन लिए. करस्तिल्योव ने सिर्योझा को एक हाथ से उठाया, कस कर उसे चूमा
और फिर निर्णयातमक आवाज़ में कहा, “ फिर मिलेंगे, दोस्त. तंदुरुस्त रहना और याद
रखना कि हमने किस बारे में फ़ैसला किया था.”
मम्मा
सिर्योझा को चूमने लगी और रो पड़ी,
“सिर्योझेन्का! मुझसे दस्विदानिया (फिर मिलेंगे)
कहो!”
“दस्विदानिया, दस्विदानिया!” उसने जल्दी जल्दी
कहा, वह परेशानी से और इस जल्दबाज़ी से हाँफ रहा था, और उसने करस्तिल्योव की ओर देखा. और उसे इनाम मिल गया – करस्तिल्योव ने कहा, “तुम मेरे बहादुर बेटे हो, सिर्योझ्का!”
और
लुक्यानिच और पाशा बुआ से मम्मा ने रोते हुए कहा, “आपका बहुत बहुत धन्यवाद, हर चीज़
के लिए.”
“कोई बात नहीं,” दुखी होकर पाशा बुआ ने जवाब
दिया.
“सिर्योझ्का का ध्यान रखना.”
“इस बारे में बिल्कुल बेफिक्र रहो,” पाशा बुआ ने
जवाब दिया और और भी अधिक दुखी होकर अचानक चीखी:
“हम कुछ देर बैठना भूल गए! बैठना ज़रूरी है!” (सफ़र
पर जाने वाले और उन्हें बिदा करने वाले कुछ पल ख़ामोश बैठते हैं. यह सफ़र को सुखद
बनाने की भावना से किया जाता है – अनु.)
“मगर कहाँ?” लुक्यानिच ने आँखें पोंछते हुए
पूछा.
”
हे मेरे भगवान!” पाशा बुआ ने कहा. “चलो, हमारे कमरे में चलो!”
सब
वहाँ गए, इधर उधर बैठे और न जाने क्यों, कुछ देर बैठे रहे – ख़ामोश, एक पल के लिए.
पाशा बुआ सबसे पहले उठी और बोली,
“भगवान आपकी रक्षा करे.”
वे
बाहर ड्योढ़ी में आए. बर्फ गिर रही थी, सब कुछ सफ़ेद था. फाटक पूरा खुला था. शेड की
दीवार पर मोमबत्ती वाली लालटेन लटक रही थी, वह रोशनी बिखेर रही थी., बर्फ़ के
गुच्छे उसकी रोशनी में गिरते हुए दिखाई दे रहे थे. सामान से भरी लॉरी आंगन के
बीचोंबीच खड़ी थी. तिमोखिन ने सामान पर तिरपाल डाल दिया, शूरिक उसकी मदद कर रहा था.
चारों ओर लोग जमा हो गए थे : वास्का की माँ, लीदा और कुछ और भी लोग जो मम्मा और करस्तिल्योव
को बिदा करने आए थे. और वे सब – और अपने
चारों ओर की हर चीज़ सिर्योझा को पराई लग रही थी, जैसे उसने उन्हें कभी देखा ही न
हो. आवाज़ें भी अनजान लग रही थीं. पराया था यह आँगन...जैसे कि उसने इस शेड को कभी
देखा ही नहीं था. जैसे इन बच्चों के साथ वह कभी खेला ही नहीं था. जैसे इस चाचा ने
इस लॉरी में उसे कभी घुमाया ही नहीं था. जैसे कि उसका, जिसे फेंक दिया गया हो,
अपना कुछ भी नहीं था और हो भी नहीं सकता था.
“जान पे आ रह है गाड़ी चलाना,” अनजान आवाज़ में
तिमोखिन ने कहा. “बहुत फ़िसलन है.”
करस्तिल्योव
ने मम्मा और ल्योन्या को कैबिन में बिठाया
और शॉल से लपेट दिया : वह उन्हें सबसे ज़्यादा प्यार करता था, वह इस बात की फ़िक्र
करता था कि वे ठीक ठाक रहें ..और वह ख़ुद लॉरी में ऊपर चढ़ गया और वहाँ खड़ा रहा,
बड़ा, जैसे कोई स्मारक हो.
“तुम तिरपाल के नीचे जाओ मीत्या! तिरपाल के
नीचे!” पाशा बुआ चीखी, “वर्ना बर्फ़ की मार लगेगी!”
उसने
उसकी बात नहीं सुनी, और बोला,
“सिर्गेई, एक ओर को सरक जाओ. कहीं गाड़ी तुम पर न
चढ़ जाए.”
लॉरी
घरघराने लगी. तिमोखिन कैबिन में चढ़ गया. लॉरी और ज़ोर से घरघराने लगी, अपनी जगह से
हिलने की कोशिश करते हुए...ये सरकी : पीछे गई, फिर आगे और फिर पीछे. अब वो चली
जाएगी, फाटक बन्द कर देंगे, लालटेन बुझा देंगे, और सब कुछ ख़त्म हो जाएगा.
सिर्योझा
एक ओर को, बर्फ के नीचे खड़ा था. वह पूरी ताक़त से अपने वचन को याद कर रहा था और
सिर्फ कभी कभी लंबी, आशाहीन सिसकियाँ ले रहा था. और एक – इकलौता आँसू उसकी
बरौनियों पर फिसला और लालटेन की रोशनी में चमकने लगा – एक कठिन आँसू, बच्चे का
नहीं, बल्कि लड़के का, कड़वा, तीखा और स्वाभिमानी आँसू...
और
अधिक वहाँ रुकने में असमर्थ, वह मुड़ा और घर की ओर चल पड़ा, दुख से झुका हुआ.
“रुको!” बदहवासी से करस्तिल्योव चिल्लाया और तिमोखिन के ऊपर की छत पर ज़ोर ज़ोर से
खटखटाने लगा. “सिर्गेई! जल्दी! फ़ौरन! सामान इकट्ठा कर! तू चलेगा!”
और
वह ज़मीन पर कूदा.
“जल्दी! क्या क्या है? कपड़े वगैरह. खिलौने. एक
दम में इकट्ठा कर. जल्दी!”
“मीत्या, तू क्या कर रहा है! मीत्या, सोचो!
मीत्या, तुम पागल हो गए हो!” पाशा बुआ और कैबिन से बाहर देखते हुए मम्मा कह रही
थीं. उसने उत्तेजना और गुस्से से जवाब दिया:
“बस हो गया. ये क्या हो रहा है, समझ रहे हैं? ये
बच्चे को दो भागों में चीरना हो रहा है. आप चाहे जो करें, मैं नहीं कर सकता. बस.”
“हे भगवान! वह वहाँ मर जाएगा!” पाशा बुआ चीखी.
“चुप,” करस्तिल्योव ने कहा. “मैं हर चीज़ के लिए ज़िम्मेदार हूँ, समझ
में आया? कुछ नहीं मरेगा वो. बेवकूफ़ी है आपकी. चल, चल, सिर्योझा!”
और
वह घर के अन्दर भागा.
पहले
तो सिर्योझा अपनी जगह पर जम गया : उसे विश्वास नहीं हो रहा था, वह डर गया
था.....दिल इतनी ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था कि उसकी आवाज़ सिर तक पहुँच रही थी...फिर
सिर्योझा घर में भागा, सारे कमरों में दौड़ लगा ली, हाँफ़ते हुए, भागते भागते
बंदरिया को उठाया – और अचानक निराश हो गया, यह तय करके कि शायद करस्तिल्योव ने अपना इरादा बदल दिया हो, मम्मा और पाशा बुआ
ने उसका मन बदल दिया हो – और वह फिर से उनके पास भागा. मगर करस्तिल्योव उसके सामने से भाग कर आते हुए कह रहा था, “ चल,
जल्दी कर!” उन्होंने मिलकर सिर्योझा की चीज़ें इकट्ठा कीं. पाशा बुआ और लुक्यानिच
मदद कर रहे थे. लुक्यानिच ने सिर्योझा का पलंग फोल्ड करते हुए कहा, “मीत्या – ये
तुमने बिल्कुल सही किया! शाबाश!”
और सिर्योझा अपनी
दौलत में से जो भी हाथ लगता, उत्तेजना से उठाकर डिब्बे में डाल लेता, जो उसे पाशा
बुआ ने दिया था. जल्दी! जल्दी! वर्ना अचानक वे चले जाएँगे! वैसे भी यह सही सही
जानना बड़ा मुश्किल है कि वे कब क्या करेंगे...दिल तो गले तक आकर धड़क रहा था, साँस
लेने और सुनने में भी तकलीफ़ हो रही थी.
“जल्दी! जल्दी!” वह चिल्लाया, जब पाशा बुआ उसे
गरम कपड़ों में लपेट रही थी. और, उसके हाथों से छूटकर वह आँखों से करस्तिल्योव को ढूँढ़ रहा था. मगर लॉरी अपनी जगह पर ही थी, और
करस्तिल्योव अभी बैठा भी नहीं था और
सिर्योझा को सबसे बिदा लेने को कह रहा था.
और अब, उसने
सिर्योझा को उठाया और कैबिन में ठूँस दिया, मम्मा के पास और ल्योन्या के पास,
मम्मा की शॉल के नीचे. लॉरी चल पड़ी, और आख़िरकार अब सुकून से बैठा जा सकता था.
कैबिन में भीड़ हो
गई थी : एक, दो, तीन – चार आदमी, ओहो! भेड़ के कोट की तेज़ बू आ रही है. तिमोखिन
सिगरेट पी रहा है. सिर्योझा खाँस रहा है. वह तिमोखिन और मम्मा के बीच में दबा हुआ
बैठा था, कैप उसकी एक आँख पर खिसक गई थी, स्कार्फ़ गला दबा रहा है, और कुछ भी दिखाई
नहीं दे रहा है, छोटी सी खिड़की को छोड़कर, जिसके बाहर बर्फ़ गिर रही है, हेडलाईट की
रोशनी में चमकती बर्फ़. बहुत मुश्किल हो रही है, मगर हमें इसकी परवाह नहीं है : हम
जा रहे हैं. सब एक साथ जा रहे हैं, हमारी गाड़ी में, हमारा तिमोखिन हमें ले जा रहा
है, और बाहर से, हमारे ऊपर करस्तिल्योव जा
रहा है, वह हमें प्यार करता है, वह हमारे लिए ज़िम्मेदार है, उस पर बर्फ़ की मार पड़
रही है, मगर उसने हमें कैबिन में बिठाया है, वह हम सब को खल्मागोरी ले जा रहा है.
हे भगवान! हम खल्मागोरी जा रहे हैं. कितनी ख़ुशी की बात है! वहाँ क्या है – यह तो
पता नहीं, मगर, शायद बड़ा ख़ूबसूरत ही होगा, क्योंकि हम वहाँ जा रहे हैं! तिमोखिन के
हॉर्न की ज़ोरदर आवाज़ आ रही है, और चमकती हुई बर्फ़ खिड़की से सीधे सिर्योझा की ओर आ
रही है...
***
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